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सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष भारत की चुनौतियां

२ अगस्त २०११

इस महीने भारत संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष होगा. 19 साल बाद उसे यह जिम्मेदारी मिली है. अरब दुनिया के कई देशों में जारी संकट और उस पर पश्चिमी दुनिया से अलग भारत की राय को देखते हुए इसे अहम माना जा रहा है.

भारत सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य हैतस्वीर: AP

संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी राजदूत हरदीप पुरी ने कहा है कि भारत इस मौके का इस्तेमाल अपनी साख को स्थापित करने के लिए करेगा. साथ ही उसकी कोशिश दिखाना है कि विश्व में स्थायी शांति कैसे कायम की जा सकती है. वह कहते हैं कि भारत अपनी जिम्मेदारी को पूरी परिवक्वता से निभाएगा. इस दौरान भारत के क्या अधिकार होंगे और दुनिया में जारी संकटों से निपटने में वह क्या योगदान दे सकता है, जानते हैं नई दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर राकेश बातब्याल सेः

अगर कोई सदस्य देश एक महीने के लिए सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष बनता है तो उसका क्या मतलब होता है. उस एक महीने के दौरान उस देश के क्या विशेष अधिकार होते हैं.

सुरक्षा परिषद के सदस्यों को बारी बारी से एक महीने के लिए अध्यक्षता दी जाती है. किस महीने में यह अध्यक्षता मिल रही है, वह बहुत मायने रखता है. उस वक्त सुरक्षा परिषद में कोई बहुत अहम मुद्दा हो सकता है जिस पर अध्यक्ष देश बात करे, कराए या वोटिंग पैटर्न क्या हो, इस लिहाज से वह एजेंडे को बदल सकता है.

इस वक्त सबसे बड़ा मुद्दा लीबिया संकट है, तो उस पर हमें भारत की तरफ से किस तरह का रुख देखने को मिल सकता है जबकि भारत ने सुरक्षा परिषद में लीबिया पर आए प्रस्ताव पर हुए मतदान में हिस्सा नहीं लिया था.

लीबिया है, इसके अलावा सीरिया भी है. अब अगर सीरिया पर कोई बात कराना चाहता है तो भारत को अध्यक्ष होने के नाते कुछ कहना होगा, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत अहमियत रखता है. इन सब मुद्दों पर भारत का एक अलग रुख रहा है, और ऐसे में उसका अध्यक्ष बनना बहुत महत्वपूर्ण है. दूसरा, भारत इस दौरान क्या रुख लेगा, यह भी देखने लायक है. भारत पिछले कुछ समय से विश्व परिदृश्य में अमेरिकी पंथी रुख दिखा रहा है. लेकिन घरेलू स्तर पर भारत में लीबिया का रुख नाटो और पश्चिमी देशों की बमबारी के खिलाफ है.

लीबिया में स्थिति गतिरोध का शिकार हो गई है क्योंकि न तो पश्चिम देशों की कार्रवाई के चलते मुअम्मर गद्दाफी सत्ता छोड़ने को तैयार हैं और न ही विद्रोहियों के रुख में कोई नरमी आ रही हैतस्वीर: dapd

मान लीजिए कुछ देश लीबिया और इसी तरह के दूसरे संकटों पर कोई प्रस्ताव लाना चाहते हैं, तो इसमें अध्यक्ष देश की क्या भूमिका होती है, वोटिंग होगी या नहीं, क्या कुछ इस तरह के अधिकार होते हैं.

कुछ ऐसे अधिकार होते हैं. इससे भी ज्यादा सुरक्षा परिषद का अपना सचिवालय है, उस पर भी कुछ देशों का कब्जा होता है. कुछ एजेंडा भी होता है. मान लीजिए अगर ऑस्ट्रेलिया होता तो वह एंग्लो ब्रिटिश समुदाय का हिस्सा रहा है. वह तो उसी सचिवालय के एजेंडे के साथ जाता. और एजेंडा ज्यादातर स्थायी सदस्य तय करते हैं. अब अगर भारत जैसा अस्थायी सदस्य परिषद की अध्यक्षता कर रहा है तो उस एजेंडे में थोड़ी सी दूसरी गुंजाइश हो सकती है. भारत का अपना रुख है, तो वह अहम हो जाता है. ऐसा नहीं है कि भारत एजेंडे को पूरी तरह बदल सकता है. इस एजेंडे को किस तरह पेश किया जाए, यह महत्वपूर्ण है. मान लीजिए अगर भारत के राजनयिक स्वतंत्र रुख रखें तो कोई भी कदम उठाने से पहले मसलन लीबिया जैसे मुद्दों पर अरब लीग या अफ्रीकी संघ की राय ली जा सकती है. अफ्रीकी संघ लीबिया में हो रही कार्रवाई पर बहुत नाराज है. तो भारत व्यापक एजेंडे में ज्यादा बदलाव नहीं कर सकता, लेकिन उस पर चर्चा के दौरान औपचारिक तौर पर अपना रुख पेश कर सकता है.

भारत की निजी प्राथमिकताओं में सुरक्षा परिषद में सुधार की बात सबसे ऊपर है. भारत स्थायी सदस्यता चाहता है. तो उस प्राथमिकता को कितना आगे बढ़ाने का मौका होगा.

मेरे ख्याल से अभी कुछ दिनों से वह मामला थम सा गया है. भारत की मांग रही है कि विश्व की मौजूदा व्यवस्था में समरूपता लाई जाए. यह तो एक दीर्घकालीन मांग है जो चलती रहेगी. जैसे विश्व बैंक या संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग पैटर्न है, तो उसमें भारत समेत ब्राजील, जापान और नाइजीरिया की मांग रहेगी कि इसमें बदलाव किए जाएं. वैसे भारत की अपनी संस्थागत स्थिति को देखते हुए मुझे वह अभी इतनी बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं दिखता. भारत के विदेश मंत्रालय के अधिकारी या कर्मचारी अमला भी विश्व जिम्मेदारी लेने के लायक नहीं दिखते. यह दुविधा तो रहेगी. अभी उस मामले में कोई तुरंत कदम नहीं उठेंगे.

अमेरिका बार बार कहता रहा है कि भारत विश्व मंच पर बड़ी भूमिका अदा करेतस्वीर: AP

तो क्या मानें, एक महीने के लिए अध्यक्ष बनना अपनी क्षमता को दिखाने का मौका है या सिर्फ एक प्रक्रिया का हिस्सा है.

यह कहीं न कहीं घरेलू स्तर पर यह दिखाने की भी कोशिश होती है कि देखो हम भी बड़े हो गए हैं. यूं तो भारत समरूपता की मांग 1950 से उठा रहा है. कांग्रेस के 1939 के अधिवेशन से ही यह बात उठती रही है. मेरे ख्याल से विश्व शांति और निरस्त्रीकरण में भारत का अहम योगदान रहा है. जब भारत गरीब था, तब यह योगदान ज्यादा था. नेहरू ऐसे बहुत मुद्दों के केंद्र में थे. अब एक बड़ा तबका आया है जिसमें सॉफ्टवेयर इंजीनियर और ऊंची शिक्षा पाने वाले हैं, वे भारत को विश्व मंच पर देखना चाहते हैं. वे कहते हैं कि जब भारत इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था है तो वह क्यों नहीं सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बन सकता है. भारत का सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष बनना इसलिए भी अहम है कि वह बहुत दिनों बाद सुरक्षा परिषद में आया है. असल में बहुत से देशों ने उसे मतदान में पहले धोखा दिया क्योंकि भारत के जो पारंपरिक साथी हैं, वे हाल के कुछ वर्षों में अलग जाते दिख रहे हैं. नए गठबंधन बन रहे हैं. भारत की इस्राएल से नजदीकी बढ़ रही है. अमेरिका चाहता है कि भारत चीन के खिलाफ खड़ा हो. भारत को क्षेत्रीय शक्ति बनाने की भी बात हो रही हैं. तो इस तरह की स्थिति में अगर भारत सुरक्षा परिषद में आया है तो उसे एक तरह से सांत्वना मिली है.

अगर भारत अमेरिका का साथी बनते हुए चीन के खिलाफ खड़ा होता है तो सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिलना तो और मुश्किल होगा, आखिरकार चीन वीटो पावर से लैस है.

बिल्कुल. इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती यही है कि पारंपरिक तौर पर भारत की स्वतंत्र आवाज को बनाए रखते हुए पक्के तौर पर सुरक्षा परिषद का हिस्सा बने या फिर अमेरिका का साथी बन कर यह मुमकिन बनाए जैसा उसने परमाणु सहयोग के मुद्दे पर किया है. अभी भारत में इस बारे में बहुत मंथन चल रहा है. यह तो बड़ा खेल है. कभी मध्य एशिया में बड़े खेल की बात कही जाती थी. अब तो भारत बड़ा खेल है. उसे चीन के खिलाफ खड़ा किया जाए, क्षेत्रीय शक्ति बनाया जाए या ग्लोबल स्टेटस के साथ ग्लोबल पावर बने. अभी इसमें पांच छह साल लगेंगे.

भारत शुरू से ही दुनिया का ध्यान पाकिस्तान में जमी आतंकवादी जड़ों की तरफ दिलाना चाहता हैतस्वीर: picture-alliance/dpa

भारत की विदेश नीति में आतंकवाद का मुद्दा भी बहुत अहम रहा है जो अब विश्व स्तर पर एक बड़ी समस्या बन गई है. तो क्या इस दौरान इसे भी आगे बढ़ाने का कुछ मौका होगा.

यहां पर पश्चिमी देशों का शुरू से एक दोहरा मापदंड रहा है जिससे भारत को परेशानी होती रही है. पहले जब भारत में कोई घटना होती, तो आतंकवाद शब्द ही नहीं इस्तेमाल होता था. उन्हें पाकिस्तानी उग्रवादी कह देते थे. इसके लिए संस्थागत संघर्ष से ज्यादा अकादमिक संघर्ष की जरूरत है. पश्चिमी देशों में अकादमिक संस्थान बहुत मजबूत हैं. अभी मैं भारत के नीति निर्धारक पुस्तकालयों में जाता हूं तो वहां 'इस्लाम को समझिए' जैसी किताबें दिखती हैं जो अमेरिकी लेखकों ने लिखी हैं. वह किताब पढ़ कर हम भारत के अंदर इस्लाम के कैसे समझेंगे. हम तो इस्लाम के साथ आठ नौ सौ साल से रह रहे हैं. अभी ये सारे मुद्दे उठेंगे. तो इस तरह विदेश नीति से ज्यादा बुद्धिजीवी स्तर की लड़ाई अहम होगी.

इंटरव्यूः अशोक कुमार

संपादनः महेश झा

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