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सू चीः संघर्ष की आंच पर तपता सच

२३ सितम्बर २०११

वह उस सिपाही की बेटी हैं जिसे लोग आधुनिक बर्मा के राष्ट्रपिता के नाम से जानते हैं. वह 15 साल नजरबन्द रहीं और गांधी के आदर्शों का पालन करती रहीं. नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली आंग सान सू ची ने अभी हार नहीं मानी है.

तस्वीर: AP

वे रंगून की तरफ बढ़ रहे थे. सेना की चेतावनियों के बावजूद वे बर्मा की राजधानी में विशाल रैलियां निकालना चाहते थे. उन्हें बस इतना पता था कि आज उन्हें विरोध करना है और अपना हक मांगना है. लेकिन रास्ते में ही उन्हें रोक लिया गया. सेना की एक टुकड़ी बन्दूक ताने उनके सामने खड़ी थी. वहां सन्नाटा छाया हुआ था. उन्हें यह समझाने की कोई जरूरत नहीं थी कि अगर वे आगे बढ़े तो मारे जाएंगे.

फिर अचानक भीड़ में से एक बच्चा निकला और अपनी कमीज फाड़ते हुए सिपाहियों के सामने जा खड़ा हुआ है. उसने कुछ कहा तो नहीं पर उसकी आंखें बोल रही थी, "चलाओ गोली!" बच्चे को देख सेना के अधिकारी ने सिपाहियों को बन्दूक नीचे करने के आदेश दिए और कहा, "क्या हम इतने गिर गए हैं कि बच्चों पर गोलियां चलाएंगे?"

सिपाही जानते थे कि 'वह' उनका नेतृत्व कर रही है. उन्हें आदेश मिले थे कि 'उसे' राजधानी तक न पहुंचने दिया जाए. और इस वक्त वह उनके बिलकुल सामने खड़ी थी, उस बच्चे के करीब. लेकिन उन्होंने उसे जाने दिया. मोर्चा रंगून पहुंचा, जहां पहली बार उस महिला ने लोगों को संबोधित किया. करीब पांच लाख लोग वहां मौजूद थे. वह दिन था 26 अगस्त 1988 और वह महिला थीं आंग सान सू ची. उस दिन बर्मा के लोगों ने उन्हें सुना, और उस दिन उन्हें सू ची के रूप में अपनी नेता मिल गईं.

अहिंसा की राह पर

गांधी के सिद्धांतों पर चलने वालीं सू ची अहिंसा की एक जीती जागती मिसाल हैं. गांधी की ही तरह वह उच्च शिक्षा पाने के लिए इंग्लैंड गईं; और गांधी की ही तरह राजनीति में आना उनका सपना नहीं था, हालात दोनों को राजनीति में ले आए. लोकतंत्र के लिए सू ची की लड़ाई शुरुआत से ही सत्य और अहिंसा पर आधारित रही. आज उन्हें यह लड़ाई लड़ते दो दशक के भी अधिक हो गए हैं. इस बीच उन्हें कई बार मिलिट्री जुंटा के हाथों मार खनी पड़ी है. लेकिन इससे उनका विश्वास डगमगाया नहीं, बल्कि गांधी के सिद्धान्तों में उनका विश्वास और गहरा हो गया है.

2009 में जब उन्हें एक बार फिर 18 महीने के लिए नजरबन्द कर देने के आदेश मिले, तब उन्होंने कहा, "आप अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए हर उस रास्ते का इस्तेमाल कर सकते हैं जो आपको दिखे. लेकिन इसका मतलब यह होगा कि अंत में जब आप वहां तक पहुंच जाएंगे तब आपको समझ आएगा कि जिस चीज के पीछे आप भाग रहे थे, वह वहां है ही नहीं, क्योंकि आपने खुद ही गलत रास्ता चुन कर उसे नष्ट कर दिया है."

तस्वीर: AP

निडर सू ची

66 वर्षीय सू ची महात्मा गांधी को अपनी प्रेरणा मानती हैं. गांधी की लिखी किताबें पढने के बाद उन्हें समझ आया कि सत्य और अहिंसा का रास्ता क्या है और डर से मुक्ति पाना कितना जरूरी है. गांधी के बाद: अहिंसा के सौ साल नाम की किताब में पैरी ओ ब्रायन ने बताया है कि किस तरह से सू ची एक अहिंसक विरोधी और गांधीवादी के रूप में उभर कर आईं. ब्रायन कहते हैं, "मेरे ख्याल से सू ची की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने डर को त्याग दिया है. यह बात उनकी राजनीति में भी झलकती है और निजी जीवन में भी. उनके फैसलों के लिए भी यह महत्वपूर्ण है. डर ऐसी चीज है जो हमारा जीवन बदलने की ताकत रखने वाले संघर्षों से हमें दूर रखता है."

पैरी ओ ब्रायन ने अपनी मां ऐन ओ ब्रायन के साथ मिल कर यह किताब लिखी है. ऐन ओ ब्रायन सू ची को एक नायिका के रूप में देखती हैं. सू ची का शांत स्वभाव उन्हें प्रभावित करता है इसीलिए वह उनकी तुलना गांधी से करती हैं, "आप इस बात से इंकार ही नहीं कर सकते कि दोनों कितने समान हैं. उनकी प्रतिबद्धता और उनका यह विश्वास तारीफ के लायक है. वह मानती हैं कि हमें डर को अपनी जिंदगी से निकाल बाहर करना चाहिए और इस बात को वह व्यवहार में भी लाती हैं."

जीत का महत्व नहीं

आंग सान सू ची का निडर, शांत चेहरा - एक कोमल मुस्कुराहट और बालों में फूल. अपने आत्मविश्वास के साथ सू ची आज भी वैसी ही दिखती हैं जैसी राजनीति शुरू करते वक्त दिखती थीं. हालांकि कुछ आलोचकों का मानना है कि इतने सालों की लड़ाई के बाद भी वह अपने देश में बदलाव लाने में विफल रही हैं. लेकिन भारत के गांधी पीस फाउंडेशन के रमेश शर्मा की मानें तो हार या जीत का कोई महत्व नहीं. शर्मा कहते हैं, "सफलता विफलता पर लोगों का बहुत जल्दी ध्यान जाता है. वह अपनी एक आवाज देश और दुनिया में बना पाई हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है. बाकी शक्तियां उन्हें दबा कर सफलता की तरफ नहीं बढ़ने देना चाहतीं. वे शक्तियां भी समाज में काम कर रही हैं, पर वे बहुत लम्बे समय तक नहीं चलतीं. सत्य और अहिंसा का रास्ता त्याग का रास्ता है, प्रेम का रास्ता है, लंबा रास्ता है."

लेकिन ऐन ओ ब्रायन के लिए तो सू ची पहले ही अपनी जंग जीत चुकी हैं, "उनका सिद्धांत यह है कि जब आप अहिंसा के मार्ग पर चलना शुरू करते हैं, तो जीत आप ही की होती है."

अपने देश के लोगों के नाम सू ची ने अपनी एक किताब में लिखा है, "हमारा संघर्ष ही सबसे अधिक महत्व रखता है. मैं अपने लोगों से कहना चाहती हूं कि जिस दिन हम देश में लोकतंत्र स्थापित करने में सफल हो जाएंगे, उस दिन हम पीछे मुड़ कर देखेंगे और हमें समझ आएगा कि हमारी लड़ाई कितनी पवित्र थी."

तस्वीर: picture-alliance/ dpa

कामयाबी की ओर

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में भी दुनिया इसी बात को याद करती है. अंग्रेजों ने जितने भी अत्याचार किए हों, जलियांवाला बाग में सैकड़ों मासूमों का खून बहा हो, हिन्दू और मुसलमानों में फूट डाली गई हो, लेकिन महात्मा गांधी ने हमेशा सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलाने की ही सीख दी. उनका संदेश था, "आंख के बदले आंख का कानून पूरी दुनिया को अंधा कर देगा."

बात महात्मा गांधी की हो, आंग सान सू ची की या नेल्सन मंडेला की, ये सब आम लोगों में से ही निकले, इन्हें इनकी वचनबद्धता ने औरों से अलग बनाया. पैरी ओ ब्रायन इस बारे में कहते हैं, "ये सब लोग आदर्श बन गए हैं, हैं तो ये साधारण लोग ही. इन्हें भी प्रकृति ने वैसा ही बनाया है जैसा हमें. इनमें भी कुछ कमजोरियां हैं. लेकिन इन सबने जीवन में कभी न कभी अहिंसा का रास्ता चुना और यही इन्हें खास बनाता है."

इतिहास दिखाता है कि अहिंसा का रास्ता हमेशा कामयाबी की ओर बढ़ता है. उम्मीद करते हैं कि सू ची को भी यह रास्ता कामयाबी तक पहुंचाएगा. इतने साल नजरबन्द रहने के बाद फिलहाल तो वह आजाद हैं, लेकिन वह खुद भी नहीं जानतीं कि भविष्य में क्या होगा. उन्हें बस इतना पता है कि वह लड़ती रहेंगी. वह कहती हैं, "मुझे कोई डर नहीं है. वे लोग पहले ऐसा कर चुके हैं, इसलिए इस बात की काफी संभावना है कि वे आगे भी ऐसा करेंगे. मैं बस इतना जानती हूं कि जब तक मैं आजाद हूं, तब तक मुझसे जितना हो सकेगा मैं करूंगी. और अगर वे मुझे दोबारा नजरबन्द कर देंगे तब भी मैं रुकूंगी नहीं."

रिपोर्ट: ईशा भाटिया

संपादन: वी कुमार

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