1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
फिल्मएशिया

फिल्मकारों की अभिव्यक्ति पर अंकुश

अजय ब्रह्मात्मज
९ अप्रैल २०२१

अब तक सेंसर के फैसले से असंतुष्ट फिल्मकार राहत पाने के लिए ट्रिब्यूनल में अपील करते रहे हैं. अब फिल्म ट्रिब्यूनल को खत्म करने के सरकार के फैसले के बाद फिल्मकारों के सामने सिर्फ कोर्ट का सहारा है.

Akshay Kumar im Film Kesari
तस्वीर: Everett Collection/imago images

ट्रिब्यूनल बंद हो गया. भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के सदस्य और जानकार ट्रिब्यूनल की भूमिका से अच्छी तरह परिचित हैं. ‘ट्रिब्यूनल' एफसीएटी (फिल्म सर्टिफिकेशन एपेलेट ट्रिब्यूनल) का संक्षिप्त प्रचलित शब्द है. अब था कहना सही होगा. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत 3 अप्रैल 2023 तक कार्यरत इस संस्था का प्रधान कार्यालय दिल्ली के सूचना भवन के नौवें माले के कमरा संख्या तीन 970 में था. इस संस्था की अंतिम सचिव इंद्राणी बोस रहीं. ‘ट्रिब्यूनल' की आधिकारिक वेबसाइट फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्रिब्यूनल पर अभी तक उन्हीं का नाम है. यह वेबसाइट ट्रिब्यूनल को समाप्त करने के बावजूद बंद नहीं किया गया है. यहां ट्रिब्यूनल के पुराने आर्डर अभी तक दिख रहे हैं जिनमें अंतिम आर्डर 22 मार्च 2021 को पोस्ट किया गया है – ‘द बीच बम' और ‘टॉपलेस' फिल्मों के बारे में. कुछ दिनों महीनों में यह वेबसाइट निश्चित रूप से बंद हो जाएगा. तब फिल्म बिरादरी के पुराने सदस्य या भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के शोधकर्ता ट्रिब्यूनल का हवाला दिया करेंगे और बताएंगे कि कैसे सीबीएफसी से असंतुष्ट फिल्मकारों को ट्रिब्यूनल से राहत मिलती थी.

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 1983 में सिनेमैटोग्राफ एक्ट 1952 की धारा 5D के तहत इस का गठन किया था. सीबीएफसी के निर्णय से असंतुष्ट फिल्मकार यहां से प्रमाण पत्र के लिए अपील कर सकते थे. ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष एक रिटायर्ड जज होते थे. उनके साथ चार सदस्य भी रहते थे. भारत सरकार की तरफ से एक सचिव नियुक्त किया जाता था. अब यह अतीत की बातें हो चुकी हैं.

तस्वीर: Everett Collection/imago images

सर्टिफिकेट लेना यानि सेंसर कराना

भारतीय फिल्मों के निर्माताओं को प्रदर्शन से पहले सीबीएफसी का प्रमाणपत्र लेना पड़ता है. फीचर फिल्मों के लिए यह प्रमाण पत्र यू/यूए/ए श्रेणियों के अंतर्गत फिल्म के कंटेंट को देख कर दिया जाता है. सामान्य प्रक्रिया के तहत फिल्मकार अपनी फिल्में पूरी करने के बाद सीबीएफसी में प्रमाणपत्र के लिए जमा करते हैं. फिल्म इंडस्ट्री की बोलचाल की भाषा में इसे सेंसर कराना कहते हैं और सीबीएफसी को सेंसर बोर्ड कहा जाता रहा है. जमा की गई फिल्म को चार सामान्य सदस्य एक प्रीव्यूइंग ऑफिसर की मौजूदगी में देखते हैं. उनके सामूहिक निर्णय के अनुसार फिल्म को प्रमाणपत्र दिए जाते हैं. ये सदस्य विभिन्न श्रेणियों के प्रमाणपत्र के लिए कुछ सुझाव (कट) भी देते हैं. अगर फिल्मकार उन सुझावों (कट) और प्रमाणपत्र से असंतुष्ट होता है तो वह सीबीएससी की स्थाई समिति के पास जा सकता है. स्थाई समिति में सीबीएफसी के वरिष्ठ और अनुभवी सदस्य होते हैं. वे फिर से फिल्म देखते हैं और अपने निर्णय से फिल्मकार को अवगत कराते हैं. फिल्मकार उनके भी निर्णय से असंतुष्ट हो तो वह एफसीएटी के पास राहत के लिए जा सकता है. कोर्ट में जाने से पहले एफसीएटी बीच का एक निदान विभाग हुआ करता था. अनेक फिल्मों को ट्रिब्यूनल ने निश्चित समय में प्रदर्शन का प्रमाणपत्र देकर फिल्मकारों को परेशानियों और नुकसान से बचाया है.

एफसीएटी की समाप्ति पर फिल्मकारों के बीच दो तरह की राय बनी हुई है. विशाल भारद्वाज ने फिल्म इंफॉर्मेशन नामक ट्रेड मैगजीन में प्रकाशित खबर को ‘फिल्म इंडस्ट्री के लिए उदास दिन' लिखकर टैग करते हुए ट्वीट किया था. हंसल मेहता ने लिखा कि हमें इसका अंदेशा नहीं हो पाया. अनेक फिल्मकारों ने सरकार के इस फैसले पर असंतुष्टि और आपत्ति जाहिर की है. इन फिल्मकारों की राय में सरकार के इस फैसले से फिल्मकारों की राहत की उम्मीद ही खत्म हो गई है. अब उन्हें किसी भी विवाद की स्थिति में सीधे हाई कोर्ट जाना पड़ेगा,जो एक महंगा और लंबा मामला होगा.

सूचना मंत्रालय का नियंत्रणतस्वीर: IANS

ट्रिब्यूनल से फिल्मकारों को मिलती रही राहत

अतीत में अनेक फिल्मकारों को ट्रिब्यूनल से ही अपने पक्ष में संतोषजनक फैसले मिलते रहे हैं. यहां तक कि शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन' को जब सीबीएफसी ने प्रमाणपत्र देने से मना कर दिया था तो वह ट्रिब्यूनल के पास ही गए थे. तब ट्रिब्यूनल के सदस्यों ने अपने निर्णय में स्पष्ट शब्दों में राय दी थी कि सीबीएसई के सदस्यों को ‘नंगापन, नग्नता और अश्लीलता' के संबंध में कोई भी राय देने से पहले खजुराहो की मूर्तियों को देख लेना चाहिए. कुछ साल पहले की विवादित फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' को ट्रिब्यूनल से ही प्रदर्शन की हरी झंडी मिली थी. इस फिल्म को पहलाज निहलानी के अध्यक्ष काल की सीबीएफसी ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी थी. विडंबना देखिए कि कुछ सालों के बाद पहलाज निहलानी को भी अपनी फिल्म ‘रंगीला राजा' के प्रदर्शन के लिए ट्रिब्यूनल में अपील करनी पड़ी और निर्णय उनके पक्ष में आया.

उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ सालों में वर्तमान सरकार ने फिल्म से संबंधित सभी संस्थाओं की कार्यप्रणाली को बदलने की संगठित कोशिश की है. सभी संस्थाओं में अपने समर्थकों की राजनीतिक नियुक्ति के साथ सरकार ने उन्हें स्ट्रीमलाइन करने की प्रक्रिया जारी रखी है. अभी कुछ महीने पहले फिल्मों से संबंधित चार संस्थाओं का एनएफडीसी में विलय कर दिया गया. जाहिर सी बात है कि इस विलयन से उनकी कार्य सीमा और प्रक्रिया में भारी बदलाव आया. पिछले महीनों में भाजपा के समर्थकों द्वारा ‘तांडव' के खिलाफ संगठित अभियान और विवाद के अगले चरण के रूप में भारत सरकार ने ओटीटी प्लेटफॉर्म के संचालन और शो प्रसारण के दिशानिर्देश जारी किए हैं. कोशिश है कि हर प्रकार से अंकुश लगाकर अभिव्यक्ति के कलात्मक माध्यमों में चल रहे सत्ता के विरोध, असंतोष और सुझाव के नैरेटिव को रोक दिया जाए. एफसीएटी को समाप्त करने का फैसला इसी बड़ी मुहिम का एक हिस्सा माना जा रहा है.

फिल्म उद्योग को नियंत्रण में लाने की कोशिश

पिछले कुछ सालों में सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा अनुशंसित और संसद द्वारा पारित प्रस्तावों पर न तो कोई बहस होती है और ना विपक्षी पार्टियों की कोई सलाह ली जाती है. एफसीएटी की समाप्ति के समय भी बगैर किसी बहस के सरकारी अध्यादेश जारी कर दिया गया. देश की विभिन्न संस्थाओं को नियोजित और नियंत्रित करने के बाद सरकार के दक्षिणपंथी नुमाइंदों को लगता रहा है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री उनके दबाव और नियंत्रण में नहीं आ पा रही है. दरअसल, भारतीय फिल्म इंडस्ट्री अभी तक सरकार पर निर्भर नहीं है. फिल्म इंडस्ट्री ने अपनी अर्थव्यवस्था विकसित कर ली है. वह सीधे बाजार से संचालित होती है.

फिल्म उद्योग का चेहरा बदलने की कोशिशतस्वीर: Getty Images/AFP/STR

साथ ही फिल्म इंडस्ट्री का सेकुलर चेहरा वर्तमान सरकार को नागवार गुजरता है. यही कारण है कि वर्तमान सरकार में प्रधान मंत्री समेत तमाम मंत्री और कार्यकर्ता फिल्म इंडस्ट्री के प्रभावशाली व्यक्तियों को अपने करीब लाने की कोशिश में जुटे रहते हैं. वे फिल्मों का नैरेटिव बदलना चाहते हैं. उसे अपने पक्ष में करना चाहते हैं. सेल्फी और ग्रुप तस्वीरों और प्रधान मंत्री के निमंत्रण पर उनसे मिलने के बावजूद दक्षिणपंथी वैचारिकी फिल्मों में नहीं आ पा रही है. इधर आई चंद फिल्मों में जरूर ‘राष्ट्रवाद का नवाचार' दिख रहा है. अजय, अक्षय कुमार और कंगना रनोट सरीखे चंद कलाकार सरकार के हर फैसले और अभियान के पक्ष में दिखाई पड़ रहे हैं, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री का बड़ा हिस्सा अभी तक अपनी धुन में कला और व्यवसाय की दो पटरियों पर संतुलन बना कर आगे बढ़ रहा है.

अब बचेगा सिर्फ अदालतों का सहारा

एएफसीएटी की भूमिका से अनेक फिल्मकार असंतुष्ट और उदासीन भी रहे हैं. ‘इन दिनों मुजफ्फरनगर' के मामले में एफसीएटी ने सीबीएससी के निर्णयों को वाजिब ठहराया था. ‘मोहल्ला अस्सी' के मामले में तो ट्रिब्यूनल ने फिल्म के पक्ष में मौखिक सहमति देने के बाद केन्द्रीय मंत्री के दवाब में आर्डर बदल दिया था. उस फिल्म के निर्माताओं को फिर सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा था. इसकी कार्यप्रणाली से असंतुष्टों के मुताबिक चूंकि मंत्रालय के द्वारा ही अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति होती है, इसलिए उनके स्वतंत्र और वस्तुनिष्ठ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. वर्तमान परिदृश्य में सभी संस्थाओं के जिम्मेदार अधिकारी और सदस्य सरकार की संतुष्टि के हिसाब से निर्णय लेने का कार्य करते हैं.

माना जा रहा है कि कोई भी सरकार को नाखुश नहीं रखना चाहता. एफसीएटी के संदर्भ में सीबीएससी के सुधार के लिए गठित समितियों ने हमेशा से इसे और मजबूत करने की सलाह दी थी. श्याम बेनेगल के नेतृत्व में गठित बेनेगल समिति ने तो इसे इस कदर मजबूत करने की सलाह दी थी कि फिल्म संबंधी सभी विवादों का निराकरण यहीं हो जाए. फिल्मकारों को कोर्ट का चक्कर लगाना ना पड़े. अभी यह परिदृश्य है कि एफसीएटी ही समाप्त हो गया और अब फिल्मकारों को सीबीएफसी से असंतुष्ट होने पर कोर्ट के ही चक्कर लगाने होंगे.

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें