सेना और पुलिस से ज्यादा सरकार को सीआरपीएफ पर भरोसा
२८ अगस्त २०१९कश्मीर में चाहे भीड़ हो या उग्रवादियों का सामना करना हो, भारत सरकार सेना और पुलिस के लाखों जवानों की तुलना में केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान ही ज्यादातर सामने आते हैं. सरकार भी ज्यादातर इन्हीं पर भरोसा करती है. अब यह चाहे पथराव करते छात्र हों या फिर स्वचालित हथियारों से फायरिंग करते उग्रवादी. भारत के केंद्रीय सुरक्षाबलों की टुकड़ियां भारत के गृह मंत्रालय के अधीन काम करती हैं. केंद्रीय सुरक्षा बलों में सीआईएसएफ, सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी और एसएसबी आते हैं. पहले इन्हें भारत के अर्द्धसैनिक बलों में गिना जाता था लेकिन 2011 में इन्हें केंद्रीय सशस्त्र सुरक्षा बल के तहत अलग कर दिया गया.
मानवाधिकार के लिए काम करने वाले लोग अकसर सुरक्षा बलों पर ज्यादा ताकत का इस्तेमाल करने के आरोप लगाते हैं. सुरक्षा बलों के जवान अकसर दंगा रोधी पैलेट गन, चिली ग्रेनेड का इस्तेमाल करते हैं. पैलेट गन की एक कार्टिज में सैकड़ों पैलेट या छर्रे होते हैं और हाल के वर्षों में कश्मीर में इसकी वजह से सैकड़ों लोग घायल हुए हैं. बहुत से लोगों की तो आंख ही चली गई है. हालांकि सरकार इन बंदूकों का यह कह कर बचाव करती है कि इनसे जान नहीं जाती.
14 फरवरी को जब आतंकवादियों ने पुलवामा में हमला किया तो उनके निशाने पर यही सुरक्षा बल थे. इस हमले में 40 लोगों की जान गई. इस हमले के बाद भारत और पाकिस्तान युद्ध की कगार पर आ गए. आलोचकों का कहना है कि केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ पर अकसर बहुत दबाव रहता है और ऐसा इसलिए है क्योंकि इन्हें ट्रेनिंग, वेतन और दूसरी सुविधाएं सेना की तरह नहीं मिलतीं और इस वजह से इनका नैतिक बल भी कमजोर होता है. कुछ पूर्व अधिकारियों का कहना है कि इनके जीवन की परिस्थितियां और स्तर भी सेना के मुकाबले कमतर होता है.
फरवरी में हुए हमले के बाद रिटायर हो चुके सीआरपीएफ के कई लोगों ने नई दिल्ली में अच्छे वेतन और बेहतर सुविधाओं की मांग में प्रदर्शन किया. एक संसदीय कमेटी ने अर्धसैनिक बलों के काम की स्थिति की पड़ताल की थी और दिसंबर में रिपोर्ट दिया कि प्रशासन इन बलों पर "जरूरत से ज्यादा निर्भर" है. कमेटी का कहना था कि सीआरपीएफ कंपनियों की लगातार तैनाती की वजह से जिन कंपनियों को ट्रेनिंग में होना चाहिए उनकी परिचालन दक्षता पर असर पड़ता है, साथ ही उन्हें ट्रेनिंग और आराम का मौका नहीं मिलता."
सीआरपीएफ की शुरुआत 1939 में ब्रिटिश राज में गठित हुए क्राउन रिप्रेजेंटेटिव पुलिस से मानी जाती है. भारत की आजादी के दो साल बाद यानी 1949 में एक एक्ट पारित कर इसे सीआरपीएफ नाम दे दिया गया और फिर धीरे धीरे इसका विस्तार होने लगा. इसे भारत के सीमावर्ती इलाकों में चल रहे अलगाववादी आंदोलनों से निपटने की जिम्मेदारी दी गई. ताजा आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर 2017 में इसकी तादाद 319,501 थी और सरकार इसमें और इजाफा करने की योजना बना रही है. पारंपरिक रूप से इस बल को पुलिस की मदद के लिए तैनात किया जाता है.
हालांकि हाल के वर्षों में सीआरपीएफ की भूमिका पलट गई है. पीएम नायर ने इस बल में काम करते हुए आठ साल बिताए जिसमें दो साल जम्मू कश्मीर में थे. वो बताते हैं कि सीआरपीएफ अकसर सहायक होने की बजाय कार्रवाई का नेतृत्व करती है. नायर कहते हैं, "इस बल का लचीलापन और प्रतिरोध बहुत ऊंचा है."
श्रीनगर में पुलिस और सीआरपीएफ के अधिकारियों से बात करने पर यह साफ हो जाता है कि बैरिकेडों पर रोजमर्रा के काम या फिर आसपास के इलाकों में छापा मारना, यहां सीआरपीएफ ही मुख्य भूमिका निभा रही है. इसकी वजह से जम्मू कश्मीर पुलिस में नाराजगी भी पैदा हो सकती है. कुछ पुलिस अधिकारियों का कहना है कि सीआरपीएफ के अधिकारी उनका तिरस्कार करते हैं.
एनआर/एमजे(रॉयटर्स)
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