भारतीय सेना के इतिहास में पहली बार महिला अधिकारियों का स्थायी सेवा के लिए चयन हुआ है. यह फरवरी में आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश की वजह से संभव हो पाया है.
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सेना ने बताया है कि स्थायी सेवा यानी परमानेंट कमिशन (पीसी) के लिए जिन 615 महिला प्रत्याशियों का मूल्यांकन किया गया था उनमें से 300 को चुन लिया गया है. मीडिया में आई खबरों में दावा किया गया है कि जिनका चयन नहीं हो पाया उनमें चयन के मानदंडों पर खरी ना उतरने वाली और मेडिकल जांच में उत्तीर्ण ना होने वाली प्रत्याशियों के अलावा वो महिला अधिकारी भी शामिल हैं जिन्होंने स्थायी सेवा नहीं चुनी.
ऐसी महिला अधिकारी 20 सालों की सेवा के बाद सेवानिवृत्त हो जाएंगी और उन्हें पेंशन भी मिलेगी. पीसी मिलने वाली महिला अधिकारी सेना में अपने पूरे कार्यकाल तक सेवाएं दे सकेंगी और वो समय समय पर पदोन्नति की पात्र भी बन जाएंगी. 13 लाख सिपाहियों और अधिकारियों वाली भारतीय सेना में 43,000 अधिकारी हैं जिनमें महिला अधिकारियों की संख्या लगभग 1,600 है.
इन्हें अभी तक शॉर्ट सर्विस कमिशन के जरिए भर्ती किया जाता था, लेकिन फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने सेना में लिंग के आधार पर भेदभाव को खत्म करने का आदेश दिया था. उसके बाद सेना ने अपनी 10 शाखाओं में महिला अधिकारों को पीसी देने के लिए चयन प्रक्रिया शुरू कर दी थी.
सेना की कानूनी और शिक्षा संबंधी शाखाओं में महिला अधिकारियों को इसके पहले से पीसी दिया जा रहा था, लेकिन अब ये बाकी आठ शाखाओं में भी हो पाएगा. इसके लिए एक विशेष चयन बोर्ड का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष एक लेफ्टिनेंट जनरल थे. बोर्ड में ब्रिगेडियर रैंक की एक महिला अधिकारी भी थी.
महिला अधिकारियों को आब्जर्वर की तरह बोर्ड की कार्यवाही देखने का भी अवसर दिया गया था, जिससे प्रक्रिया में पारदर्शिता बनी रहे. हालांकि महिला अधिकारियों को अभी भी लड़ाई की किसी भी भूमिका में शामिल होने की अनुमति नहीं है. नौसेना में भी महिलाएं लड़ाकू जहाजों और सबमरीनों में सेवा नहीं कर सकती हैं. सिर्फ वायु सेना में महिलाएं लड़ाकू भूमिका में सक्रिय हैं.
सरकार विरोधी प्रदर्शनों की लहर भारत समेत ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चली हुई है. इनमें से कइयों का मोर्चा देश की महिलाओं ने संभाला है, जो बड़े जोखिम उठा कर व्यवस्था को चुनौती दे रही हैं.
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भेदभावपूर्ण कानून के खिलाफ
भारत के आम नागरिकों के समूहों ने देश में लागू हुए नए नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ कई हफ्तों से प्रदर्शन किया. प्रदर्शनकारी सत्ताधारी बीजेपी पर मुसलमानों के प्रति इस तथाकथित भेदभावपूर्ण कानून को वापस लेने का दबाव बना रहे थे.
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फासीवाद के खिलाफ संघर्ष
भारत के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली छात्राओं ने देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ठेस पहुंचाने की कोशिशों का विरोध किया. विवादास्पद कानून के अलावा युवा स्टूडेंट ने फासीवादी सोच, स्त्री जाति से द्वेष, धार्मिक कट्टरवाद और पुलिस की बर्बरता के खिलाफ भी आवाज उठाई.
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जब निकाल फेंका हिजाब
ईरान में महिला आंदोलनकारियों ने देश की ताकतवर शिया सत्ता को चुनौती देते हुए अपना हिजाब निकाल फेंका था. पिछले कुछ सालों से ईरानी महिलाएं तमाम अहम मुद्दों को लेकर पितृसत्तात्मक रवैये और महिलाओं की आजादी पर पाबंदी लगाने वाली चीजों का विरोध करती आई हैं.
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दमनकारी सत्ता के खिलाफ
ईरानी महिलाओं ने 1979 की इस्लामी क्रांति के समय से ही सख्त पितृसत्तावादी दबाव झेले हैं. बराबरी के अधिकारों और बोलने की आजादी जैसी मांगों पर सत्ताधारियों ने हमेशा ही महिलाओं को डरा धमका कर पीछे रखा है.फिर भी महिलाएं हिम्मत के साथ तमाम राजनैतिक एवं नागरिक प्रदर्शनों में हिस्सा ले रही हैं.
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पाकिस्तानी महिलाएं बोल उठीं बस बहुत हुआ
भारत के पड़ोसी पाकिस्तान में भी बराबर का हक मांगने वाली महिलाओं के प्रति बुरा रवैया रहता है. इन्हें कभी "पश्चिम की एजेंट" तो कभी "एनजीओ माफिया" जैसे विशेषणों के साथ जोड़ा जाता है. महिला अधिकारों की बात करने वाली फेमिनिस्ट महिलाओं को अकसर समाज से अवहेलना झेलनी पड़ती है. फिर भी रैली, प्रदर्शन कर समाज में बदलाव लाने की महिलाओं की कोशिशें जारी हैं.
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लोकतंत्र को लेकर बड़े सामाजिक आंदोलन
पाकिस्तान में हुए अब तक के ज्यादातर महिला अधिकार आंदोलन कुछ ही मुद्दों पर केंद्रित रहे हैं, जैसे लैंगिक हिंसा, बाल विवाह और इज्जत के नाम पर हत्या. लेकिन अब महिलाएं लोकतंत्र-समर्थक प्रदर्शनों में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगी हैं. पिछले साल पाकिस्तान की यूनिवर्सिटी छात्राओं ने राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन का नेतृत्व किया जिसकी मांग छात्र संघों की बहाली थी. दबाव का असर दिखा और संसद में इस पर बहस कराई गई.
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इंसाफ के लिए लड़तीं अफगानी महिलाएं
अमेरिका और तालिबान का समझौता हो गया तो अफगानिस्तान में एक ओर युद्धकाल का औपचारिक रूप से खात्मा हो जाएगा. लेकिन साथ ही बीते 20 सालों में अफगानी महिलाओं को जो कुछ भी अधिकार और आजादी हासिल हुई है वो खतरे में पड़ सकती है. 2015 में कुरान की प्रति जलाने के आरोप में भीड़ द्वारा पीट पीट कर मार डाली गई फरखुंदा मलिकजादा के लिए इंसाफ की मांग लेकर भी महिला अधिकार कार्यकर्ता सड़क पर उतरीं. (शामिल शम्स/आरपी)