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सेना के शौर्य को क्या 'हाईजैक' कर रही है सरकार

समीरात्मज मिश्र
१ मार्च २०१९

पाकिस्तान सरकार की भारतीय पायलट की रिहाई की घोषणा से दोनों देशों के बीच बनी युद्ध जैसी स्थिति पर फिलहाल लगाम लगती दिख रही है. लेकिन इस मुद्दे को लेकर भारत के भीतर बनीं राजनीतिक स्थितियां कई नई चर्चाओं को जन्म दे रही हैं.

Indien Menschen feiern die Auslieferung des von Pakistan festgenommenen Pilots
तस्वीर: AFP/A. Sankar

14 फरवरी को पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुआ हमला. इसके बारह दिन भारतीय वायु सेना की पाकिस्तान के आतंकी अड्डों पर हुई एअर स्ट्राइक और फिर पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई से दोनों देशों के बीच माहौल काफी खराब हो गया. दोनों देशों के बीच युद्ध जैसे हालात बन गए, बॉर्डर से ज्यादा सोशल मीडिया पर जंग लड़ी जाने लगी और हर कदम पर राजनीति और राजनीतिक दलों को घसीटने की होड़ लग गई.

दो देशों के बीच तनातनी से राजनीतिक नफा-नुकसान किस तरह से होता है और किस तरह से लेने की कोशिश होती है, इन घटनाओं के बाद ये चीजें भी खुलकर सामने आईं. विपक्षी दल जहां सर्वदलीय बैठक करके सरकार को इस पर राजनीति न करने की नसीहत दे रहे हैं, वहीं सरकार इसे अपनी उपलब्धि और ‘असाधारण' बताने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है.

14 फरवरी को ही पुलवामा में जब सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकी हमला हुआ, तो देश भर में जहां रोष, गुस्सा और उन्माद था वहीं राजनीतिक दलों की ओर से भी इस पर सधी हुई प्रतिक्रियाएं आ रही थीं. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी उसी दिन लखनऊ में अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस करने वाली थीं लेकिन मारे गए जवानों की याद में दो मिनट का मौन रखकर उन्होंने ये कहते हुए प्रेस कांफ्रेंस रद्द कर दी कि ‘यह समय राजनीति पर बात करने का नहीं है.'

वहीं दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और बीजेपी के दूसरे नेताओं ने सरकारी कार्यक्रमों के अलावा जब राजनीतिक रैलियों और सभाओं तक को जारी रखा तो इस मामले में उनके तमाम समर्थक तक विरोध में खड़े दिखने लगे. इन सबके बावजूद ये कार्यक्रम जारी रहे और इनमें प्रधानमंत्री लगातार ये कहते रहे कि ‘जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा.'

पाकिस्तान से लगी वाघा सीमा पर भारतीय पायलट का स्वागत करने पहुंचे भारतीय लोग.तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/C. Anand

वहीं 26 फरवरी को जब पाकिस्तान में आतंकी कैंपों पर वायु सेना ने एयर स्ट्राइक की, तो उसी दिन प्रधानमंत्री की राजस्थान के चुरू में एक रैली थी. वहां प्रधानमंत्री के भाषण, उनके द्वारा पढ़ी गई कविता और उनके हाव-भाव ने विपक्षी दलों में ये आशंका जगाने में भरपूर मदद की कि प्रधानमंत्री इसका श्रेय खुद ले रहे हैं.

हालांकि उसके अगले ही दिन पाकिस्तान ने भी जवाबी कार्रवाई की और पायलट अभिनंदन को अपने कब्जे में ले लिया. इस दौरान 21 विपक्षी पार्टियों ने एक स्वर से इस मामले में सेना और सरकार के साथ खड़े होने की बात करते हुए इसका राजनीतिकरण न करने की अपील की.

इस अपील और इन घटनाक्रम के बीच सबसे ज्यादा सवाल उस वीडियो कांफ्रेंसिंग पर उठे, जिसमें 15 हजार चुनावी बूथों के कार्यकर्ताओं के साथ प्रधानमंत्री के संवाद का एक व्यापक कार्यक्रम रखा गया. सोशल मीडिया पर इससे जुड़ा हैशटैग ‘मेरा बूथ, सबसे मजबूत' दिन भर ट्रेंड करता रहा. यह कार्यक्रम उस वक्त हो रहा था जब पाकिस्तान द्वारा अपहृत पायलट अभिनंदन उसके कब्जे में थे और तब तक उनकी रिहाई की घोषणा नहीं हुई थी.

इस कार्यक्रम के खिलाफ लोगों ने अपना गुस्सा भी उतारा, राजनीतिक तौर पर इसकी आलोचना भी हुई, लोगों ने मजाक भी उड़ाया लेकिन समर्थकों की कोई कमी रही हो, ऐसा भी नहीं था. दिलचस्प बात ये है कि इस ‘राष्ट्रीय संकट' की घड़ी में खुद को राष्ट्रभक्त कहने वाले ऐसे लोग उन्हीं लोगों पर बरस रहे थे और उन्हें राष्ट्रविरोधी और पाकिस्तानपरस्त बनाने पर तुले थे जो बीजेपी के इस राजनीतिक कार्यक्रम की आलोचना कर रहे थे.

यही नहीं, इसी दौरान बीजेपी के वरिष्ठतम नेताओं में से एक और कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके बीएस येदियुरप्पा का वो बयान भी खासी सुर्खियां बटोर गया, जिसमें उन्होंने ये कह दिया कि ‘एयर स्ट्राइक का बीजेपी को जबर्दस्त फायदा होगा और हम 28 में से 22 सीटें जीत लेंगे.'

दरअसल, युद्ध में हार-जीत के अलावा उपलब्धियां और नाकामी के लिए भी सीधे तौर पर सेना को ही श्रेय जाता है लेकिन कोई भी सरकार इसका श्रेय और राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश न करे, वो भी ऐन चुनाव के वक्त, ऐसा शायद ही होता हो. लेकिन यहां सवाल इस बात पर उठ रहे हैं कि सेना की काबिलियत, शौर्य और उसकी उपलब्धियों को सरकार क्यों ‘हाईजैक' करने की कोशिश कर रही है.

 

इसके लिए एक ओर रैलियों और जनसभाओं में पार्टी नेताओं और खुद प्रधानमंत्री की ओर से इसके साफ संकेत दिए जा रहे हैं तो दूसरी ओर सोशल मीडिया पर लंबा-चौड़ा वॉर रूम सजा दिया गया है. इस संदर्भ में कुछ टीवी चैनलों की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं.

जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है तो कांग्रेस समेत अन्य पार्टियां भी इस मामले में संयत होकर बयान दे रही हैं. लेकिन सोशल मीडिया पर जब सरकार की तारीफ करते हुए पुरानी सरकारों से उसकी तुलना और उन्हें न सिर्फ नकारा बल्कि देशविरोधी साबित करने की कोशिश हो रही है, तो ऐसे में विपक्षी दलों का भी धैर्य टूटता दिख रहा है. ममता बनर्जी का ये बयान कि ‘सरकार एअर स्ट्राइक और उसमें मारे गए आतंकवादी के सबूत पेश करे' उसी कड़ी में देखा जा रहा है.

अब ये सिलसिला चल पड़ा है और रुकने का नाम नहीं ले रहा है. चुनाव तक राजनीतिक दल चाह कर भी इस पर लगाम नहीं लगा पाएंगे क्योंकि सोशल मीडिया इस मामले में लगभग बेलगाम हो चला है. युद्ध और उसके बाद की परिस्थितियां चुनावी नतीजों को प्रभावित कर पाती हैं या नहीं, ये कहना मुश्किल है.

चुनाव में अभी थोड़ा समय भी है और ऐसे कई मुद्दे हैं जिनका अभी निकलना बाकी है. लेकिन इस मुद्दे के राजनीतिकरण और उसके फलस्वरूप पैदा हुए राजनीतिक डिस्कोर्स और राजनीति की भाषा एक ऐसा प्रतिमान जरूर गढ़ रही है, जिसे स्वस्थ राजनीतिक संस्कृति के तौर पर तो नहीं ही देखा जा सकता.

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