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सैफई और राजनीति की नैतिकता

१४ जनवरी २०१४

उत्तर प्रदेश के सैफई गांव में हर साल सांस्कृतिक जलसा होता है. इस बार भी जगरमगर और धूम रही, सलमान खान और माधुरी दीक्षित ने डांस किया. मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों की तकलीफ की ओर पीठ कर सैफई का उल्लास क्या उचित था?

तस्वीर: UNI

सैफई मुलायम सिंह का पैतृक गांव है. यादव बंधु भ्राता तात सखा ग्रामवासी सब सैफई महोत्सव में इकट्ठा होते हैं. रंग रोशनी नेता अभिनेता डांस एक्टिंग आनाजाना शोरशराबा नौटंकी धूल धमाका, सब होता है. गांव जैसे जश्न में घुल जाता है. लेकिन अब सैफई पर सीएम को सफाई देनी पड़ रही है. वो मीडिया पर भड़के हुए हैं. कुछ मुद्दों पर जायज भी भड़के. मीडिया ने अपना जो हाल बनाया है उसमें सत्ता राजनीति उसे अब जरा बढ़चढ़ कर ही आंख दिखाने लगी है.

अखिलेश ने सैफई निंदा को गरीबों और समाजवाद की निंदा से जोड़ा. आशय ये था कि ये अंग्रेजीदां लोग देहातियों के मनोरंजन पर नाक भौं सिकोड़ते हैं. ये सिर्फ मनोरंजन तो नहीं था, मेला था, संस्कृति का प्रसार था. रोजगार का साधन था, युवाओं में जोश था, आदि आदि. सही है. सैफई महोत्सव सही है, राग रंग बनता है. जनता को भी मनोरंजन चाहिए. और सोचिए उनके लिए सपने से कम नहीं, सलमान और माधुरी जैसे सितारों का ठीक उनके सामने मंच पर नाचना गाना.

लेकिन...

“लेकिन” का एक बड़ा सा पेड़ लहराता हुआ सैफई के समाजवाद के आड़े आ जाता है. ये मुजफ्फरनगर के सौहार्द का कटा हुआ पेड़ है. सैफई में जब मनोरंजन फूटता था तो कुछ सौ किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर में दम घुटता था. वहां लोग सितारों के नाच में लहराते थे, इधर बर्छियों की तरह चुभती ठंड में शरीर और तंबुओं से लिपटी चिंदियां फड़फड़ाती थीं.

ये एक ही सूबे के दो अलग अलग दृश्य थे. एक ही समाज की दो हलचलें, एक ही देश के दो यथार्थ. आपको देश में हर जगह एक सैफई मिलेगा, एक मुजफ्फरनगर. मुजफ्फरनगर यानी शर्म और यातना. और सैफई यानी उस वेदना के पड़ोस में एक निर्विकार मौज. सैफई 2014 में सामाजिक मूल्यहीनता का एक रिफ्लेक्शन है. लेकिन अकेला यही नहीं. त्रासदियों पर आंखें फेरने और जीवन के समारोहीकरण की ये कोई अकेली या पहली मिसाल नहीं. आखिरी क्यों कर होगी. ये देश उदास होना भूल गया है.

मुजफ्फरनगर कैंप में ठंड से जूझते परिवारतस्वीर: SAJJAD HUSSAIN/AFP/Getty Images

राजनीति को बॉलीवुड की मसाला फिल्म की तरह पेश करने का दौर चला है. सूबे की सरकार के प्रमुख और कई और नुमांइदे सैफई में डूबे लेकिन एक राज्य की समस्त जनता की फिक्र करने वाली सरकार के लिए क्या ये अनिवार्य डूब थी. तड़पते और कांपते मुजफ्फरनगर के पास धूम और मस्ती का अलाव क्यों जलाया. इस गर्मी को अपने पर खर्च क्यों किया.

अच्छा, थोड़ी देर के लिए मान लें कि अखिलेश एक बहुत महत्वपूर्ण फैसला कर लेते, साहस दिखाते. अपने पिता को भी आगे बढ़कर कहते, देखिए इस बार सैफई नहीं करते. वहां कुछ और दूसरे ढंग का कर देते हैं. मुजफ्फरनगर की याद में, उस सघन संकट के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए कोई शिविर कर देते हैं. कुछ अलग कर देते हैं. ऐसा कि दुनिया देखती रह जाए और सबक ले सके. नाम होता. क्या अपनी जनता पर अपने कार्यकर्ता पर और अपने गांव देहात पर यादवों का इतना बस न था. क्या उन्हें कनविन्स न किया जा सकता था.

काश, ऐसा होता

क्या ऐसा हो सकता था. ये हमारी खुशफहमी ही होगी शायद. चमक की खुशफहमियां तो किसी और ही चीज के लिए उकसाती हैं. उनका मोह जबरदस्त है. धंसा तो धंसा रह गया. इस मोह से बाहर आने की ताब तो आप भी मानेंगे कि या तो बुद्ध में ही रही होगी, या गांधी में.

ऐसा क्यों है कि बुद्ध की इतनी सदियों बाद और गांधी के इतने बरसों बाद आज के भारत में, त्याग समर्पण अच्छाई और नैतिकता के बारे में हवाला देने के लिए हमें इन दो महान आत्माओं के पास ही जाना पड़ता है. और इसी हवाले से आज के नेताओं या सार्वजनिक जीवन की शख्सियतों से आप बहुत बड़ी तो नहीं, छोटी छोटी अपेक्षाएं रखते हैं. अखिलेश और उनके पिता से भी यही अपेक्षा थी. उनके उस दल से भी यही अपेक्षा थी जो विदेश के “स्टडी टूर” पर निकला.

अभिनेत्री आलिया भट्ट ने भी कार्यक्रम में हिस्सा लियातस्वीर: UNI

सैफई जलसे ने पॉलिटिक्ल टाइमिंग नहीं, बल्कि नैतिक टाइमिंग का उल्लंघन किया. ऐसी कई विकृतियां और विसंगतियां हमें समाज, संस्कृति और राजनीति में इधर दिखती हैं. हैरानी होती है कि ये देश किसी जुनून में या किसी उल्लास में या किसी उन्माद में जितना एक दिखाई देता है उतना प्रतिरोध, शोक और सहानुभूति में क्यों नहीं एकजुट दिखता.

दिल्ली के निर्भया आंदोलन की स्वतःस्फूर्तता में भी आप देखेंगे कि एक निर्णायक ग्लानि या उस भीषण निराशा से निर्मित हो सकने वाली एकजुटता कितना दूर गई, जो था कुछ दिनों का उफान था. हमने इसे राष्ट्रीय शर्म भाषणों और दलीलों में माना लेकिन उस रूप में शिद्दत से फॉलो नहीं किया. अगर ऐसा होता तो निर्भया कांड आखिरी होता.

ये कैसी सियासत

यूपी के मामले में सच्ची राजनीति तो यही कहती थी कि सैफई स्थगित करो. विदेश यात्रा स्थगित करो. मुजफ्फरनगर जाओ उसे समझो और संवारो. जैसे गुजरात के सीएम के मामले में राजनीति यही कहती है कि ब्लॉग लिखकर अपने दुख के घड़े का वजन और आकार न बताओ, जो 2002 में हुआ उसके लिए पहले माफी तो मांगो. सामने आओ. लगता है चाहे राजनीति हो या उससे जुड़ी समाज या संस्कृति, इन सत्ताओं का ये दौर गलतियां स्वीकारने या सुधारने का नहीं, उन्हें किसी न किसी रूप में जायज ठहराने का या उन पर खामोश रह जाने का दौर है. सत्ता राजनीति और उसके तमाम किरदार अपनी कौम की फिक्र से दूर रहते हैं. फिर वे नेता हों या अभिनेता या कलाकार या अफसर या खिलाड़ी.

सच्चे राजनैतिक और सामाजिक मूल्यों की शिनाख्त होती है विनम्रता, सहानुभूति, सद्भावना और साहस में. लेकिन हम पाते हैं, संस्कृति में अब आत्मा के निरीक्षण की कार्रवाई ही रद्द की जा चुकी है. मानो उसका वहां क्या काम.

ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी

संपादन: अनवर जे अशरफ

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