"हिमालयन वियाग्रा" के नाम से विख्यात एक बहुमूल्य कैटरपिलर फफूंद जो बड़ी आसानी से मिल जाती थी अब जलवायु परिवर्तन के कारण दुर्लभ होती जा रही है. नपुंसकता से लेकर कैंसर तक के इलाज के लिए इसे बेचा जाता है.
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इसकी कीमत सोने से तीन गुना ज्यादा है.चीन और नेपाल के लोग फफूंद के लिए होने वाली लड़ाइयों में जान भी गंवाते रहे हैं. वहां इसे "यारचागुंबा" कहा जाता है, हालांकि आधिकारिक रूप से इसका नाम ओफियोकॉर्डेसेप्स सिनेन्सिस है.
वैज्ञानिक रूप से इसके फायदों की पुष्टि अभी नहीं हुई है लेकिन लोग इसे पानी में उबाल कर चाय बनाते हैं या फिर सूप और स्ट्यू में मिलाते हैं. इस्तेमाल करने वालों का मानना है कि इससे नपुंसकता से लेकर कैंसर तक का इलाज हो सकता है. एक अमेरिकी जर्नल में छपी रिपोर्ट प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में कहा गया है, "यह दुनिया के सबसे कीमती जैविक उत्पादों में से एक है. यह इसे जमा करने वाले सैकड़ों हजारों लोगों के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया मुहैया कराती है."
रिसर्चरों के मुताबिक हाल के दशकों में इसकी लोकप्रियता बड़ी तेजी से बढ़ी है और इसके साथ ही इसकी कीमतें भी आसमान पर पहुंच गई हैं. फिलहाल इसकी कीमत सोने के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है.
बहुत से लोग यह भी संदेह जताते हैं कि कहीं बहुत ज्यादा उगाने के चक्कर में तो इसकी कमी नहीं हो गई है. रिसर्चरों ने इस बारे में जानकारी जुटाने के लिए बहुत से किसानों, संग्राहकों और व्यापारियों से इस बारे में बातचीत की. उन्होंने पुराने साइंस जर्नलों को भी खंगाला और नेपाल, भूटान, भारत और चीन के 800 से ज्यादा लोगों से बात की ताकि समझ सकें कि आखिर इसकी कमी की क्या वजह है.
मौसमी बदलाव, भौगोलिक कारक और पर्यावरण की परिस्थितियों का भी विश्लेषण किया गया. रिपोर्ट में कहा गया है, "चार देशों से पिछले दो दशकों के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि पूरे इलाके में इस फफूंद में कमी आई है."
सुंदर खतरनाक फफूंद
इन रंग बिरंगी सुंदर तस्वीरों को देखने से क्या पहली नजर में कोई बता सकता है कि ये फफूंद है... देखें कैसे बनती है और दिखाई देती है फफूंद.
तस्वीर: imago/McPHOTO
कैसे बढ़ती है
फफूंद छोटे छोटे रेशों से बढ़ती है जिन्हें सिर्फ माइक्रोस्कोप के नीचे देखा जा सकता है. इस जाल को मायसेलियम कहा जाता है. जहां भी पानी, ऑक्सीजन और चीनी जैसे तत्व एक साथ आते हैं वहां फफूंद पैदा हो सकती है.
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फूल जैसी
फफूंद का रंग उसे अपने बीजाणु से मिलता है. ये फर जैसे रेशों पर पैदा होते हैं. माइक्रोस्कोप के नीचे यह फूल की कली जैसी दिखाई देती है. इसका रंग कैसा होगा ये निर्भर करता है फफूंद के उगने पर.
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फैलाव
फफूंद फूलों जैसे बीजाणुओं से बढ़ती है. हल्की सी हवा भी इन्हें यहां से वहां पहुचा देती है. नए माहौल में फफूंद गोलाकार में बढ़ने लगती है. यह काफी घनी भी हो सकती है.
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अच्छी भी
खाने में फफूंद लगना वैसे तो बुरा माना जाता है लेकिन कुछ फफूंद अच्छी भी होती हैं. सैप्रोफाइट्स नाम की फफूंद जैविक पदार्थों का क्षरण करती है और यह दूसरे पेड़ों के लिए पोषक तत्व बन जाते हैं. कुछ मकड़ियां और कीड़े फफूंद खाते भी हैं.
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विशेष
कुछ खाद्य पदार्थ फफूंद की मदद से बनाए जाते हैं. इन्हें दवा उद्योग में इस्तेमाल किया जाता है. इनमें से एक है प्राकृतिक एंटीबायोटिक पेनिसिलीन. इसे पेनिसिलियम फंगस से बनाया जाता है. चीज और सॉसेज में फंगस होना अच्छा माना जाता है.
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पैरासाइट
अक्सर फंगस को पैरासाइट के तौर पर जाना जाता है जो इंसान, जानवरों या पौधों में इंफेक्शन पैदा करती है और उन्हें बीमार करती है. खाने पर जहरीली फफूंद पैदा हो सकती जो पेट में जाने पर परेशानी का सबब बन सकती है.
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स्वस्थ नहीं
वैसे तो फंगस बहुत कम मामलों में संक्रमण का कारण होती हैं. लेकिन लंबे समय इसके संपर्क में रहने पर एलर्जी हो सकती है जिसमें अस्थमा, न्यूरोडर्मेटाइटिस, माइग्रेन और सिरदर्द जैसी परेशानियां शामिल हैं.
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जहरीली गैसें
फंगस या फफूंद से मायोटॉक्सिन गैसें पैदा होती हैं. ये खतरनाक होती हैं और कैंसर का कारण भी होती हैं. 200 तरह की फफूंद ये गैस पैदा करती है. ये जहर इसके बीजाणुओं में लगा होता है, हवा और सांस से यह शरीर में जा सकता है.
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कचरे में?
क्या फल या सब्जी पर एक भूरे दाग के साथ ही इन्हें फेंक देना चाहिए या फिर इसका खराब हिस्सा हटा कर खाया जा सकता है. खाने पर फफूंद आने के साथ ही इसे फेंक देना चाहिए एक आध हिस्सा हटा देना ठीक नहीं.
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ध्यान रखें
हमेशा ध्यान रखें कि खाने में फफूंद बिलकुल नहीं हो. खाना हमेशा सूखी और ठंडी जगह पर रखें. बना हुआ खाना किचन में ज्यादा दिन नहीं रखें.
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शंकु के आकार वाली यह फफूंद केवल 11,500 फीट या उससे ऊपर के इलाकों में मिलती है.परजीवी फफूंद कैटरपिलर पर खुद को स्थापित करने के बाद इसे धीरे धीरे मार देती है और खुद फैल जाती है. विकसित होने के लिए इसे एक खास जलवायु की जरूरत होती है जो बेहद ठंडा होना चाहिए यानी तापमान शून्य डिग्री से नीचे. इसके साथ ही मिट्टी स्थायी रूप से जमी नहीं होनी चाहिए.
रिसर्चरों ने यह भी देखा कि तिब्बती पठारों में मौसम गर्म होने की स्थिति में इस फफूंद का फैलाव ऊपर के ठंडे इलाकों की तरफ नहीं हुआ. रिसर्चरों का कहना है कि इसका मतलब साफ है कि अगर हिमालयी क्षेत्र में मौसम गर्म होता रहा तो यह ऊपर के इलाकों की तरफ नहीं जाएगी. ऐसे में उन लोगों की रोजी रोटी पर बुरा असर पड़ेगा जो इसी फफूंद से होने वाली कमाई पर निर्भर हैं.