फेसबुक और ट्विटर ने डॉनल्ड ट्रंप के अकाउंट बंद कर दिए हैं. डॉयचे वेले की मुख्य संपादक मानुएला कास्पर क्लैरिज का कहना है कि सिर्फ इतना कर देने से ये कंपनियां अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकतीं.
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सोशल मीडिया के विशाल स्तंभ - अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप - को गिरा दिया गया है. ऐसा किसी छोटी मोटी ताकत ने नहीं बल्कि बड़े दिग्गजों ने किया है - ट्विटर, फेसबुक, गूगल, एप्पल और एमेजॉन ने. अपने सबसे लोकप्रिय यूजर को हटा कर उन्होंने साफ कर दिया है कि उनके प्लेटफॉर्म पर कौन अपने विचार व्यक्त करेगा और कैसे.
ट्विटर के 8.8 करोड़ फॉलोअर और फेसबुक उन्हें लाइक करने वाले 3.5 करोड़ लोगों को अब उनकी नस्लवादी और खतरनाक टिप्पणियां पढ़ने को नहीं मिलेंगी. सोशल मीडिया पर अमेरिकी राष्ट्रपति का मुंह हमेशा के लिए बंद कर दिया गया है.
डॉनल्ड ट्रंप अपने अकाउंट का इस्तेमाल अपने विरोधियों के खिलाफ हथियार के तौर पर कर रहे थे. "हेट स्पीच" और "फेक न्यूज" उनके ट्रेडमार्क थे. उनके ट्वीट का क्या असर हो सकता था यह वॉशिंगटन में संसद पर हमले से साफ हो गया.
खैर, लोग कह रहे हैं कि अब वहां शांति है और इसे देख मैंने भी राहत की सांस ली. लेकिन कुछ ही देर के लिए. क्योंकि अगर हमें अभिव्यक्ति की आजादी चाहिए तो हमें दूसरों को भी अभिव्यक्ति की आजादी देनी होगी. मैं यह जान कर थोड़ी बेचैन हो रही हूं कि मुट्ठी भर लोग मिल कर किसी के लिए दुनिया के सबसे प्रभावशाली प्लेटफॉर्मों के दरवाजे बंद कर सकते हैं.
हमें एक बात समझनी होगी - हम यहां हेट स्पीच या फेक न्यूज का साथ नहीं दे रहे हैं. इनकी पहचान करना, इन्हें सामने लाना और फिर डिलीट करना ही होगा. यह काम इन प्लेटफॉर्म को चलाने वालों का है. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने यह काम करना शुरू भी किया है लेकिन हिचकिचाहट के साथ.
मई की बात है जब ट्विटर ने पहली बार राष्ट्रपति ट्रंप के दो ट्वीट पर चेतावनी जारी कर दी थी. उसके बाद से ट्वीट पर वॉर्निंग देने का और उन्हें डिलीट करने का सिलसिला लगातार जारी रहा. हर कोई देख सकता था कि ट्रंप के कुछ बयान कितने बेबुनियाद और खतरनाक थे. यह एक अच्छा कदम था.
हालांकि अकाउंट को ही बंद कर देना - यह तो बहुत आसान था. प्लेटफॉर्म चलाने वाले अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं. डॉनल्ड ट्रंप के बिना भी इन प्लेटफॉर्म पर लाखों करोड़ों चीजें ऐसी हैं जिनसे हेट स्पीच, फेक न्यूज और प्रोपगैंडा फैलाया जा रहा है. इसे देखते हुए ट्विटर, फेसबुक और दूसरी कंपनियों को समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी होगी. उन्हें लगातार पोस्ट डिलीट करनी होंगी और जहां जरूरी हो, वहां उन पर फेक न्यूज का ठप्पा लगाना होगा.
दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र को ट्रंप समर्थकों ने हिला डाला !
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के समर्थकों ने बुधवार 6 जनवरी 2021 को एक मार्च के दौरान कैपिटल हिल पर धावा बोल दिया. सुरक्षाकर्मियों के साथ उनकी झड़प हुई और समर्थकों के पास से हथियार जब्त किए गए.
तस्वीर: Win McNamee/Getty Images
ट्रंप समर्थकों का बवाल
हाल के कई सालों में अमेरिका से इस तरह की तस्वीरें सामने नहीं आई हैं. सत्ता हस्तांतरण से पहले हिंसा और बवाल ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को हिला कर रख दिया. आरोप ट्रंप समर्थकों पर लगा कि उन्होंने कैपिटल हिल में घुसकर तोड़फोड़ की और उस पर कब्जे की कोशिश की.
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चार की मौत
पुलिस और सुरक्षाबलों के साथ झड़प में अब तक चार लोगों की मौत हुई और 52 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है. दरअसल कैपिटल बिल्डिंग में कांग्रेस के दोनों सदनों में चर्चा हो रही थी और नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन की जीत की पुष्टि की जानी थी. इसी दौरान वहां हजारों लोग परिसर में घुस आए और बवाल काटा.
तस्वीर: Win McNamee/Getty Images
हथियार, डंडे और झंडे से लैस
वॉशिंगटन डीसी के पुलिस प्रमुख रॉबर्ट कॉन्टे के मुताबिक अब तक 52 में से 47 लोगों को रात का कर्फ्यू के उल्लंघन के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. कई और लोगों को गैरकानूनी रूप से हथियार रखने या प्रतिबंधित हथियार के साथ चलने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. कुछ समर्थकों ने स्प्रे का इस्तेमाल सुरक्षाकर्मियों पर हमला करने के लिए किया.
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सुरक्षाकर्मियों के साथ झड़प
ट्रंप समर्थकों के बवाल के दौरान 14 पुलिस अफसर घायल हो गए और दो अफसर अभी भी अस्पताल में दाखिल हैं. वॉशिंगटन की मेयर म्यूरियल बॉउसर ने शहर में 15 दिन के इमरजेंसी का ऐलान कर दिया है. यह इमरजेंसी 21 जनवरी तक लागू रहेगी. बॉउसर ने कहा है कि पुलिस जनता से दंगा करने वालों की पहचान करने की मदद मांगने का इरादा कर रही है.
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संघर्ष
कैपिटल हिल परिसर में तैनात सुरक्षाकर्मियों को ट्रंप समर्थकों से निपटने में खासी मशक्कत करनी पड़ी. हिंसा की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुए. पुलिस से ट्रंप समर्थकों का भिड़ना और कुछ समर्थकों का संसद के भीतर दाखिल होने का वीडियो पूरी दुनिया ने देखा.
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मार्च के बहाने कैपिटल हिल पर हमला!
बुधवार 6 जनवरी को कैपिटल हिल बिल्डिंग में अमेरिकी कांग्रेस जो बाइडेन की जीत की पुष्टि के लिए बैठी तभी हजारों ट्रंप समर्थकों ने वॉशिंगटन में मार्च निकाला और कैपिटल हिल पर धावा बोल दिया. ट्रंप समर्थकों के मार्च को लेकर सुरक्षा बढ़ाई गई लेकिन देखते ही देखते वे बिल्डिंग की ओर बढ़ गए. उन्हें रोकने के लिए आंसू गैस के गोले भी दागे गए.
तस्वीर: Tasos Katopodis/Getty Images
हिंसा की निंदा
हंगामे और हिंसा की निंदा पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा समेत कई नेताओं ने की है. उनके अलावा नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ट्रंप से देश से माफी मांगने की सलाह दी है. उन्होंने ट्रंप को अपने समर्थकों को समझाने के लिए कहा है.
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हार नहीं मानेंगे ट्रंप!
राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने संसद का सत्र शुरू होने से ठीक पहले कहा था कि वह चुनाव में हार को स्वीकार नहीं करेंगे. उन्होंने आरोप लगाया कि इसमें धांधली हुई और यह धांधली उनके प्रतिद्वंद्वी जो बाइडेन के लिए की गई थी.
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हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ये सोशल नेटवर्क विचार व्यक्त करने के लिए अहम माध्यम हैं, खास कर उन देशों में जहां मीडिया पूरी तरह आजाद नहीं है. लेकिन जब कुछ कंपनियों के बॉस बाजार पर हावी हो जाते हैं और अपनी ताकत का इस्तेमाल अभिव्यक्ति की आजादी के नियमों को तय करने के लिए करते हैं, तो यह किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नहीं कहे जा सकता.
वक्त आ गया है कि हम फेसबुक, ट्विटर और गूगल जैसी कंपनियों की ताकत को संजीदगी से समझें और लोकतांत्रिक तथा सही रूप से इन्हें नियंत्रित करें.
जर्मनी इस दिशा में पहला कदम उठा चुका है. 1 जनवरी 2018 को देश में नेटवर्क एन्फोर्स्मेंट एक्ट (नेट्स डीजी) प्रभाव में आया. इसके तहत सोशल नेटवर्क कंपनियां फेक न्यूज और हेट स्पीच को रोकने के लिए बाध्य हैं.
यूरोपीय आयोग ने इस कानून का स्वागत किया था. तब से अन्य सोशल मीडिया कंपनियों को जर्मनी में सैकड़ों "कॉन्टेंट मॉडरेटरों" को नियुक्त करना पड़ा है जो पोस्ट की निगरानी करते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें डिलीट करते हैं.
सोशल मीडिया पर मौजूद आपत्तिजनक पोस्टों की विशाल संख्या को देखते हुए इसे महज एक शुरुआत ही कहा जा सकता है. लेकिन कम से कम शुरुआत हुई तो सही.
सीधे अकाउंट की बंद कर देना - जैसा कि डॉनल्ड ट्रंप के मामले में किया गया - यह यकीनन सही तरीका नहीं है. यह सिर्फ बड़ी टेक कंपनियों का अपनी जिम्मेदारी से भागने का एक आसान रास्ता है.
अमेरिकी संसद भवन कैपिटॉल पर ट्रंप समर्थकों के घेराव और उत्पात की तस्वीरों ने दुनिया को हिला कर रख दिया है. हालांकि दुनिया में इस तरह की घटना ना तो पहली बार हुई है और शायद ना ही आखिरी बार.
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1789: बास्टिले में घुसे प्रदर्शनकारी
निरंकुश राजशाही के दौर में आजादी और समानता की मांग को लेकर पेरिस के प्रदर्शनकारियों की भीड़ मध्यकाल के दुर्ग में घुस गई. इस जगह आजादी चाहने वाले कई राजनीतिक कैदियों को रखा गया था. इस घटना ने फ्रांसीसी क्रांति की लौ जलाई. 14 जुलाई 1789 को बास्टिले भीड़ के हाथों में चला गया. लोगों के इस विद्रोह का उत्सव मनाने के लिए अब फ्रांस में इस दिन सार्वजनिक छुट्टी रखी जाती है.
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1917: विंटर पैलेस में विद्रोह
रूस की अक्टूबर क्रांति विंटर पैलेस में बोल्शेविक के धावा बोलने के साथ शुरू हुई. उस वक्त इस इमारत में प्रांतीय सरकार का दफ्तर था. फरवरी में रूसी जार की सत्ता हटाने के बाद बोल्शेविक विद्रोह को रेड अक्टूबर भी कहा जाता है. राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग में जब इसने सरकार की सत्ता उखाड़ने में सफलता पा ली तो इसे क्रांति कहा जाने लगा.
तस्वीर: picture-alliance/akg
1958: इराकी सैन्य क्रांति
जुलाई 1958 में लोगों की भीड़ ने इराक के बगदाद में किंग फैसल के महल पर हमला कर उसमें आग लगा दी. यह कदम देश में राजशाही को हटा कर एक गणतांत्रिक सरकार बनाने की सेना की कोशिशों का हिस्सा था. फैसल और उनके करीबी सहयोगी इस दौरान मारे गए. फैसल की मौत के साथ ही इराक से राजशाही का अंत हो गया.
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1973: चिली में सैन्य क्रांति
लोकतांत्रिक रूप से चुने गए राष्ट्रपति सल्वाटोरे आलेंदे तीन साल तक सत्ता में रहने के बाद सैन्य विद्रोह में पद से हटा दिए गए. 11 सितंबर 1973 को भारी हथियारों से लैस सैनिक राष्ट्रपति के महल में घुस गए. इसके बाद आलेंदे ने आत्महत्या कर ली और देश पर जनरल ऑगस्तो पिनोचेट की क्रूर सैन्य तानाशाही का दौर शुरू हुआ.
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1981: स्पेन में तख्तापलट की कोशिश
23 फरवरी 1981 को लेफ्टिनेंट गवर्नर अंटोनियो तेजेरो मोलिना स्पेन की संसद में 200 सैन्य पुलिस और सैनिकों के साथ घुस गए. लोकतांत्रिक रूप से चुने हुए सांसदों को 18 घंटे के लिए बंधक बना लिया गया. किंग खुआन कार्लोस ने दखल दे कर फ्रांको का शासन खत्म होने के बाद एक स्थिरता के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने पर जोर दिया. विद्रोह दबा दिया गया और मोलिना को उसके बाद 15 साल जेल में बिताने पड़े.
तस्वीर: picture-alliance/ dpa
राइषटाग में विद्रोह
राइषटाग या जर्मन संसद को 1933 में जला कर ध्वस्त कर दिया गया था और यह लंबे समय से विरोध प्रदर्शन या विद्रोह का ठिकाना रहा है. अगस्त 2020 में भी कोरोना वायरस रोकने के लिए लगी पाबंदियों का विरोध करने वाले लोगों ने संसद में घुसने की कोशिश की जिन्हें पुलिस ने पीछे धकेला. अमेरिकी के कैपिटॉल पर हुए हमले की तरह ही यहां भी प्रदर्शनकारियों में ज्यादातर लोग धुरदक्षिणपंथी धारा के समर्थक थे.
तस्वीर: Reuters/C. Mang
अमेरीकी संसद पर आक्रमण
वॉशिंगटन डीसी में "स्टॉप द स्टील" रैली के लिए कैपीटॉल के पास जमा हुए सैकड़ों उग्र प्रदर्शनकारी अचानक से संसद भवन की तरफ कूच कर गए. ये लोग राष्ट्रपति के चुनाव में धांधली के दावों से उत्तेजित थे. संसद भवन में मौजूद पुलिस हिंसक प्रदर्शनकारियों का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी. सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने संसद भवन में घुस कर उत्पात मचाया.