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सोशल मीडिया के सामने विश्वसनीयता की चुनौती

२३ जून २०११

अरब जगत की क्रांति ने फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स को सोशल मीडिया का तमगा दे दिया है. लेकिन क्या सोशल मीडिया पर वाकई भरोसा किया जा सकता है?

एक्टिविस्ट मोहम्मद इब्राहिमतस्वीर: DW

नेटवर्किंग साइट्स के जरिए मिस्र, ट्यूनीशिया या सीरिया की खबरें दुनिया तक पहुंचाने वाले युवा डॉयचे वेले के ग्लोबल मीडिया फोरम में सोशल मीडिया की पैरवी करते नजर आए. लेकिन विश्वसनीयता को लेकर भरोसा नहीं बांध पाए.

सवाल उठे कि सोशल मीडिया के जरिए आने वाले विडियो की विश्वसनीयता क्या है? यह कैसे मान लिया जाए कि विडियो में प्रदर्शनकारियों से भरी जो सड़क दिखाई जा रही है, वह सीरिया की राजधानी दमिश्क की है या किसी और जगह की? सूचना की सटीकता को जांचना भी बहस का मुद्दा रहा.

तस्वीर: DW

सच्चाई का पता कैसे चले?

पैनल में शामिल जर्मन पत्रकार मार्कस बेकेडाल्ह ने सवाल किया, "हम यह कैसे मान लें कि सोशल मीडिया के जरिए सैकड़ों या हजारों किलोमीटर दूर से जो सामग्री आ रही है, वह सच है? अरब जगत

में हो रहे राजनीतिक बदलावों के दौरान कुछ खास तत्व जानकारियों से छेड़छाड़ कर या गुमराह कर अपने हित साध सकते हैं." मार्कस ने कहा कि एक पत्रकार के नाते सोशल मीडिया से मिल रही जानकारी को विश्वसनीय मानकर आगे बढ़ाना जोखिम से भरा है.

इस पर मिस्र के राजनीतिक आंदोलन में हिस्सा लेने वाले और नई सरकार के गठन में भी युवाओं की आवाज उठा रहे मोहम्मद इब्राहिम ने कहा, "सूचना को विश्वसनीय बनाना सिटिजन जर्नलिस्ट की भूमिका निभा रहे लोगों की जिम्मेदारी है. हमने हर खबर को कई तरीकों से जांचा परखा. उसके बाद ही उसे आगे बढ़ाया. भरोसा एक ऐसी चीज है जो सोशल मीडिया में भूमिका निभा रहे लोगों को बनाना और बरकरार रखना होगा. अगर हम चीजों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करेंगे या कल के दिन एक भी जानकारी गलत निकली तो लोग हम पर यकीन करना बंद कर देंगे."

लड़ाई का एक माध्यम

मिस्र में रह कर मध्यपूर्व में विदेशी कर्मचारियों के अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले काहिरा यूनिवर्सिटी छात्र अहमद जिदान भी राजनीतिक क्रांति का हिस्सा हैं. जिदान ने भारतीय पासपोर्ट को दिखाते हुए खाड़ी और मध्यपूर्व देशों में विदेशी कामगारों के उत्पीड़न का दर्द बयान किया. कंप्यूटर एनीमेशन के जरिए उन्होंने दिखाया कि कैसे लोग अपना मुल्क और परिवार छोड़कर पैसा कमाने के लिए खाड़ी के देशों में आते हैं. मजदूरी के लिए आने वाले कई लोगों का पासपोर्ट आते ही काम देने वाले जब्त कर लेते हैं. भाषा और कानून की जानकारी न होने की वजह से विदेशी कामगारों पर जुल्म किए जाते हैं. महिलाएं यौन शोषण का शिकार बनती हैं तो पुरुष जख्म खाते हैं.

जिदान सोशल मीडिया के जरिए विदेशी मजदूरों की अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं. वह मिडईस्ट यूथ नाम का संगठन भी चला रहे हैं. कंप्यूटर और इंटरनेट की दुनिया में कौशल रखने वाला काहिरा यूनिवर्सिटी का यह छात्र मानता है कि विश्वसनीयता की समस्या सोशल मीडिया के साथ है लेकिन दुनिया के पास सच्चाई का पता लगाने के विकल्प मौजूद हैं. वह कहते हैं, "गूगल मैप, स्ट्रीट व्यू, विकीपीडिया और स्थानीय मीडिया के इंटरनेट संस्करणों के आधार पर सच्चाई के करीब पहुंचा जा सकता है."

तस्वीर: DW

बदलाव का साधन है सोशल मीडिया?

तो क्या सोशल मीडिया वाकई किसी देश में प्रशासनिक और राजनीतिक सुधार या परिवर्तन ला सकता है? पैनल में शामिल पेशावर यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग के सहायक प्रोफेसर अल्ताफ उल्ला खां कहते हैं, "हर देश में राजनीतिक और सामाजिक ढांचे अलग अलग होते हैं. पाकिस्तान में बहुत कम लोगों के पास इंटरनेट की सुविधा है. वहां लोग फेसबुक या ट्विटर को मनोरंजन और खुद की अभिव्यक्ति का जरिया मानते हैं. ज्यादातर लोगों के पास इंटरनेट सुविधा नहीं है. ऐसे में सोशल नेटवर्किंग साइट्स को पाकिस्तान में सोशल मीडिया नहीं कहा जा सकता. असल बदलाव सड़कों पर उतरने वाले लोग करते हैं न कि सोशल मीडिया."

सिटिजन जर्नलिस्ट और सच

पत्रकारिता में पिछले कुछ सालों में एक बड़ा बदलाव आया है. यह बदलाव है सिटिजन जर्नलिस्ट. यानी मोबाइल या किसी तरह के कैमरे के जरिए कुछ रिकॉर्ड करके किसी घटना की जानकारी देने वाले आम लोग पत्रकार की भूमिका निभा रहे हैं. समाचार जगत से जुड़े संस्थानों के लिए यह मुमकिन नहीं कि वे चप्पे चप्पे पर निगाह रख सकें, लिहाजा सिटिजन जर्नलिस्ट का चलन जोर पकड़ता जा रहा है. विचार अच्छा है और इस बात का समर्थन करता है कि अभिव्यक्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है. लेकिन यह बात भी सच है कि 2008 में शुरू हुई विश्वव्यापी मंदी ने मीडिया जगत की कमर तोड़कर रख दी. आर्थिक कठिनाइयों ने भी मीडिया संस्थानों को मजबूर किया कि वे सिटिजन जर्नलिस्ट के जरिए किसी व्यक्ति को पत्रकार होने का अहसास दें. खबर भी पाएं और पैसा भी बचे.

अच्छा विचार व्यावसायिक मेज पर आने पर गड़बड़ा गया. सिटिजन जर्नलिस्ट की होड़ सी लग गई. सोशल मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा. भारतीय पत्रकार जयदीप कार्णिक ने सवाल उठाया, "मिस्र के बारे में वहां के वरिष्ठ पत्रकार कुछ और कहते हैं और सोशल मीडिया कुछ और. ऐसे में सवाल है कि सोशल मीडिया के जरिए हो रहे प्रदर्शन क्या लोकतंत्र के लिए हैं या ये भीड़ की हल्ला चिल्ली फैलाने वाली संस्कृति है?"

कौन है पत्रकार?

बहस के आखिर में डॉयचे वेले हिंदी विभाग के संपादक अनवर जमाल अशरफ ने कहा, "भारत की आजादी, जेपी आंदोलन और बर्लिन दीवार का गिरना, ये ऐतिहासिक जनांदोलन सोशल मीडिया के बिना हुए. सिटिजन जर्नलिस्ट के नाम पर हर कोई पत्रकार नहीं बन सकता. जैसे हर कोई डॉक्टर हो जाए तो मरीज क्या होगा, यह छुपाने वाली बात नहीं है. वैसे ही हर कोई पत्रकार भी नहीं हो सकता."

यह सच है कि पत्रकारिता से जुड़े संस्थानों में हर खबर की कई स्तरों पर जांच होती है. खबर को कई पैमानों पर तौला जाता है और बहस होती है. लेकिन कड़वी सच्चाई यह भी है कि अगर दुनिया भर के मीडिया संस्थान वाकई बिना भेदभाव के सच का साथ देते तो शायद विकीलीक्स, सोशल मीडिया और ब्लॉगिंग जैसे माध्यम इतनी सुर्खियां नहीं बटोरते. कई मीडिया संस्थानों पर अक्सर यह आरोप लगते हैं कि वह आर्थिक, राष्ट्रीय और व्यावसायिक हितों के चक्कर में सच छुपाते हैं. वे कई खबरें अपने स्वार्थ के लिए प्रसारित करते हैं. सोशल मीडिया पर हुई बहस कहती है कि जब तक मीडिया अपनी जिम्मेदारियां सही ढंग से नहीं निभाएगा तब तक लोग किसी न किसी माध्यम से अपनी बात सामने ले ही आएंगे, फिलहाल यह माध्यम सोशल मीडिया है.

रिपोर्ट: ओ सिंह, बॉन

संपादन: वी कुमार

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