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सोशल मीडिया पर जागरूकता की जरूरत

२० जून २०१४

भारत में सोशल मीडिया का जुनून लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा है. मन की भड़ास निकालने का यह एक मजबूत हथियार साबित हो रहा है मगर अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा तोड़ने वालों के लिए यह मंहगा भी साबित हुआ है.

तस्वीर: Diptendu Dutta/AFP/GettyImages

पिछले एक साल में भारतीय राजनीति के अखाड़े में नेताओं के लिए सोशल मीडिया बेहद मारक और अचूक हथियार साबित हुआ है. हालांकि इसकी शुरुआत तीन साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ उपजे आंदोलन से हुई थी जिसमें पलक झपकते ही अनगिनत लोगों तक अपना संदेश पहुंचाने में सोशल मीडिया ने अहम किरदार निभाया. इस करामात से प्रभावित होकर सियासी जमात को भी गाहे ब गाहे फेसबुक और ट्वीटर को अपनाना पड़ा. लेकिन जिस भ्रष्टाचार के आंदोलन में सोशल मीडिया का जादू चरम पर था उसी दौरान अपने मन की भड़ास निकालने का मंच मानने वालों के लिए यह नासूर साबित भी हुआ.
हाल ही में लोकसभा चुनाव सम्पन्न होने के बाद सोशल मीडिया के फायदे और नुकसान के अलावा इसके दायरे पर भी बहस तेज हो गई है. खासकर नए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सोशल मीडिया प्रेम को देखते हुए उनके विरोधियों द्वारा उन तक अपना विरोध दर्ज कराने के लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल की लक्ष्मण रेखा तय करने का मुद्दा इस बहस का केन्द्र बन गया है.

कानून व्यवस्था का मसला
इस मसले पर हर किसी का अपना नजरिया है. सोशल मीडिया पर अतिवादी तत्वों के नियंत्रण के लिए शासन के दखल को जायज ठहराने की दलीलों से इतर इस मंच पर सक्रिय जमात इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात बता रहे हैं, जबकि सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोग मर्यादा की चारदीवारी तय करने में लगे हैं. इस बहस ने मोदी सरकार के गठन के बाद जोर पकड़ा है जब सोशल मीडिया वैचारिक मतभिन्नता वाले लोगों के लिए खतरे का सबब साबित होने लगा.
सूचना क्रांति के इस दौर में सोशल मीडिया और इससे जुड़े मामलों पर नियंत्रण के लिए सिर्फ एक कानून है जबकि प्रशासन देश की सुरक्षा का हवाला देकर मोदी विरोध को दबाने के लिए अन्य आपराधिक कानूनों का सहारा ले रहा है. कानून विशेषज्ञों का कहना है कि आईटी कानून के मौजूद होते हुए आईपीसी जैसे दूसरे कानूनों को हथियार क्यों बनाया जा रहा है? अगर ऐसा करना प्रशासन की मजबूरी है तो क्या यह नहीं माना जाए कि आईटी कानून निष्प्रभावी और कमजोर है.
हाल ही में गोवा, कर्नाटक और केरल में पुलिस ने जिस तरह से मुखर मोदी विरोध को दबाने के लिए सक्रियता दिखाई है उससे देश भर में यह संदेश गया है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को व्यक्ति विशेष की आलोचना करना मंहगा पड़ सकता है. गौरतलब है कि इन मामलों में आईटी कानून का शिकंजा काम नहीं आया बल्कि अपराध कानून और जनप्रतिनिधित्व कानून को ढाल बनाकर मुखर विरोध को दबाने का सख्त संदेश दिया गया है. पुलिस की दलील है कि ऐसे मामलों में एहतियातन गिरफ्तारी करनी पड़ती है जिससे संदिग्ध आरोपी से पूछताछ कर सांप्रदायिक दंगा भड़काने या देश की सुरक्षा को खतरा पैदा करने जैसी साजिशों का पता लगाया जा सके.

नरेंद्र मोदी का ट्विटर अकाउंट

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आईटी मामलों के जानकार पवन दुग्गल कहते हैं कि भारत में सोशल मीडिया का इस्तेमाल समाज के हर तबके से जुड़े लोग कर रहे हैं. इनमें अधिकांश लोग ऐसे स्मार्टफोन धारक हैं जो इसकी संवेदनशीलता से अंजान हैं और सिर्फ दूसरों की देखादेखी फेसबुक और ट्विटर पर सक्रिय हैं. इनके लिए यह विचारों की अभिव्यक्ति का यह खुला मंच है जिस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है. ऐसे में आईटी कानून से अनभिज्ञ इन लोगों से अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाओं का पालन करने की उम्मीद करना बेमानी है. सरकार को चाहिए कि इसकी बढ़ती लोकप्रियता के समानांतर उन कानूनी उपायों के प्रति भी लोगों को जागरुक करे जिनका इस्तेमाल विचारों के सैलाब को बेकाबू होने से रोकने में किया जा सकता है.
एएमयू के प्रोफेसर आफताब आलम की दलील है कि विरोध की आवाज को सिर्फ सांप्रदायिकता का भय दिखाकर रोकना न्याय के समान संरक्षण के खिलाफ है. वह कहते हैं कि एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा सोशल मीडिया पर न सिर्फ अपनी सरकार की नीतियों का जिक्र करते हैं बल्कि समर्थकों और विरोधियों के साथ हंसी मजाक भी साझा करते हैं. जबकि भारत में भी कमोबेश यही स्थिति है सिर्फ सत्ताधारी सियासी जमात अपनी आलोचना को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मान बैठती है.

सरकार और समाज दोनों को इस बारे में अपनी अपनी सीमारेखाएं खुद तय करनी चाहिए क्योंकि साइबर जगत में गोते लगाते समाज को कानून के डंडे से काबू में करने की कोशिश नितांत अव्यवहारिक साबित होगी. सोशल मीडिया इन दिनों भावनाओं की सुनामी का सामना कर रहा है. इसे रोकने के लिए हो रहे तात्कालिक उपाय न सिर्फ नाकाफी हैं बल्कि समस्या को समाधान से दूर करने वाले भी साबित हो रहे हैं.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा

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