सौ साल में कितनी बदली बिहार विधानसभा
५ मार्च २०२१बिहार विधानसभा फरवरी में सौ साल की हो गई. अपने भवन में इसकी पहली बैठक वर्ष 1921 की सात फरवरी को हुई थी. तब इसे बिहार-उड़ीसा विधान परिषद के नाम से जाना जाता था. बिहार विधानसभा ने सौ साल के सफर बहुत सी घटनाएं देखी हैं. देश की आजादी से लेकर राज्य के विभाजन तक. इस दौरान कई ऐतिहासिक फैसले लिए गए जो देशभर में चर्चित हुए. इसी सदन में बिहार-उड़ीसा के पहले राज्यपाल ने लोगों से स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए स्वदेशी चरखा अपनाने की अपील की थी जो बाद में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जनांदोलन का हिस्सा बनी.
इन फैसलों में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के कार्यकाल में पारित किया गया जमींदारी उन्मूलन अधिनियम आजाद भारत में सबसे अहम रहा. इसी के आधार पर बाद में चकबंदी एक्ट लाया गया जिसके तहत अधिकतम जमीन रखने की सीमा तय की गई. इसके अतिरिक्त शराबबंदी कानून, पंचायती राज में महिलाओं को पचास फीसद आरक्षण तथा पर्यावरण को बचाने के लिए जल-जीवन-हरियाली अभियान जैसे कई ऐसे फैसले हुए जिसे विधायकों ने एक सुर में पारित किया. देश में पहली बार बिहार में पंचायती राज में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी जिसे कई राज्यों ने बाद में अपनाया. ये ऐसे फैसले थे जिनके प्रभाव व्यापक व दूरगामी रहे. शताब्दी समारोह के मौके पर आयोजित कार्यक्रमों का सिलसिला सालभर चलेगा.
बिहार को मिला अलग राज्य का दर्जा
बिहार में विधायिका के इतिहास के झरोखे में झांक कर देखें तो साल 1911 काफी महत्वपूर्ण रहा. इसी साल 12 दिसंबर को बिहार-उड़ीसा को बंगाल से अलग कर पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया. 22 मार्च,1912 को विधायी परिषद गठित हुई जिसके 43 सदस्य थे. इनमें मात्र 24 सदस्य ही निर्वाचित थे जबकि शेष सदस्यों का मनोनयन किया जाता था. अलग राज्य बनने के बाद विधान परिषद की पहली बैठक पटना कालेज के सभागार में 20 जनवरी,1913 को हुई थी. चूंकि परिषद का अपना कोई सचिवालय या सभागार नहीं था इसलिए इसकी बैठक अलग-अलग जगहों पर होती रही. बंगाल से अलग होने के बाद परिषद के लिए एक सचिवालय की जरूरत तो महसूस की ही जा रही थी.
वर्ष 1920 में विधान परिषद का अपना भवन बनकर तैयार हो गया. यही इमारत बिहार विधानसभा का मौजूदा भवन है. सौ साल पहले सात फरवरी,1921 को तत्कालीन राज्यपाल सत्येंद्र प्रसन्न सिन्हा ने विधान परिषद के पहले भवन का उद्घाटन किया था. इस मौके पर आयोजित बैठक को राज्यपाल सिन्हा ने संबोधित किया था और वॉल्टर मॉड सदन के अध्यक्ष थे. तब सदन के सदस्यों को मात्र 2404 लोग चुनते थे. बाद में इनकी संख्या तीन लाख से अधिक हो गई जिनमें यूरोपियन, जमींदार और विशेष निर्वाचन क्षेत्र के वोटर भी शामिल थे. वर्ष 1935 में पारित अधिनियम के तहत बिहार और उड़ीसा को अलग राज्य बनाया गया तथा बिहार में विधानमंडल के तहत दो सदनों, विधान परिषद और विधानसभा की व्यवस्था अस्तित्व में आई. 1936 में उड़़ीसा भी बिहार से अलग हो गया. इस लोकतांत्रिक संस्था के सतत विकास को इससे ही समझा जा सकता है कि आज सात करोड़ से अधिक मतदाता विधानसभा के 243 सदस्यों को चुनते हैं. झारखंड के अलग होने के पहले बिहार विधानसभा के सदस्यों की संख्या 324 थी जो विभाजन के बाद 243 रह गई है.
इतालवी आर्किटेक्चर का नायाब नमूना
मौजूदा विधानसभा भवन के आर्किटेक्ट एएम मिलवुड थे. इतालवी रेनेसां शैली में बनी यह इमारत कई मायने में बेमिसाल है. बीच के वर्षों में इस भवन का विस्तार भी किया गया. जहां आज विधानमंडल के संयुक्त अधिवेशन की बैठक होती है, उसे सेंट्रल हॉल का नाम दिया गया है. विशिष्ट श्रेणी की इस इमारत में समानुपातिक गणितीय संतुलन के साथ ही सादगी व भव्यता का अद्भुत समन्वय है. अर्द्ध वृताकार मेहराब व गोलाकार स्तंभ इसकी खास विशेषता में शुमार है जो इसे रोमन शैली से प्रभावित दर्शाती है.
विधानसभा का सभा कक्ष आयताकार ब्रिटिश पार्लियामेंट से इतर रोमन एम्फीथियेटर की तर्ज पर अर्द्ध गोलाकार शक्ल में बनाया गया है. मूल सभा कक्ष की आंतरिक संरचना साठ फीट लंबी व पचास फीट चौड़ी है जिसका विस्तार भवन की दोनों मंजिलों में है. विधानसभा भवन के अगले हिस्से पर जो प्लास्टर किया गया है उस पर एक निश्चित अंतराल पर कट मार्क बनाया गया है जिससे इसकी खूबसूरती काफी बढ़ जाती है. वास्तुविद इसे इंडो सारसेनिक पद्धति का उदाहरण मानते हैं.
विधायकों को अपराध से दूर रहने की सीख
विधानसभा भवन के सौ साल पूरे होने के मौके पर सालभर चलने वाले शताब्दी समारोह हो रहे हैं. औपचारिक बैठक में सदन के सुव्यवस्थित संचालन के अलावा विधायकों की भूमिका तथा लोक महत्व के मामलों को सदन में उठाने की प्रक्रिया विमर्श के केंद्र में रही. जनहित के सवालों पर सकारात्मक चर्चा के साथ बिहार का विकास मुख्य मुद्दा रहा. इन सबसे दीगर बिहार विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा ने सबसे अहम बात कही कि अब विधायक अपने घर में बाहर यह लिखेंगे कि उनके परिवार का अपराध और नशे से कोई नाता नहीं है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायकों को एक-दूसरे का सम्मान करने की अपील की कहा कि सबसे महत्वपूर्ण है कि सबकी बात सुनी जाए.
नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर वृद्ध हो चुके एक पूर्व विधायक ने कहा, "बाकी बहुत कुछ तो नहीं बदला है, किंतु मुझे नहीं लगता कि जनप्रतिनिधियों का व्यवहार उतना शालीन रह गया है. लगता है जैसे धैर्य चूक रहा है. मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता व विपक्ष के बीच स्वस्थ विमर्श की परंपरा का निर्वहन जरूरी है." कुछ ऐसा ही खगड़िया जिले के बेलदौर से पांचवीं बार विधायक चुने गए पन्नालाल पटेल का भी कहना है. वे कहते हैं, "सदस्यों के व्यवहार में रूखापन आया है. विपक्षी सदस्यों का व्यवहार बदला दिखता है. अब तो निजी हमले तक किए जाते हैं." शायद यही वजह रही होगी कि उपमुख्यमंत्री रेणु देवी ने भी कहा कि सार्वजनिक व व्यक्तिगत जीवन में व्यवहार ऐसा रखना चाहिए कि जनप्रतिनिधियों के प्रति आमलोगों का विश्वास का कायम रहे.
सदन के सौ साल तो पूरे हो गए किंतु लोकतंत्र के संबंध में तत्कालीन राज्यपाल सिन्हा के कहे शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं कि अपने मतभेद भुलाकर अधिक से अधिक मुद्दों पर आपसी सहमति स्थापित करें. तथा राजनीतिक तंत्र का उपयोग कर दलितों की स्थिति उन्नत करने का साथ ही जाति, नस्ल तथा शत्रुतापूर्ण स्वार्थों की दीवारें गिरा दें. सौ साल की लोकतांत्रिक परंपराओं के बावजूद ये समस्याएं ज्यों कि त्यों हैं, जाति, नस्ल और स्वार्थ की दीवारें और मजबूत हो गई हैं.
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