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स्कूल में बोरियत के खिलाफ फुटबॉल

१० जून २०१४

जर्मनी में फुटबॉल वैसा ही लोकप्रिय है जैसा भारत में क्रिकेट. वर्ल्ड कप जैसा आयोजन हो तो लोगों का जोश भी बढ़ जाता है. इसी का फायदा उठाकर हनोवर यूनिवर्सिटी के छात्र स्कूल में मुश्किल झेल रहे छात्रों की मदद कर रहे हैं.

तस्वीर: Fotolia/mirpic

करोला मेज थपथपा कर 17 वर्षीय देलगाश की ओर देखती है और पूछती है, "बताओ, मैथ के कोर्स में इस समय क्या कर रहे हो?" वोकेशनल स्कूल का छात्र शर्मा कर जवाब से बचने की कोशिश करता है. मैथ पढ़े कितने दिन हो गए. लेकिन आज उसके पास एक बहाना है. वह अभी अभी एक कारखाने में इंटर्नशिप करके लौटा है. उसके लिए और 26 साल की सोशल पेडागोगी की छात्रा दोनों के लिए सफलता का अहसास.

करोला ने इराकी मूल के देलगाश के साथ काफी घंटे गुजारे हैं. उसके साथ मैथ का होम वर्क किया है और उसे जॉब इंटरव्यू के लिए ट्रेन किया है. लेकिन स्कूल में नहीं बल्कि बुंडेसलीगा में खेलने वाली हनोवर फुटबॉल क्लब के कमरों में. "स्टेडियम में पढ़ाई" हनोवर का एक फुटबॉल प्रोजेक्ट है. हनोवर यूनीवर्सिटी के छात्र वोकेशनल स्कूल के अंतिम साल में छात्रों को पेशे के लिए तैयार करने में मदद देते हैं और उनके साथ फुटबॉल भी खेलते हैं.

डिर्क श्रोएडर और कार्स्टेन शीयरहोल्त्सतस्वीर: DW/M. Witt

बोरियत से मुक्ति

वोकेशनल स्कूलों के ऐसे छात्रों को कमजोर समझा जाता है, जो पेशे से जुड़ा कोर्स करते हैं, यह कहना है हनोवर यूनीवर्सिटी के डिर्क श्रोएडर का जो "स्पोर्ट एक मौका" सेमिनार के हेड हैं. ज्यादातर छात्र विदेशी पृष्ठभूमि के हैं. बहुत से ऐसे हैं, जो हाई स्कूल पास नहीं कर पाए. शिक्षाशास्त्री श्रोएडर कहते हैं कि अर्थव्यवस्था उन्हें ट्रेन न किए जाने लायक समझती है, "फुटबॉल के जरिए उन्हें स्कूलों के रोजमर्रा के लायक बनाया जाता है." अधिकांश बच्चे फुटबॉल खेलते हैं क्योंकि नियम आसान हैं.

फुटबॉल के जरिए उनके ऊपर से सीखने का बोझ हटा लिया जाता है. वोकेशनल स्कूल के टीचर कार्स्टेन शीयरहोल्त्स कहते हैं, "वे इसके माध्यम से टीम भावना और समय की पाबंदी जैसे बेहतर सामाजिक बर्ताव सीखते हैं." वे जल्द ही समझ जाते हैं कि यदि आधे बच्चे देर से आएं तो खेलने में मजा नहीं आता. लेकिन वे सिर्फ खेलते ही नहीं हैं. बुंडेसलीगा के मैचों के दौरान वे दूसरे बच्चों के लिए सॉकर कोर्ट का आयोजन करते हैं. उन्हें वीआईपी माहौल मिलता है और काम के लिए मान्यता मिलती है. श्रोएडर कहते हैं, "छात्र महसूस करते हैं कि हनोवर 96 क्लब में सीखना कुछ खास है." इसका असर स्कूल में उनके नतीजे पर भी पड़ता है.

मार्विन और देलगाश करोला के साथतस्वीर: DW/M. Witt

अहम है यह ऑफर

हनोवर 96 का यह ऑफर स्कूल में मुश्किलों का सामना कर रहे छात्रों के लिए अहम है. देलगाश भी यह मानता है. फुटबॉल प्रोजेक्ट की वजह से अब वह गोदाम वर्कर की ट्रेनिंग शुरू कर पाएगा. "यदि मैं सिर्फ स्कूल गया होता तो हफ्ते में दो दिन क्लास नहीं जाता, फिर यह निश्चित तौर पर मुमकिन नहीं हुआ होता." इस प्रोजेक्ट के कारण उसने समय की पाबंदी भी सीखी. "अब मैंने तय किया है कि इसे जारी रखूंगा." करोला सिर हिलाती है. देलगाश की कामयाबी का श्रेय उसे भी जाता है, लेकिन प्रोजेक्ट का फायदा उसे भी हुआ है. हर हफ्ते उसे वह अनुभव मिल रहा है जो शिक्षक के रूप में उसके काम आएगा. "थ्योरी में इस पर बात करने से व्यवहार में इसे देखना और उससे सीखना आसान है."

चूंकि फुटबॉल के जरिए युवाओं को उत्साहित किया जा सकता है, अब इस प्रोजेक्ट का पहल करने वालों ने इसे और व्यापक करने का फैसला लिया है. वे अब हायर सेकंडरी और भाषा में कमजोर बच्चों को एक साथ ला रहे हैं, जिनमें ज्यादातर शरणार्थी बच्चे हैं. वे 1914 में पहले विश्व युद्ध के दौरान क्रिसमस शांति पर प्रोजेक्ट कर रहे हैं. 17 वर्षीय पॉल को शरणार्थी बच्चों के अनुभवों ने बहुत प्रभावित किया. इस प्रोजेक्ट के जरिए उसे कई दोस्त मिले हैं, जो उसे यूं कभी नहीं मिलते. वे भविष्य में भी मिलते रहना चाहते हैं. वर्ल्ड कप के मैच तो साथ साथ देखना ही चाहते हैं.

रिपोर्ट: आंके मार्टिना विट/एमजे

संपादन: ए जमाल

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