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स्टारडम से कभी फर्क नहीं पड़ाः शर्मिला

५ अप्रैल २०११

14 साल की उम्र में सत्यजीत रे की फिल्म में अप्पू की पत्नी का किरदार निभा कर शुरुआत करने वाली शर्मिला टैगोर अब 66 साल की हो गई हैं. फिल्मों के अलावा वह दूसरे काम भी कर रही हैं और कहती हैं कि स्टारडम से कभी फर्क नहीं पड़ा.

बहुत व्यस्त हैं शर्मिलातस्वीर: UNI

शर्मिला हाल ही में संगीता दत्ता की फिल्म लाइफ गोज ऑन में अपनी बेटी सोहा अली खान के साथ दिखीं. यह फिल्म शेक्सपीयर के नाटक किंग लीयर के आधार पर बनी है. इसमें शर्मिला ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया जिसके लिए उनकी तीन बेटियों और पति मातम कर रहे हैं.

इस वक्त शर्मिला ने कोई नई फिल्म साइन नहीं की है. वह खुद को किसी सार्थक काम में लगाना चाहता है. खासकर सामाजिक सेवा उनकी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर है. वह कहती हैं, "अभी मेरे पास कोई फिल्म नहीं है. मैं दूसरे कामों में बहुत व्यस्त हूं. हाल ही में वॉशिंगटन से लौटी हूं जहां माताओं की मौत और बच्चों के अधिकारों पर एक परिचर्चा में हिस्सा लिया. अभी बहुत व्यस्त हूं और आगे भी ऐसे ही रहना चाहती हूं. लेकिन मैं कोई सार्थक काम करूंगी जिससे मुझे आनंद मिले."

जब शर्मिला से पूछा गया कि क्या फिल्म जगत में अब युवाओं पर ही ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है तो उन्होंने कहा कि ऐसा तो हमेशा ही रहा है. उनका मानना है, "युवाओं और सुंदरता पर हमेशा ध्यान रहा है. पहले तो तीस साल की उम्र तक बत्ती बुझ जाती थी. अब और पहले ही काम खत्म हो जाता है. फिल्में युवाओं को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं तो फिल्म इंडस्ट्री का युवाओं पर ध्यान देना स्वाभाविक है.

सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष के तौर पर हाल ही में अपना कार्यकाल पूरा करने वाली शर्मिला का कहना है कि वह अपने बच्चों सैफ अली खान और सोहा अली खान के करियर से संतुष्ट हैं. वह कहती हैं, "जिस तरह का काम वे कर रहे हैं, उससे मैं खुश हूं. स्टारडम से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैंने अपने करियर में कभी इस पर ध्यान नहीं दिया. मुझे स्टारडम की कभी ख्वाहिश भी नहीं रही. जब तक उन्हें अपनी पसंद का काम मिलता रहेगा तो मैं भी खुश हूं."

लाइफ गोज ऑन

में काम करने की एक वजह शर्मिला इस फिल्म में अपने बहुमुखी किरदार को भी मानती हैं. साथ ही इसमें रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं का हिंदी अनुवाद भी इस्तेमाल किया गया है. यह अनुवाद जावेद अख्तर ने किया. वह कहती हैं, "मैं समझी हूं कि यह अब तक का बेहतरीन अनुवाद है. दूसरे अनुवाद बहुत किताबी रहे हैं और उनमें टैगोर से कहीं ज्यादा काव्यात्मक बनने की कोशिश की गई है. जहां तक जावेदजी की बात है, उनमें किसी तरह का अभिमान नहीं है. उन्होंने शब्द की जगह शब्द रखने की बजाय उसके भाव को पेश किया है."

रिपोर्टः एजेंसियां/ए कुमार

संपादनः उभ

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