लैपटॉप और स्मार्टफोन की बैट्री के लिए जिस कोबाल्ट का इस्तेमाल होता है, वह अधिकतर कांगो की खदानों से आता है. मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि इन खदानों में गैरकानूनी रूप से बाल मजदूरों से काम लिया जाता है.
एमनेस्टी ने एप्पल, सैमसंग और सोनी जैसी नामी कंपनियों का जिक्र करते हुए उन पर लापरवाही का आरोप लगाया है. इस रिपोर्ट के लिए एमनेस्टी ने स्थानीय संगठन अफ्रीकन रिसोर्स वॉच की मदद ली गयी है. अफ्रीवॉच के कार्यकारी निदेशक इमानुएल उम्पुला ने इस बारे में कहा, "यह डिजिटल युग का विरोधाभास है कि दुनिया की कुछ सबसे धनवान, सबसे प्रगतिशील कंपनियां बाजार में ऐसे तकनीकी उपकरण ला रही हैं जिनके लिए उन्हें यह बताना भी नहीं पड़ता कि कच्चा माल आखिर आया कहां से."
दुनिया भर में बैट्री में इस्तेमाल होने वाले कोबाल्ट का आधा हिस्सा कांगो से ही आता है. एमनेस्टी ने पाया है कि देश में सात साल के बच्चे भी अवैध रूप से खदानों में काम कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार कांगो में 40,000 बच्चे अलग अलग खदानों में काम कर रहे हैं.
एमनेस्टी के अनुसार बच्चे हों या बड़े, खदानों में काम करने वाले अपनी जान जोखिम में डाल कर काम कर रहे हैं. चौदह साल के एक बच्चे ने बात करने पर बताया, "मुझे कई बार 24 घंटे अंदर सुरंग में ही बिताने पड़ते हैं. पेशाब करने के लिए भी मैं बाहर नहीं आ सकता." सितंबर 2014 से दिसंबर 2015 के बीच इन खदानों में 80 लोगों के मारे जाने की भी खबर है. एमनेस्टी के रिसर्चर मार्क डुमेट ने इस बारे में कहा, "एक तरफ ग्लैमर से भरी दुकानें हैं, आधुनिकतम तकनीक की मार्केटिंग है और दूसरी तरफ पत्थर ढोते बच्चे हैं जो पतली सुरंगों में अपने फेफड़ों को खराब होने दे रहे हैं."
एमनेस्टी की रिपोर्ट के जवाब में एप्पल ने बयान जारी कर कहा है कि वह मामले की जांच करेगा ताकि पता चल सके कि ढिलाई किस स्तर पर बरती गयी. एप्पल का कहना है कि जहां तक बाल मजदूरी की बात है, तो कंपनी की नीति में उसके लिए "जीरो टॉलरेंस" है. इसके विपरीत सैमसंग का कहना है कि वह सभी खदानों की जांच कराता रहा है और उसके पास लिखित में इस बात के प्रमाण हैं कि खदानों में मानवधिकारों का हनन या फिर स्वास्थ्य और पर्यावरण से संबंधित कानूनों का उल्लंघन नहीं हुआ है. वहीं सोनी ने इस पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
आईबी/एमजे (रॉयटर्स, डीपीए)
हर साल 12 जून को बाल श्रम विरोधी अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है. लेकिन दुनिया भर में अब भी करीब 17 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. 1999 में विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) के सदस्य देशों ने एक संधि कर शपथ ली कि 18 साल के कम उम्र के बच्चों को मजदूर और यौनकर्मी नहीं बनने दिया जाएगा.
तस्वीर: imago/Michael Westermannदक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में बाल मजदूर. इस फैक्ट्री में तौलिये बनाए जाते हैं. मजदूरी करने वाला यह बच्चा करोड़ों बाल मजदूरों में एक है. आईएलओ के मुताबिक एशिया में ही 7.80 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. पांच से 17 साल की उम्र की युवा आबादी में से करीब 10 फीसदी से नियमित काम कराया जाता है.
तस्वीर: imago/imagebrokerपढ़ाई लिखाई या खेल कूद के बजाए ये बच्चे ईंट तैयार कर रहे हैं. भारत में मां-बाप की गरीबी कई बच्चों को मजदूरी में धकेल देती है. भारत के एक ईंट भट्टे में काम करने वाली इस बच्ची को हर दिन 10 घंटे काम करना पड़ता है, बदले में मिलते हैं 60 से 70 रुपये.
तस्वीर: imago/Eastnewsभारत की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1.26 करोड़ बाल मजदूर हैं. ये सड़कों पर समान बेचते हैं, सफाई करते हैं, या फिर होटलों, फैक्ट्रियों और खेतों में काम करते हैं. व्यस्क मजदूरों की तुलना में बाल मजदूर को एक तिहाई मजदूरी मिलती है.
तस्वीर: imago/imagebrokerआईएलओ की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक 50 फीसदी बच्चे खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं. कई रात भर काम करते हैं. कई बच्चों को श्रमिक अधिकार भी नहीं मिलते हैं. उनकी हालत गुलामों जैसी है.
तस्वीर: AFP/Getty Imagesबांग्लादेश में बाल मजदूरी काफी प्रचलित है. यूनिसेफ के मुताबिक देश में करीब 50 लाख बच्चे टेक्सटाइल उद्योग में मजदूरी कर रहे हैं. टेक्सटाइल उद्योग बांग्लादेश का सबसे बड़ा एक्सपोर्ट सेक्टर है. यहां बनने वाले सस्ते कपड़े अमीर देशों की दुकानों में पहुंचते हैं.
तस्वीर: imago/Michael Westermannकंबोडिया में प्राइमरी स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या सिर्फ 60 फीसदी है. स्कूल न जाने वाले ज्यादातर बच्चे अपने माता-पिता के साथ काम करते हैं. हजारों बच्चे ऐसे भी है जो सड़कों पर अकेले रहते है. राजधानी नोम पेन्ह की ये बच्ची सामान घर तक पहुंचाती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpaहालांकि दुनिया भर में सन 2000 के बाद बाल मजदूरों की संख्या गिरी है लेकिन एशिया के ज्यादातर देशों में हालात नहीं सुधरे हैं. बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, कंबोडिया और म्यांमार में अब भी ज्यादा पहल नहीं हो रही.
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