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स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता की आजादी नहीं

७ अगस्त २०१५

भारत में सूचना एवं संचार क्रांति का बहाव अब सैलाब में तब्दील होता जा रहा है. इस क्रांति के सैलाब का वाहक बना है सोशल मीडिया जहां बेकाबू होते जज्बात पलक झपकते ही साइबर जगत में बवंडर का कारण बन रहे है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए अलग से कानून बनाने की ताकीद कर हालात की गंभीरता का अहसास करा दिया है. बात सिर्फ फेसबुक और ट्वीटर तक सीमित नहीं है. ताजा चुनौती अब मोबाइल फोन के जरिए चल रहे व्हाट्स एप सहित तमाम चैटिंग एप्लीकेशन बन रहे हैं. साथ ही ब्लॉगिंग के माध्यम से अपने विचारों के बेकाबू ज्वार सुनामी की शक्ल अख्तियार करने लगे हैं.

बीते कुछ सालों में नौजवानों ने सोशल मीडिया को अपनी वैचारिक क्रांति का सबसे कारगर मंच बनाया है. हालांकि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ चले आंदोलन में नौजवानों की हाइटेक टीम ने सोशल मीडिया के सदुपयोग का उदाहरण दुनिया के सामने पेश कर मिसाल कायम की थी. तकनीकी के इस अभिनव प्रयोग ने संचार क्रांति की ताकत का अहसास समाज के उन तबकों को भी करा दिया जो तब तक इससे अनजान थे. लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू अब सामने आ रहा है जबकि गांव देहात और कस्बों से लेकर महानगरों तक बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक स्मार्टफोन से लैस हर कोई व्हाट्स एप पर ही मशगूल हो गए हैं. नतीजतन संचार उपकरणों का दुरुपयोग वैचारिक विस्फोट की हदें लांघता नजर आ रहा है. आलम यह है कि व्हाट्सएप पर वायरल होती तस्वीरें और वीडियो के खतरे ने न सिर्फ राजनेताओं बल्कि जिम्मेदार पदों पर बैठे महत्वपूर्ण लोगों तक की नींद उड़ा दी है.

इतना ही नहीं इस खतरे से सेलिब्रिटी ही परेशान नहीं हैं बल्कि सामान्य परिवार भी इस खतरे की जद में हैं. इन सभी खतरों के आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सोशल मीडिया पर निगरानी और नियंत्रण के लिए नए कानून की जरुरत को समय की मांग बताया है. अदालत ने दक्षिण भारतीय वकील एन राव की अर्जी पर सरकार ने यह आदेश दिया है. दरअसल राव के बारे में सोशल मीडिया पर यह संदेश वायरल हो गया कि वह बलात्कार के एक मामले में आरोपी है. सामान्य तौर पर इसे मानहानि का मामला बताया जाता लेकिन राव ने इसे आईटी एक्ट की कमी और संचार क्रांति के दुरुपयोग का मामला बताते हुए अदालत से नया कानून बनाने की मांग की.

यह बात सही है कि इस संकट से जनसामान्य ही नहीं भारतीय मीडिया भी जूझ रहा है. सोशल मीडिया पर तथ्यों की पड़ताल किए बिना प्रसारित होने वाली सूचनाओं को खबर के तौर पर पेश करने से समूचा तंत्र परेशानी की जद में है. अदालत ने इसे कानून की कमी तो माना है साथ ही आईटी एक्ट की धारा 66 ए को हाल ही में असंवैधानिक घोषित किए जाने के दुष्परिणाम से भी जोड़ा. हाल ही में सर्वोच्च अदालत ने सोशल मीडिया पर विचार अभिव्यक्ति के नाम पर देशहित को प्रभावित करने वाली और आपत्तिजनक जानकारी प्रसारित करने के खिलाफ पुलिस कार्रवाई का प्रावधान करने वाली धारा 66 ए को असंवैधानिक करार दिया था.

बेशक विचारों को व्यक्त करने की आजादी संविधान में मौलिक अधिकार है. लेकिन संविधान के ही तहत इस आजादी पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने का राज्य को अधिकार भी दिया गया है. ऐसे में अदालत ने भी यह माना कि देश में शिक्षा और चेतना के मौजूदा स्तर को देखते हुए स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में तब्दील होने की छूट नहीं दी जा सकती है. इसलिए संसद को कानून बनाकर इस बारे में स्थिति स्पष्ट करनी होगी. खासकर देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा, सामाजिक चेतना जैसे संवेदनशील पहलुओं को देखते हुए तकनीकी प्रसार को रोकने के बजाय इसे बेकाबू होने से रोकने के उपाय करना वक्त की मांग है.

ब्लॉग: निर्मल यादव

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