1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
साहित्य

हंस फलाडा: अलोन इन बर्लिन

आयगुल चिमचियोग्लू
३ जनवरी २०१९

प्रकाशित होने के कई दशक बाद हंस फलाडा का यह उपन्यास एक अंतरराष्ट्रीय बेस्टसेलर है जिसका 30 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. उनकी ये उत्कृष्ट कृति बर्बर नाजी शासन के खिलाफ नागरिक प्रतिरोध की कहानी है.

Hans Fallada
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Hans-Fallada-Archiv

सार्वजनिक रूप से झंडे लहराना और विशाल पोस्टर टांगना ही विरोध नहीं होता है. हाथ से लिखे छोटे पोस्टकार्डों को सीढ़ियों और गलियारों में गुप्त तरीके से रखने का भी वही प्रभाव हो सकता है. 1940 के बर्लिन में श्रीमान और श्रीमती क्वांगेल ने मोर्चे में अपने बेटे की मौत के बाद ऐसे 200 पोस्टकार्ड वितरित किए.

हत्यारी नाजी हुकूमत के खिलाफ प्रतिरोध की ऐसी छोटी कार्रवाइयों में ऐसे संदेश शामिल थेः "मां! फ्युरर  (नेता – हिटलर के लिए उसके समर्थकों का संबोधन ) ने मेरे बेटे का कत्ल कर दिया है. मां! फ्युरर तुम्हारे बेटों की भी हत्या कर देगा, वो दुनिया के हर घर को दुख पहुंचाए बिना नहीं मानेगा.”

जोखिम में लेखन

ऐसे समय में जब विदेशी रेडियो स्टेशनों को सुनने पर भी सजा हो सकती थी, ऐसे संदेश लिखना और उन्हें बांटना तो एक बहुत बड़ा खतरा था. पहले पहल "हर आदमी अकेला मरता है” (एवरी मैन डाइज अलोन) शीर्षक से प्रकाशित हंस फलाडा का 1947 का उपन्यास, "बर्लिन में अकेले” (अलोन इन बर्लिन), अवश्यंभावी तौर पर दंपत्ति के पकड़े जाने और अभियुक्त बना दिए जाने के साथ खत्म होता है. ऑटो क्वांगेल को आखिरकार फांसी दे दी जाती है और उसकी पत्नी आना एक बमबारी के दौरान जेल में दम तोड़ देती है.

नाजियों के अंध प्रशंसक दंपत्ति के फासिस्ट विरोधी एक्टिविस्ट में तब्दील हो जाने की हंस फलाडा की दिल दहलाने वाली कहानी, वास्तविक जीवन से ली गई थी. दंपत्ति का असली नाम हाम्पेल था, और उनकी इस हिलाने वाली कहानी को कवि और बाद में जीडीआर (जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य) के संस्कृति मंत्री योहानेस आर बेषर ने दर्ज किया था. युद्ध के खत्म होने पर बेषर ने हाम्पेल की गेस्टापो फाइल को अपने मित्र हंस फलाडा को सौंप कर उस पर एक उपन्यास लिखने का सुझाव दिया था.

लेकिन हंस तब तक शराब और मॉर्फीन की लत का शिकार हो चुके थे, लिहाजा शुरुआत में उन्होंने ये काम करने से मना कर दिया. वो आंतरिक निर्वासन में थे और रोमांटिक उपन्यास लिखकर नाजी दौर से बच गये थे. वो अपने प्रतिरोध को व्यवस्थित कर पाने की स्थिति में भी नहीं थे. लेकिन हाम्पेल की फाइल के हर पन्ने के साथ वो एक जुड़ाव महसूस करते चले गये. फलाडा बर्लिन की रोजमर्रा की जिंदगी से वाकिफ थे, और साधारण लोगों की भाषा की उन्हें गहरी समझ थी.

1946 में लेखक ने आखिरकार उपन्यास लिख ही डाला, सिर्फ चार सप्ताह में पांडुलिपि के 900 पृष्ठ. ये उनकी अंतिम रचना थी. फरवरी 1947 में फलाडा का निधन हो गया.

किताब पर 2016 में ब्रेंडन ग्लीसन और एम्मा थॉम्पसन के साथ फिल्म बनीतस्वीर: X Filme Creative Pool/Marcel Hartmann

नैतिक नायक

अपने प्रकाशन के करीब 65 साल बाद "अलोन इन बर्लिन”  एक अंतरराष्ट्रीय बेस्टसेलर बन गया. इसका श्रेय चर्चित अंग्रेजी अनुवाद को जाता है. अपने पोस्टकार्डों से लैस होकर हिटलर से भिड़ने वाले नामालूम नागरिकों की कहानी, अपने सूक्ष्म और जटिल किरदारों की बदौलत भी सफल हुई थी.

फलाडा के उपन्यास में, बर्बर नाजी, कायर प्रशंसक और त्रुटिविहीन भले लोग ही नहीं है. अराजनीतिक क्वांगेल दंपत्ति, हिटलर और उसके शासन का खुलेआम समर्थन करते थे और वो शुरु में इस बात से खुश थे. जर्मन सेना की ओर से लड़ते हुए बेटे की मौत हो जाने के बाद ही उन्हें हुकूमत पर संदेह होने लगा.

"यही होता आया है, हम सब अकेले अपने काम को अंजाम देते हैं, हम अकेले पकड़े जाते हैं. और हममें से हरेक आदमी को अकेले ही मरना होगा. लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि हम अकेले हैं,” उपन्यास में ऑटो कहता है.

"इससे फर्क नहीं पड़ता कि अकेला आदमी लड़ता है या दस हजार लड़ते हैं, अगर अकेला आदमी देखता है कि उसके पास लड़ने के सिवा कोई विकल्प नहीं है, तो वो लड़ेगा, कोई उसका साथ देता है या नहीं,” उसने आगे कहा.

इस टाइपराइटर पर लिखा फलाडा ने उपन्यासतस्वीर: picture-alliance/dpa/B. Wüstneck

क्या उनका प्रतिरोध व्यर्थ था? विफलता के बावजूद, फलाडा क्वांगेल दंपत्ति को नैतिक तौर पर नायकों की तरह पेश करते हैं. उन्होंने अपने विवेक का इस्तेमाल किया और पीठ दिखाए बिना गरिमा के साथ नतीजों को भी भुगता. इसीलिए उनके उपन्यास के अंत में उम्मीद की झलक बनी रहती है.

"लेकिन हम इस किताब का अंत मौत के साथ नहीं चाहते, ये जीवन को समर्पित है, उस अदम्य जीवन को, जो शर्म और आंसुओं पर, दुर्भाग्य और मृत्यु पर बारम्बार जीत हासिल करता है.”

 

हंस फलाडाः बर्लिन में अकेले, (अलोन इन बर्लिन), पेंग्विन बुक्स (जर्मन शीर्षकः येडेर श्टिर्ब्ट फ्युर जिष अलाइन), 1947

 

हंस फलाडा का असली नाम रूडॉल्फ डिटसेन था. उनका जन्म 1893 में ग्राइफ्सवाल्ड में हुआ था. अपना छद्मनाम उन्होंने ग्रिम बंधुओं की परीकथाओं हंस इम ग्ल्युक और डी गेंजेमाग्ड से लिया था. इस कथा में फलादा नामक घोड़े का सिर काट दिया जाता है, लेकिन वो सच बोलता है. "क्लाइनर मन- वास नुन?,”  "वेयर आइनमाल आउस डेम ब्लेषनाप्फ फ्रिस्ट”, और "डेयर आइजर्ने गुस्ताफ” जैसे उपन्यासों से हंस फलाडा ने प्रसिद्धि हासिल की. मॉर्फीन और शराब की लत से पीड़ित लेखक का 1947 में हृदयाघात से बर्लिन में  निधन हो गया.

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें
डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें