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हथियारों की बढ़ती होड़ और उसके असर

४ दिसम्बर २०१०

जर्मन अखबारों में जहां एक तरफ दक्षिण एशिया में बढ़ती हथियारों की होड़ की चर्चा है, वहीं कुछ अखबार अब भी भारत के 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले और उसके संभावित प्रभावों पर लिख रहे हैं. तालिबान की भी चर्चा.

भारत की ब्रह्मोस मिसाइलतस्वीर: AP

दक्षिणी एशिया में पारंपरिक और परमाणु हथियारों की होड़ चल रही है. इसका असर ईरान और चीन पर भी पड़ रहा है. ज्यूरिख के नोए ज्युरिखर त्साइटुंग का कहना है कि जब अमेरिका और यूरोपीय संघ ईरान को राजनीतिक दबाव और कड़े प्रतिबंधों के साथ परमाणु बम बनाने से रोकना चाहते हैं, तो पाकिस्तान को पश्चिम से इस तरह की प्रतिक्रियाओं से डरने की जरूरत नहीं है.

वैसे इस्लामाबाद अभी से ज्यादा परमाणु हथियार पाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. पाकिस्तान का प्रतिद्वंद्वी भारत भी अपने हथियारों का आधुनिकीकरण कर रहा है. उदाहरण के लिए परमाणु पनडुब्बियों के साथ. भारत और पाकिस्तान, दोनों ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. यदि हम ईरान के साथ, इस्राएल और भारत, इन तीन अनौपचारिक परमाणु शक्तियों को देखते हैं, तब मध्य सागर से लेकर हिमालाय तक हथियारों की होड़ देखने को मिलेगी. स्पष्ट रूप से हम कह सकते हैं कि यह दुनिया का सबसे खतरनाक क्षेत्र हैं, जिस के पूर्वी कोने में भारत और चीन भी एक दूसरे पर नजर रखे हुए हैं.

दागदार होता दामन

म्यूनिख से प्रकाशित जर्मनी के प्रमुख दैनिक ज्युड डॉयचे त्साइटुंग का कहना है कि भारत उफनने लगा है. एक तरफ देश में लगभग 9 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि हो रही है, तो दूसरी तरफ देश के भीतर राजनीतिक विवाद बढ़ रहे हैं. हाल ही में मोबाइल फोन लाइसेंसों को गैर कानूनी तरीके से बांटने के घोटाले की वजह से सरकार पर भी दबाव बढ़ रहा है क्योंकि उसने करीब 30 अरब यूरो यानी करीब 180 अरब रुपए खैरात बांट कर बर्बाद किए हैं.

साफ सुथरी छवि को बचाने की चुनौतीतस्वीर: AP

अखबार का कहना है कि पहली बार एक ऐसे क्षेत्र पर आरोप लग रहे है जो आज तक आर्थिक जादू नगरी भारत में आदर्श क्षेत्र माना जा रहा था. आईटी और टेलीकम्यूनिकेशन के क्षेत्र की स्थापना 1990 के दशक में किए गए सुधारों के बाद हुई थी और अब उसी पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं. वैसे सिर्फ राजनीतिज्ञों का इस घोटाले में कसूर नहीं है. जिन कंपनियों ने पैसा दिया और जिन्होंने गैर कानूनी तरीके से लाइसेंस पाने के खेल में भाग लिया, उन्हें भी दोषी मानना जरूरी है. इस पूरे मामले से नुकसान बहुत हुआ है.

एक तरफ टैक्स के हवाले से कई अरब रुपयों का नुकसान हुआ है. दूसरी ओर पूरे देश और एक प्रतिष्ठित क्षेत्र की इज्जत को ठेस पहुंची है. लेकिन भारत को आर्थिक विकास के रास्ते पर लाने वाले एक विशेष व्यक्ति पर भी सवाल उठ रहे हैं जिन पर आज तक कभी भी किसी तरह के आरोप नहीं लगे थे. और वह हैं भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह. बात भारत के भीतर हो भारत से बाहर, हर कोई भारत के लोकतंत्र की प्रशंसा करता था. लोकतंत्र की वजह से ही बहुत सारे आर्थिक विशेषज्ञों की राय में चीन के मुकाबले भारत को लाभ मिलता रहा है है. लेकिन भारत के लोकतंत्र को भी आर्थिक मंदी के दौर में अपनी मजबूती साबित करनी होगी.

लीक से हट कर

भारत की मशहूर लेखिका और कार्यकर्ता अरुंधती रॉय की भारत में सार्वजनिक मंच पर वापसी हो रही है. यह मानना है बर्लिन के दैनिक टागेसत्साइटुंग का. अखबार का कहना है कि वह इसलिए लोकप्रिय है कि उन्होंने इस साल के बडे़ मुद्दों पर अपनी राय दी है और लोगों को उकसाया. इसकी वजह से अब उनके आलोचक भी उनकी इज्जत करने लगे हैं. और इसी की वजह से अब उनके खिलाफ कानूनी कदम भी उठाए जा रहे हैं.

अखबार का कहना है कि रॉय ने कई बार यह लिखा था कि माओवादी आतंकवादी नहीं हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कई माओवादी आदिवासी हैं और उनके पास अपनी संस्कृति की रक्षा करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हैं. ऐसा कहने के कारण रॉय को अब अचानक कई नरम विचार वाले लोगों का भी समर्थन मिल रहा है. अब सरकार ने माओवादियों के कब्जे वाले इलाकों को सामाजिक और आर्थिक तौर पर सहायता देने का फैसला किया जबकि उसके पास अब तक सिर्फ सैनिक रणनीति थी. इस बदलाव के पीछे रॉय के भाषणों का भी असर हो सकता है क्योंकि वह उन विषायों को उठाती रही हैं जिन पर भारत में बात करने से जनमत हिचकता है.

उबलते कश्मीर में अरुंधती के बयान नई चिंगारी फूंकते हैंतस्वीर: AP

रॉय का दूसरा बड़ा मु्द्दा है कश्मीर. वहां अप्रैल से मध्य पूर्व की तरह इंतिफादा से प्रेरणा लिए युवाओं का अभियान बढ़ रहा है. किसी ने उन बातों को कहने की हिम्मत नहीं की जिन बातों को रॉय ने कहने की हिम्मत की. उन्होंने कहा कि कश्मीर देश का एक ऐसा इलाका है जिसकी राष्ट्रीय सदस्यता विवादित है. उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीरी ऐसी आजादी चाहते हैं जो उस आजादी से अलग है जो भारत उन्हें पेश कर रहा है. ऐसा कहने की वजह से अरुंधति रॉय पर लोगों को भड़काने का आरोप लगा है.

आसिया का इंतजार

पाकिस्तान में ईसाई महिला असिया नोरीन की किस्मत का फैसला अब तक नहीं हुआ है. उन्हें पैगंबर मुहम्मद का कथित मजाक उड़ाने के लिए मौत की सजा मिली है. इस कड़े फैसले को लेकर दुनिया भर में प्रदर्शन किए गए. म्यूनिख के ज्युड डॉयचे त्साइटुंग ने अपने लेख को शीर्षक दिया "जरदारी का कट्टरपंथियों से डर".

अखबार आगे लिखता है कि वास्तव में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी असिया को माफ करना चाह रहे थे और एक ही हस्ताक्षर के साथ अपने देश पर लगे सभी आरोपों को खारिज करना चाहते थे. यह कहना है जरदारी के करीबियों का. लेकिन फिर जरदारी ने अपने इस फैसले को कुछ दिनों के लिए टाल दिया. वजह यह है कि देश के भीतर पूरे मामले को लेकर प्रदर्शन होने लगे थे. इसलिए जरदारी भी अपना फैसला सुनाने का इंतजार कर रहे हैं.

उधर असिया नोरीन के पति देश के भीतर राजनीतिक समर्थन और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी समर्थन के बावजूद अपनी पत्नी की जिंदगी को लेकर चिंतित हैं. साथ ही वह पूरे परिवार की सुरक्षा पर भी चिंता कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने एक अखबार को बताया कि कट्टरपंथियों ने उनकी बेटियों को धमकी दी है.

कहां है अमन की रोशनी

पाकिस्तान के लेखक अहमद रशीद की किताबें अफगानिस्तान में हो रहे युद्द और उसके कारणों को सर्वश्रेष्ट तरीके से पेश करती हैं. शायद इसलिए भी क्योंकि अफगानिस्तान का युद्ध हमेशा से पाकिस्तान का युद्ध भी रहा है. यह मानना है बर्लिन के अखबार टागेसत्साइटुंग का.

तस्वीर: picture alliance/dpa

अखबार लिखता है कि रशीद अपनी किताबों में हितों, माध्यमों और कमियों की बात करते हैं. वह बताते हैं कि कैसे पश्चिमी ताकतों ने तालिबान को बढ़ने दिया. उन्होंने उनकी कैसे मदद की और कैसे वे उनको खत्म करने में भी बाधा बन रहे हैं. लगातार वह पाकिस्तान की इस पूरे विवाद में विवादास्पद भूमिका पर भी जोर दे रहे हैं जिसकी खुफिया सेवा आईएसआई तालिबान को समर्थन जारी रखे हुए है. रशीद अफगानिस्तान में हस्तक्षेप के पक्षधर हैं. उनके लिए सवाल यह नहीं है है कि ऐसा हो या न बल्कि यह है कि पश्चिमी देश कैसे हस्तक्षेप करें.

जिसने भी रशीद की किताबों के जरिए जाना है कि तालिबान के शासनकाल और उनके आतंक की वजह से अफगानिस्तान और पाकिस्तान में लोगों पर क्या बीती है और बीत रही है, उसे आसानी से यह भी समझ में आएगा कि जर्मन सेना के अफगानिस्तान छोड़ने से जर्मनों की भावना को राहत मिल सकती है, लेकिन पूरे इलाके की स्थिति कतई बेहतर नहीं होगी.

संकलनः प्रिया एसेलबोर्न

संपादनः ए कुमार

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