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"हमला हुआ तो अफगानिस्तान पाक के साथ"

२३ अक्टूबर २०११

अमेरिका और पाकिस्तान के बीच अगर जंग हुई तो अफगानिस्तान पड़ोसी धर्म निभाएगा और पाकिस्तान का साथ देगा. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई का यह बयान अमेरिका की अफगान नीति की विफलता का भी संकेत हो सकता है.

तस्वीर: AP

अफगानी राष्ट्रपति का यह बयान ऐसे वक्त में आया है जब लाखों की संख्या में अमेरिकी फौजी अफगानिस्तान की जमीन पर मौजूद है. ज्यादा वक्त नहीं बीता, अभी पिछले हफ्ते ही अमेरिकी विदेश मंत्री की अफगानिस्तान यात्रा के दौरान करजई उन आतंकवादियों को पनाह देने के लिए पाकिस्तान पर आरोप लगा रहे थे जो उनके देश में हमले कर रहे हैं. पाकिस्तान और अमेरिका के बीच जंग होगी ऐसी कोई आशंका नहीं दिखती. लेकिन करजई का कहना है कि अगर पाकिस्तान पर हमला हुआ और उनसे मदद मांगी गई तो वह पाकिस्तानियों का साथ देंगे.

तस्वीर: picture alliance/Ton Koene

करजई के इस बयान ने विश्लेषकों की इस आशंका को मजबूत कर दिया है कि अमेरिका की अफगानिस्तान नीति अब तक नाकाम ही रही है. दशक भर से चल रही अफगान जंग के लिए अमेरिका भले ही "जंग, बातचीत, निर्माण" की बात करता रहा हो, लेकिन विश्लेषक सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह नीति बुनियादी रूप से विरोधाभासी है. या फिर जान बूझ कर जंग को तेज किया जा रहा है ताकि तालिबान को बातचीत की मेज पर लाया जा सके. नाटो की सेना 2014 में वापस लौटने का एलान कर चुकी है. ऐसे में यह बहुत जरूरी होता जा रहा है कि अफगानिस्तान में कोई ऐसी व्यवस्था कायम हो सके जिससे वहां शांति और स्थिरता आए. अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन यह मान चुकी हैं कि अमेरिकी अधिकारियों ने हक्कानी नेटवर्क से मुलाकात की है.

अमेरिकी नीति का विरोधाभास

हक्कानी नेटवर्क फिलहाल अफगानिस्तान में अमेरिका के दुश्मनों का सबसे बड़ा गुट है. अमेरिका हक्कानी नेटवर्क पर काबुल में उसके दूतावास पर हुए हमले और उसे 19 घंटे तक बंधक बना कर रखने के लिए आरोप लगाता है. हाल ही में क्लिंटन के पाकिस्तान दौरे के दौरान भी उनके बयानों में अमेरिकी नीति का विरोधाभास जाहिर हुआ. क्लिंटन ने कहा कि अमेरिका जमीन पर जंग को जारी रखने की योजना बना रहा है. साथ ही आतंकवादियों से बातचीत की भी कोशिश जारी रहेगी.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

हिलेरी ने कहा, "निश्चित रूप से मैं मानूंगी कि क्षेत्र में क्या कुछ किया जाना चाहिए. इस पर जब हम विचार करते हैं तो यह विरोधाभास नजर आता है. बीते कई सालों से हमारा अनुभव रहा है कि है तो दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन यहां दोनों काम एक साथ करने होंगे. कुछ लोगों को बातचीत के लिए तैयार करना होगा और जो लोग शांति के विरोधी हैं, उन्हें मिटाना होगा."

सवाल यह है कि क्या यह नीति काम करेगी. इस पर ज्यादातर जानकार ना में ही सिर हिलाते हैं. उनका मानना है कि 10 साल से जंग चली आ रही है लेकिन अमेरिका के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि यह कब खत्म होगी. अफगानिस्तान एनालिस्ट्स नेटवर्क से जुड़े थॉमस रटिंग कहते हैं, "हिलेरी के बयान में मुझे जो महत्वपूर्ण बात लगी वो यह है कि उन्होंने आतंकवादियों के साथ किसी राजनीतिक समझौते से इनकार नहीं किया. मुझे लगता है कि यह एक सही कदम होगा." रटिंग मानते है कि बातचीत के लिए कोशिश की जानी चाहिए पर वह इससे सहमत नहीं कि बम बरसा कर तालिबानियों को बातचीत की मेज पर लाया जा सकेगा. उनका कहना है, "मैं नहीं मानता कि तालिबान को हरा कर और कमजोर कर बातचीत की मेज पर लाया जा सकता है, मेरा ख्याल है कि ऐसा करने से वे और भड़केंगे."

तस्वीर: ap

कैसे पाएं पार

इससे पहले अफगानिस्तान में शांति की कोशिशों को तब बड़ा झटका लगा जब एक तालिबानी आतंकवादी ने अपनी पगड़ी में बम छिपा कर पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की हत्या कर दी. रब्बानी अफगान सरकार की तरफ से तालिबान से बातचीत की कोशिश में जुटे थे. अफगान और अमेरिकी फौजें हक्कानी नेटवर्क और तालिबान की कमर तोड़ने के लिए पूर्वी अफगानिस्तान की तरफ बड़े अभियानों में जुटी हैं. क्लिंटन ने पाकिस्तान से कहा है कि वह अपनी तरफ से सरहदी इलाकों में दबाव बढ़ाए.

नाटो के नेतृत्व वाली फौज और संयुक्त राष्ट्र अफगानिस्तान में हिंसा के बारे में अलग अलग आंकड़े दे रहे हैं. ऐसे में यह बता पाना मुश्किल है कि यहां सैन्य कार्रवाइयों से मनचाहे नतीजे आ रहे हैं कि नहीं. हक्कानी नेटवर्क के साथ पाकिस्तान ने बातचीत का इंतजाम कराया और वह नेटवर्क के खिलाफ कार्रवाई करने से इंकार कर रहा है.

इलाके के कुछ लोगों का मनना है कि अमेरिकी ये जानते हैं कि इस जंग को कैसे खत्म करना है जिसने हजारों लोगों की जान ली है और अब तक खिंची चली आ रही है, जबकि 2001 में ही तालिबानियों को सत्ता से बेदखल करने का दावा किया गया. इस्लामाबाद के सेंटर फॉर रिसर्च एंड सिक्योरिटी स्ट्डीज के कार्यकारी निदेशक इम्तियाज गुल कहते हैं, "वे बस टुकड़े जमा कर रहे हैं. इस समस्या ने लंबे समय की नीतियों पर चलना ओबामा या किसी भी राष्ट्रपति के लिए बेहद मुश्किल कर दिया है."

रटिंग का कहना है, "तालिबान एक बहुलवादी अफगानिस्तान के विचार को स्वीकार नहीं करेंगे और हमें इसके बारे में सोचना होगा." उनकी राय है कि अघोषित युद्धविराम के जरिए उनकी प्रतिक्रिया जानी जा सकती है. रटिंग का कहते हैं कि अमेरिका को तालिबान को नीचा दिखाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए.

रिपोर्टः एएफपी/एन रंजन

संपादनः वी कुमार

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