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हम एक बीमार समाज हैं

ईशा भाटिया२१ नवम्बर २०१४

दिल्ली यूनिवर्सिटी की भावना 21 साल की थी. उसने खुद अपना जीवनसाथी चुना था. यह एक ऐसी गलती थी जिसके लिए उसे एक ही सजा दी जा सकती थी: सजा ए मौत! एक बीमार समाज ही ऐसी सजा दे सकता है, कहना है ईशा भाटिया का.

तस्वीर: picture alliance/AP Photo

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में हर साल होने वाले 5,000 ऑनर किलिंग के मामलों में से 1,000 भारत के होते हैं. यह वे मामले हैं जिन्हें दर्ज किया गया है, असली संख्या का किसी को पता नहीं. ऑनर किलिंग यानि (खानदान की) इज्जत के लिए की गयी हत्या. यह कौन सी 'इज्जत' है जो अपने ही बच्चे की जान लेने पर मजबूर कर देती है? यह कौन सा समाज है जिसकी 'इज्जत' हत्या कर के बढ़ या बच जाती है?

कानून की नजरों में बालिग व्यक्ति उसे कहते हैं जिसे अपने फैसले लेने का अधिकार है. अधिकतर देशों में यह उम्र 18 तय की गयी है. कानूनी रूप से 18 के होने के बाद आप अपनी जिम्मेदारी संभाल सकते हैं, ड्राइविंग लाइसेंस ले सकते हैं, आप सरकार तक चुन सकते हैं और आप शादी भी कर सकते हैं, खुद, अपनी मर्जी से. लेकिन ऐसा कानून की नजरों में हैं, समाज की नहीं. समाज में 'इज्जत' से रहना है तो मां बाप की मर्जी से शादी करनी होगी. भावना बालिग थी. कानून की नजरों में उसकी शादी जायज थी. लेकिन मां बाप की नजरों में?

तस्वीर: DW/P. Henriksen

भावना दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी. वही दिल्ली यूनिवर्सिटी जहां आपको हर कहीं स्टूडेंट्स का झुंड सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर चर्चा करता नजर आ जाएगा. वही दिल्ली यूनिवर्सिटी जहां से भारत को कई राजदूत और नेता मिले हैं. इस दिल्ली यूनिवर्सिटी में समाज के हर तबके से छात्र पढ़ने आते हैं. बहुत से ऐसे भी होते हैं जिनके लिए यह अपनी सामाजिक स्थिति और सोच बदलने का मौका होता है. लेकिन भावना का मामला दिखाता है कि सोच बदलना कितना जोखिम भरा हो सकता है. यानि यूनिवर्सिटी जाओ, किताबें पढ़ो, नई नई बातें सीखो, लेकिन घर में घुसने से पहले दहलीज पर उन्हें छोड़ आओ.

पूरे देश में ऐसी हजारों भावना हैं. हां, हर किसी की जान नहीं ली जाती. आखिर हर माता पिता इतने पत्थर दिल भी नहीं कि अपनी ही बच्ची का गला घोंट दें या उसे जिंदा जला दें. कुछ ऐसे नर्म दिल भी हैं जो बस मान लेते हैं कि अबसे हमारी औलाद हमारे लिए मर गयी. जायदाद से, खानदान से हर तरह से बेदखल करना इनके लिए काफी होता है. इसके बाद एक और तरह के माता पिता हैं, जो ऐसा कुछ भी नहीं करते. बस शादी से इंकार कर देते हैं, बच्चों के आंसुओं से मुंह फेर लेते हैं, उन्हें जज्बाती रूप से ब्लैकमेल कर 'इज्जत' भरे खानदान में उनकी शादी करा देते हैं. ध्यान रहे, ये शादियां जबरन नहीं होती हैं, इसलिए इनके कोई आंकड़े मौजूद नहीं. लेकिन अपने आसपास देखेंगे तो शायद हर दूसरा मामला ऐसा दिख जाएगा.

शारीरिक हो या मानसिक, किसी भी तरह का नुकसान पहुंचाना आपराधिक है. अफसोस की बात है कि हमारा समाज इसे ले कर संवेदनशील नहीं है. 'इज्जत' के नाम पर ये अपराध होते आए हैं और होते चले जा रहे हैं. और जिस क्रूरता के साथ ये किए जाते हैं वे किसी बीमार दिमाग की उपज लगते हैं. इसलिए इन्हें देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि हम एक बीमार समाज हैं, और हमें जल्द से जल्द इलाज की जरूरत है.

ब्लॉग: ईशा भाटिया

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