दिल्ली यूनिवर्सिटी की भावना 21 साल की थी. उसने खुद अपना जीवनसाथी चुना था. यह एक ऐसी गलती थी जिसके लिए उसे एक ही सजा दी जा सकती थी: सजा ए मौत! एक बीमार समाज ही ऐसी सजा दे सकता है, कहना है ईशा भाटिया का.
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संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में हर साल होने वाले 5,000 ऑनर किलिंग के मामलों में से 1,000 भारत के होते हैं. यह वे मामले हैं जिन्हें दर्ज किया गया है, असली संख्या का किसी को पता नहीं. ऑनर किलिंग यानि (खानदान की) इज्जत के लिए की गयी हत्या. यह कौन सी 'इज्जत' है जो अपने ही बच्चे की जान लेने पर मजबूर कर देती है? यह कौन सा समाज है जिसकी 'इज्जत' हत्या कर के बढ़ या बच जाती है?
कानून की नजरों में बालिग व्यक्ति उसे कहते हैं जिसे अपने फैसले लेने का अधिकार है. अधिकतर देशों में यह उम्र 18 तय की गयी है. कानूनी रूप से 18 के होने के बाद आप अपनी जिम्मेदारी संभाल सकते हैं, ड्राइविंग लाइसेंस ले सकते हैं, आप सरकार तक चुन सकते हैं और आप शादी भी कर सकते हैं, खुद, अपनी मर्जी से. लेकिन ऐसा कानून की नजरों में हैं, समाज की नहीं. समाज में 'इज्जत' से रहना है तो मां बाप की मर्जी से शादी करनी होगी. भावना बालिग थी. कानून की नजरों में उसकी शादी जायज थी. लेकिन मां बाप की नजरों में?
भावना दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी. वही दिल्ली यूनिवर्सिटी जहां आपको हर कहीं स्टूडेंट्स का झुंड सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर चर्चा करता नजर आ जाएगा. वही दिल्ली यूनिवर्सिटी जहां से भारत को कई राजदूत और नेता मिले हैं. इस दिल्ली यूनिवर्सिटी में समाज के हर तबके से छात्र पढ़ने आते हैं. बहुत से ऐसे भी होते हैं जिनके लिए यह अपनी सामाजिक स्थिति और सोच बदलने का मौका होता है. लेकिन भावना का मामला दिखाता है कि सोच बदलना कितना जोखिम भरा हो सकता है. यानि यूनिवर्सिटी जाओ, किताबें पढ़ो, नई नई बातें सीखो, लेकिन घर में घुसने से पहले दहलीज पर उन्हें छोड़ आओ.
पूरे देश में ऐसी हजारों भावना हैं. हां, हर किसी की जान नहीं ली जाती. आखिर हर माता पिता इतने पत्थर दिल भी नहीं कि अपनी ही बच्ची का गला घोंट दें या उसे जिंदा जला दें. कुछ ऐसे नर्म दिल भी हैं जो बस मान लेते हैं कि अबसे हमारी औलाद हमारे लिए मर गयी. जायदाद से, खानदान से हर तरह से बेदखल करना इनके लिए काफी होता है. इसके बाद एक और तरह के माता पिता हैं, जो ऐसा कुछ भी नहीं करते. बस शादी से इंकार कर देते हैं, बच्चों के आंसुओं से मुंह फेर लेते हैं, उन्हें जज्बाती रूप से ब्लैकमेल कर 'इज्जत' भरे खानदान में उनकी शादी करा देते हैं. ध्यान रहे, ये शादियां जबरन नहीं होती हैं, इसलिए इनके कोई आंकड़े मौजूद नहीं. लेकिन अपने आसपास देखेंगे तो शायद हर दूसरा मामला ऐसा दिख जाएगा.
शारीरिक हो या मानसिक, किसी भी तरह का नुकसान पहुंचाना आपराधिक है. अफसोस की बात है कि हमारा समाज इसे ले कर संवेदनशील नहीं है. 'इज्जत' के नाम पर ये अपराध होते आए हैं और होते चले जा रहे हैं. और जिस क्रूरता के साथ ये किए जाते हैं वे किसी बीमार दिमाग की उपज लगते हैं. इसलिए इन्हें देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि हम एक बीमार समाज हैं, और हमें जल्द से जल्द इलाज की जरूरत है.
ब्लॉग: ईशा भाटिया
क्यों होते हैं बलात्कार?
भारत में रोजाना औसतन 92 महिलाओं का बलात्कार होता है. जब भी किसी महिला के साथ यह जघन्य अपराध होता है, कभी सवाल उसके कपड़ों तो कभी देर रात घर से बाहर रहने पर उठाए जाते हैं. क्या महिलाओं पर बंदिशें लगाना ही है उपाय?
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तन ढकने की जरूरत
मानव सभ्यता की शुरुआत से ही मौसम की मार से बचने के लिए शरीर को ढकने की जरूरत महसूस की गई. बीतते समय के साथ जानवरों की छाल पहनने से लेकर आज इतने तरह के कपड़े मौजूद हैं. जीवनशैली के आसान होने के साथ साथ कपड़ों के ढंग भी बदले हैं और अब यह अवसर, माहौल, पसंद और फैशन के हिसाब से पहने जाते हैं. फिर पूरे बदन को ढकने वाले कपड़ों पर जोर क्यों?
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अंग प्रदर्शन यानि बलात्कारियों को न्यौता
भारत में बलात्कार के ज्यादातर मामलों में पाया गया है कि पीड़िता ने सलवार कमीज और साड़ी जैसे भारतीय कपड़े पहने हुए थे. उनपर हमला करने वाले पुरुषों ने अपनी सेक्स की भूख के कारण संतुलन खो दिया. ऑनर किलिंग के कई मामलों में किसी महिला को सबक सिखाने के मकसद से उस पर जबरन यौन हिंसा की गई और फिर जान से मार डाला गया. इन सबके बीच कपड़ों पर तो किसी का ध्यान नहीं गया.
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कानून का डर नहीं
संयुक्त राष्ट्र ने 2013 में एशिया प्रशांत क्षेत्र में किए अपने सर्वे में पाया गया कि सर्वे में शामिल हर चार में एक पुरुष ने अपने जीवन में कम से कम एक बार किसी महिला का बलात्कार किया है. इनमें से 72 से लेकर 97 फीसदी मामलों में इन पुरुषों को किसी कानूनी कार्यवाई का सामना नहीं करना पड़ा था.
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मनोरंजन का साधन हैं यौन अपराध
उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ इतने ज्यादा यौन अपराधों का कारण प्रदेश की पुलिस ने वहां मोबाइल फोनों के बढ़ते इस्तेमाल, पश्चिमी देशों के बुरे असर और छोटे कपड़ों को ठहराया. लोगों को सुरक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी में पूरी तरह विफल पुलिस का कहना है कि मनोरंजन के बहुत कम साधन होने के कारण पुरुष यौन अपराधों को अंजाम देने लगते हैं.
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महिलाओं से मिल रही है चुनौती
सड़कों, ऑफिसों या किसी सार्वजनिक स्थान पर कई बार महिलाओं के कपड़े नहीं बल्कि उनके चेहरे से झलकता आत्मविश्वास, स्वच्छंद रवैया और अब तक पुरुषों के कब्जे में रहे कई क्षेत्रों में उनकी पहुंच कई पुरुषों को बौखला रही है. सदियों से स्थापित पुरुषसत्तात्मक समाज के समर्थक ऐसी औरतों को सामाजिक संतुलन को बिगाड़ने का जिम्मेदार मानते हैं और यौन हिंसा कर उन्हें समाज में उनकी सही जगह दिखाने की कोशिश करते हैं.
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महिलाओं को ज्यादा बड़ा खतरा किससे
दुनिया के सबसे युवा देश में आज बलात्कार महिलाओं के खिलाफ चौथा सबसे बड़ा अपराध बन चुका है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की 2013 रिपोर्ट बताती है कि साल दर साल दर्ज होने वाले इन करीब 98 फीसदी मामलों में बलात्कारी पीड़ित का जानने वाला था. ज्यादातर मामले जो प्रकाश में आते हैं वे सार्वजनिक जगहों पर अनजान लोगों द्वारा किए गए होते हैं जिस कारण इस सच्चाई पर ध्यान नहीं जाता.
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एक कदम आगे, दो कदम पीछे
एक ओर पहले के मुकाबले ज्यादा लड़कियां पढ़लिख रही हैं और कार्यक्षेत्र में पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. दूसरी ओर इस कारण वे शादी और बच्चे देर से पैदा कर रही हैं. भारत में शादी के पहले शारीरिक संबंध बनाने के मामले समाज के लिए असहनीय और खतरा बताए जाते हैं. इस कारण बहुत से युवा पुरुष को अपनी यौन इच्छा पूरी करने का कोई स्वस्थ तरीका नहीं मिलता और कई बार यही यौन हिंसा का कारण बनता है.
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हिंसा का चक्र गर्भ से ही शुरु
भारत में अजन्मे बच्चे की लिंग जांच कर मादा भ्रूण को गर्भ में ही मार देने की घटनाएं आम हैं. जो लड़कियां जन्म ले पाती हैं वे संख्या में इतनी कम हैं कि समाज का संतुलन बिगड़ गया है. स्त्री-पुरुष अनुपात के मामले में भारत 1970 से भी नीचे आ गया है. इसके अलावा बाल विवाह, कम उम्र में मां बनना, प्रसव से जुड़ी मौतें और घरेलू हिंसा के लिए भी क्या छोटे कपड़ों को ही जिम्मेदार मानेंगे.