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हर घर से निकली मलाला

१२ जुलाई २०१३

तालिबान ने जब मलाला यूसुफजई के सिर में गोली उतारी, तो संदेश साफ था कि इलाके की लड़िकयां स्कूल न जाएं. तालिबान फेल हो गया, स्वात में पहले से कहीं ज्यादा लड़कियां स्कूल जाने लगीं.

तस्वीर: picture alliance / dpa

पाकिस्तान की स्वात घाटी में अब उन लड़कियों की संख्या कहीं ज्यादा हो गई है, जो रोजाना स्कूल जाती हैं. तालिबान ने मलाला को इसलिए गोली मारी थी कि वह लड़कियों के स्कूल जाने की हिमायत कर रही थी. जिस वक्त उस पर हमला हुआ, वह सिर्फ 15 साल की थी और स्कूली शिक्षा को लेकर संजीदा बातें किया करती थी.

अब वह 16 की हो रही है और इस मौके पर संयुक्त राष्ट्र में अपना भाषण देने वाली है. इलाज के बाद पहली बार वह किसी सार्वजनिक स्थान पर नजर आएगी. उधर, पाकिस्तान के शिक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि मलाला इस मामले में अहम पड़ाव जरूर रही लेकिन वैसे भी देश के अंदर स्थिति बदल रही है और तालिबान कमजोर पड़ता जा रहा है.

स्वात के मिनोरगा शहर में लड़कियों का सबसे पुराना स्कूल है सरकारी गर्ल्स हाई स्कूल नंबर 1. इसकी प्रिंसिपल अनवर सुलताना का कहना है, "कई छात्राओं को तो तब डर लगा, जब सरकार ने एक स्कूल का नाम मलाला के नाम पर रख दिया." पिछले साल दिसंबर में करीब 150 छात्राओं ने इसका विरोध किया क्योंकि उन्हें लग रहा था कि इसकी वजह से तालिबान और दूसरे चरमपंथी उन्हें जरूर निशाना बनाएंगे. उन्होंने मलाला की तस्वीर तक हटा दी.

तस्वीर: Reuters

हालांकि सुलताना का कहना है कि अब 2007-2009 के बनिस्बत हालात बदल गए हैं और ज्यादा लड़कियां स्कूल जा रही हैं. उस दौरान इस इलाके में तालिबान का जबरदस्त प्रभाव था और पाकिस्तान सेना को उनके खिलाफ सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी थी.

स्कूल के बरामदे में छात्राओं से घिरी सुलताना ने कहा, "जब भी आप किसी चीज को दबाते हैं, यह ज्यादा जोर से उभरता है. तालिबान ने लड़कियों की पढ़ाई पर पाबंदी लगाई और उन्हें धमकी दी. अब ज्यादा से ज्यादा लड़कियां स्कूल जा रही हैं."

2013 के पहले छह महीने में एक लाख से ज्यादा (102374) लड़कियों ने स्वात की प्राइमरी स्कूल में दाखिला लिया. दिलशाद बीबी ने बताया कि पिछले साल यह संख्या 96,540 थी.

सुलताना जिस स्कूल में पढ़ाती हैं, वहां कोई टेबल कुर्सी भी नहीं. बच्चे जमीन पर बैठ कर पढ़ते हैं. 13 साल की सईदा रहीम भी उनमें से एक है.

तालिबान ने उसे और हजारों लड़कियों को स्कूल जाने से रोका. जब 2009 में सैनिक कार्रवाई हो रही थी तो सईदा को अपने परिवार के साथ स्वात छोड़ कर तीन महीने के लिए भागना भी पड़ा. उन तीन महीनों में वह खूब रोई, पढ़ कर डॉक्टर बनने का सपना टूट चुका था, "वे मेरी जिंदगी के सबसे बुरे दिन थे. मैंने हिम्मत और उम्मीद छोड़ दी थी. मुझे लगा था कि मैं कभी भी दोबारा नहीं पढ़ पाऊंगी."

फिर मलाला की ही तरह उसका परिवार भी लौट आया. उसकी मां ने पहले तो उसे स्कूल भेजने से मना कर दिया लेकिन बाद में मान गई. सईदा कहती है कि मलाला से उसे खूब प्रेरणा मिलती है, "मुझे उसकी बातें सच में बहुत पसंद हैं. मैं उसके काम को आगे बढ़ाना चाहूंगी. मैं भी मीडिया से मुखातिब होना चाहती हूं और मां बाप को इस बात को समझाने की कोशिश करना चाहती हूं कि लड़कियों के लिए पढ़ाई कितनी जरूरी है."

हालांकि यह एक मुश्किल और लंबा रास्ता है. उधर मलाला अपने 16वें जन्मदिन के मौके पर संयुक्त राष्ट्र में भाषण देने वाली है. तालिबान ने पिछले साल अक्तूबर में उस पर जानलेवा हमला किया था, जिसके बाद ब्रिटेन में उसका इलाज हुआ और अब वह ठीक है. डॉक्टरों को उसके सिर में धातु की प्लेट लगानी पड़ी है लेकिन मलाला को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा है. पिछले साल टाइम मैगजीन ने उसे दुनिया के सबसे प्रभावशाली शख्सियतों में गिना था और इस साल वह नोबेल पुरस्कार के लिए नामित है.

एजेए/एनआर (एएफपी)

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