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हांगकांग के मुद्दे पर भारत को आवाज क्यों उठानी चाहिए?

राहुल मिश्र
२९ जून २०२०

पिछले करीब डेढ़ साल से हांगकांग आंतरिक हलचलों और तनाव से जूझ रहा है. हांगकांग के लोकतांत्रिक ढांचे पर आघात और वहां के नागरिकों के मानवाधिकारों के हनन की खबरों ने दुनिया को चिंता में डाल दिया है.

हांगकांग में तनाव
1997 में हांगकांग का नियंत्रण ब्रिटेन से चीन को मिलातस्वीर: Reuters/T. Siu

"वन कंट्री टू सिस्टम" के वादे के साथ 1997 में ब्रिटेन से चीन के अधिकार में आए हांगकांग के नागरिकों ने कभी सोचा नहीं था कि जिन लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों को वे अपनी सामाजिक और राजनीतिकि व्यवस्था का अभिन्न अंग मान रहे थे, उन्हीं को बचाने के लिए उन्हें सड़कों पर आना पड़ जाएगा और इसके लिए इतने लंबे संघर्ष की जरूरत पड़ेगी.

चीन और ब्रिटेन के बीच समझौते और चीन की "वन कंट्री टू सिस्टम" की नीति के तहत हांगकांग को अपना अलग राजनीतिक और न्यायिक तंत्र रखने की छूट मिली थी, साथ ही अपनी मुद्रा, झंडा, और व्यक्तिगत आर्थिक और सामाजिक आजादी भी, लेकिन आज सब कुछ हाथ से फिसलता लग रहा है.

हांगकांग में उथल पुथल क्यों

बद से बदतर होते हालात के बीच चीन की सरकार ने पिछले महीने हांगकांग में एक नया राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने की घोषणा कर दी. 22 मई को चीन की नेशनल पीपल्स कांग्रेस की बैठक में हांगकांग संबंधी बिल पास कर दिया गया जिससे अब कानूनी तौर पर शी जिनपिंग की चीनी सरकार के हाथ में हांगकांग में इच्छानुसार कानूनी बदलाव लाने की क्षमता आ गई है.

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समझा जाता है कि यह कानून जुलाई से लागू हो जाएगा. इस कानून के कई पहलू हैं जो डराने वाले हैं. इनमें सबसे प्रधान तो यही है कि कुछ मुद्दों पर इस कानून को हांगकांग के अपने कानून और नियमों पर वरीयता मिलेगी. इसके साफ मायने हैं लोगों की राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रताओं का सीधा हनन होगा.

सरकार के खिलाफ प्रदर्शनों को कानूनी अपराध से लेकर आतंकवाद और देशद्रोह तक कुछ भी माना जा सकता है. क्या जुर्म तय होगा, यह भी पुलिस और सरकार ही तय करेगी. इस कानून के तहत चीन हांगकांग में एक राष्ट्रीय सुरक्षा आफिस भी बनाएगा. और तो और, इस कानून के तहत हांगकांग के राज्याधिकारी अब यह तय करेंगे कि राष्ट्रीय सुरक्षा के किस केस को कौन सा जज सुने जो कि हांगकांग की स्वतंत्र न्यायपालिका पर एक तुषारापात है.

साफ है, हांगकांग के प्रशासकों ने अपने विवेक का उपयोग करने के बजाय चीन की सरकार के निर्देशों का आंख मूंद कर पालन किया और नतीजतन छोटी-छोटी घटनाओं ने धीरे धीरे जमा होते-होते एक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया. हांगकांग एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका हल अब अकेले हांगकांग के लोग शायद ही कर पाएं. जाशुआ वांग जैसे हांगकांग के युवा नेताओं ने दुनिया भर के देशों, खास तौर पर लोकतांत्रिक देशों से, गुहार लगाई है कि इस संकट की घड़ी में ये देश हांगकांग के नागरिकों की सहायता करें.

लेखक राहुल मिश्र विदेश मामलों के जानकार हैंतस्वीर: Privat

 

ब्रिटेन की बोरिस जॉनसन सरकार ने आश्वासन तो दिया है कि वो हांगकांग से आए लोगों को अपने देश में पनाह देंगे लेकिन इस सुविधा में 1997 के बाद पैदा हुए लोग भी जोड़े जाएंगे या नहीं, यह कहना मुश्किल है.

क्या चाहते हैं हांगकांग के लोग

हांगकांग में उपजे इस संघर्ष की जड़ में है वहां की सरकार का प्रस्तावित प्रत्यर्पण बिल. अक्टूबर 2019 में पेश किए गए इस बिल के कई प्रावधान ऐसे थे जिन्हें लोगों ने नकार दिया और इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच बढ़ते तनाव ने हिंसात्मक रूप ले लिया जिससे प्रदर्शनकारी भी जिद पर अड़ गए. 

जाशुआ वांग और अन्य प्रदर्शनकारियों की कई मांगें  हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:  

1. प्रत्यर्पण बिल को वापस ले लिया जाए.

2. पुलिस के हिंसक और बर्बरतापूर्ण व्यवहार की निष्पक्ष जांच हो दोषियों को दंड दिया जाए.

3. प्रदर्शनकारियों को दंगाई की संज्ञा न दी जाए और उन पर लगे सारे आरोपों को वापस लिया जाए.

4. विधायी परिषद और मुख्य कार्यकारी के चुनाओं में सर्वव्यापक मताधिकार की व्यवस्था की जाए.

बहरहाल, प्रदर्शनकारियों की तमाम मांगों और विरोध प्रदर्शनों को धता बताते हुए हांगकांग की सरकार ने चीन की सरकार के इशारे पर नया कानून लागू करने का निर्णय लिया है जिसके तहत इन तमाम मांगों का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा. 

लोकतांत्रिक देशों ने चीन के इस कदम पर खासा विरोध दर्ज कराया है और कहा है कि यह कानून चीन की "वन कंट्री टू सिस्टम" की नीति के विरुद्ध है और इनसे हांगकांग की स्वायत्तता का हनन होगा.

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भारत क्या कर सकता है

भारत ने इस मुद्दे पर फिलहाल चुप्पी साध रखी है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर भारत को हांगकांग का साथ देना चाहिए. हालांकि भारत ने कभी आधिकारिक तौर पर, अमेरिका और पश्चिमी देशों के रास्ते पर चलते हुए दूसरे देशों में लोकतंत्र को बढ़ावा देने की नीति को समर्थन नहीं किया है, और पंचशील नीति के तहत वह दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देता, लेकिन लोकतंत्र को बढ़ावा देना इसकी विदेशनीति का हिस्सा रहा है.

अगर भारतीय विदेश नीति के इतिहास को कायदे से देखा जाए तो साफ दिखता है कि पिछले 70 सालों में कई बार ऐसे अवसर आए हैं जब भारत के नीति नियामकों ने दूसरे देशों में लोकतंत्र के समर्थन में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं. मिसाल के तौर पर 90 के दशक में म्यांमार के साथ भारत के संबंधों में खासी कड़वाहट इस बात को लेकर बन गई थी कि वहां चुनावों में जीत कर आईं आंग सान सू ची को सेना ने सत्ता देने से इनकार कर दिया था. नेपाल और पाकिस्तान के साथ भी भारत के संबंधों में लोकतंत्र एक बहुत बड़ा कारक रहा है.

हांगकांग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और इस लड़ाई में भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों का साथ उसके लिए बहुत जरूरी है. 

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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