उत्तर प्रदेश के हाथरस में 14 सितंबर को एक दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में कानूनी कार्रवाई को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चल रही सुनवाई से बल मिला है.
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मंगलवार को सुनवाई के बारे में विस्तृत जानकारी सामने आई जिसमें स्पष्ट नजर आ रहा है कि अदालत ने पूरे मामले में पुलिस और प्रशासन की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए हैं. मामले की जांच अब सीबीआई कर रही है लेकिन उसके पहले ही अदालत ने स्वतः ही मामले को संज्ञान में ले लिया था. सबसे पहले तो अदालत ने उत्तर प्रदेश पुलिस को बलात्कार की संभावना को नकारने के लिए फटकारा.
पीड़िता ने मरने से पहले अपने बयान में चार लोगों पर उसके साथ सामूहिक बलात्कार और मारपीट का आरोप लगाया था, लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने कहा था कि किसी भी मेडिकल रिपोर्ट में वीर्य के ना मिलने से बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई है. मीडिया में आई खबरों के अनुसार इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पुलिस पर बरसते हुए कहा, "आपको कैसे मालूम कि पीड़िता का बलात्कार नहीं हुआ? क्या जांच पूरी हो गई है? कृपया 2013 में बने बलात्कार के नए कानून को पढ़ें."
2013 में कानून में संशोधन करके बलात्कार के पुष्टि के लिए वीर्य के मिलने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया था. यह भी प्रावधान जोड़ा गया था कि बलात्कार का आरोप दर्ज करने के लिए पीड़िता का बयान काफी है और उसे झूठा साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी और बचाव पक्ष पर होगी. हाई कोर्ट ने पुलिस को पीड़िता के शव का आधी रात को जबरन उसके परिवार की अनुमति के बिना दाह संस्कार करने के लिए भी फटकारा.
कोर्ट ने कहा कि पीड़िता के परिवार की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार उसका दाह संस्कार पीड़िता और उसके परिवार का अधिकार था और पुलिस द्वारा जबरदस्ती किए जाने से उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है. अदालत ने आदेश दिया कि इसके लिए पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही तय की जानी चाहिए. अदालत ने यह भी कहा कि जैसे आरोपियों का जुर्म साबित होने से पहले उन्हें दोषी नहीं माना जा सकता, वैसे ही पीड़िता के चरित्र का हनन करने का भी किसी को अधिकार नहीं है.
पूरे मामले में जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) की जवाबदेही पर भी अदालत ने प्रश्न चिन्ह खड़े किए और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सिर्फ जिला एसपी के खिलाफ कार्रवाई करने की आलोचना की. अदालत ने राज्य सरकार को डीएम के खिलाफ भी कार्रवाई करने और पीड़िता के परिवार को पूरी सुरक्षा देने का आदेश दिया.
इलाहाबाद हाई कोर्ट से फटकार पड़ने के बाद, बुधवार को उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की कि सर्वोच्च अदालत खुद सीबीआई की जांच की निगरानी करे. सरकार ने अदालत से यह भी अपील की कि वो सीबीआई को हर पंद्रह दिनों में जांच की स्थिति पर एक रिपोर्ट देने का भी निर्देश दे. इस अपील पर सुप्रीम कोर्ट में गुरूवार को सुनवाई होगी.
दलितों के खिलाफ अपराध के 94 प्रतिशत मामले रह जाते हैं लंबित
एनसीआरबी के ताजा आंकड़े दिखाते हैं कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध बढ़ते जा रहे हैं. उस से भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि उन्हें न्याय भी नहीं मिलता. अधिकतर मामले अदालतों में लंबित ही रह जाते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky
बढ़ रहे हैं अपराध
देश में 2019 में अनुसूचित जातियों के लोगों के खिलाफ 45,935 अपराध हुए, जो 2018 में हुए अपराधों के मुकाबले 7.3 प्रतिशत ज्यादा हैं. इस संख्या का मतलब है दलितों के खिलाफ हर 12 मिनट में एक अपराध होता है. अनुसूचित जनजातियों के लोगों के खिलाफ अपराध में 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
तस्वीर: Francis Mascarenhas/Reuters
सबसे ज्यादा अपराध उत्तर प्रदेश में
राज्यवार देखें, तो 11,829 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश में हालात सबसे गंभीर हैं. एक चौथाई मामले अकेले उत्तर प्रदेश में ही दर्ज हुए. इसके बाद हैं राजस्थान (6,794) और बिहार (6,544). 71 प्रतिशत मामले इन्हीं पांच राज्यों में थे. राज्य की कुल आबादी में अनुसूचित जाती के लोगों की आबादी के अनुपात के लिहाज से, अपराध की दर राजस्थान में सबसे ऊंची पाई गई. उसके बाद नंबर है मध्य प्रदेश और फिर बिहार का.
अनुसूचित जातियों के लोगों के खिलाफ हुए अपराधों में सबसे बड़ा हिस्सा (28.89 प्रतिशत) शारीरिक पीड़ा या अंग-दुर्बलता के रूप में क्षति पहुंचाने के मामलों का है. अनुसूचित जनजातियों के लोगों के खिलाफ हुए अपराधों में भी सबसे बड़ा हिस्सा (20.3 प्रतिशत) क्षति पहुंचाने के मामलों का ही है.
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दलित महिलाओं का बलात्कार
अनुसूचित जातियों के लोगों के खिलाफ हुए अपराधों में 7.59 प्रतिशत मामले बलात्कार के थे. सबसे ज्यादा (554) मामले राजस्थान से थे और उसके बाद उत्तर प्रदेश से. अनुसूचित जनजातियों के लोगों के खिलाफ हुए अपराधों में 13.4 प्रतिशत मामले बलात्कार के थे. सबसे ज्यादा मामले (358) मध्य प्रदेश से थे और उसके बाद छत्तीसगढ़ से. 10.7 प्रतिशत मामले एसटी महिलाओं की मर्यादा के उल्लंघन के इरादे से किए गए हमलों के थे.
पुलिस की कार्रवाई के लिहाज से कुल 28.7 प्रतिशत और सुनवाई के लिहाज से 93.8 प्रतिशत मामले लंबित रह गए. ये आम मामलों के लंबित रहने की दर से ज्यादा है.
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सुनवाई भी नहीं
2019 में अनुसूचित जातियों के लोगों के खिलाफ हुए 204,191 मामलों में सुनवाई होनी थी, लेकिन इनमें से सिर्फ छह प्रतिशत मामलों में सुनवाई पूरी हुई. इनमें से सिर्फ 32 प्रतिशत मामलों में दोषी का अपराध साबित हुआ और 59 प्रतिशत मामलों में आरोपी बरी हो गए.