केन्या में 10 साल पहले वैज्ञानिकों को कुछ जीवाश्म मिले. वैज्ञानिकों को एक दशक तक समझ ही नहीं आया कि हड्डियां कौन से जानवर की है. अंत में वो नतीजा निकला जिसकी कल्पना किसी ने कतई नहीं की थी.
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केन्या में काम कर रहे जीवाश्म विज्ञानियों ने शेर के पुरखों को खोजने का दावा किया है. वैज्ञानिकों के मुताबिक अफ्रीका में सवाना के घास के मैदानों पर 2.3 करोड़ साल पहले शेर की बहुत ही विशाल प्रजाति रहती थी. उस प्रजाति के शेर का वजन करीब 1,500 किलोग्राम तक था. वे आधुनिक दौर के हाथियों के जितने बड़े जानवरों का शिकार करते थे.
ड्यूक और ओहायो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक मैथ्यू बोर्थ्स और नैंसी स्टीवंस ने पुरातन शेरों के जीवाश्मों की जांच के बाद यह जानकारी दी. वैज्ञानिकों ने निचले जबड़े, दांत और अन्य हड्डियों की जांच की. 2.3 करोड़ साल पुराने इस जीव को सिम्बाकुबवा कुतोकअफ्रीका नाम दिया गया है. स्वाहिली भाषा में बड़े अफ्रीकी शेर को सिम्बाकुबवा कहा जाता है.
बोर्थ्स कहते हैं, "बहुत ही बड़े दातों के आधार पर हम कह सकते हैं कि सिम्बाकुबवा बहुत ही खास और विशाल मांसाहरी जीव थे, वे आधुनिक शेर के मुकाबले बहुत बड़े थे, शायद ध्रुवीय भालू से भी बड़े."
रिसर्चरों के मुताबिक पृथ्वी पर मायोसिन काल में मौजूद थे. मायोसिन काल वह समय है जब आदम वानर पृथ्वी पर चलना सीख रहे थे. उसी कालखंड के दौरान स्तनधारी जीव खुद को सुरक्षित रखने में सफल हो सके. क्रमिक विकास के चक्र में सिम्बाकुबवा करीब एक करोड़ साल पहले लुप्त हो गए.
वैज्ञानिकों के केन्या के मेस्वा पुल के पास सिम्बाकुबवा की हड्डियां एक दशक पहले मिलीं. लेकिन लंबे वक्त वैज्ञानिकों को यह पता ही नहीं चला कि ये हड्डियां की जीव की हो सकती हैं. इतने विशाल शेर की तो उन्होंने दूर दूर तक कल्पना भी नहीं की थी.
(वह द्वीप जहां डार्विन ने क्रमिक विकास की पहेली समझी)
गालापागोस द्वीप
1831 में चार्ल्स डार्विन समुद्री यात्रा कर प्रशांत महासागर के गालापागोस द्वीपों पर पहुंचे. यहां से वह कई पौधों और जानवरों के सैम्पल्स अपने साथ ले गए. आज भी यह द्वीप जीव विज्ञानियों के लिए दिलचस्प हैं..
तस्वीर: James Frankham
अकेला उदास जॉर्ज
लोनसम जॉर्ज नाम के इस कछुए की 8 जुलाई 2012 को मृत्यु हो गई. यह पिंटा आइलैंड जायंट टॉरटॉइज प्रजाति का आखिरी कछुआ था. माना जाता है कि इस कछुए ने कई दशक लातिन अमेरिका के पास गालापागोस आरकीपेलागो द्वीप पर अकेले गुजारे जिस कारण वह उदास हो गया. इसीलिए उसका नाम लोनसम जॉर्ज रखा गया.
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जॉर्ज का परिवार
वैज्ञानिकों का मानना है कि अकेले और उदास रहने के कारण जॉर्ज संबंध बनाना नहीं सीख पाया. जॉर्ज को लम्बे समय तक दो मादा कछुओं के साथ रखा गया. करीब एक दशक बाद उसने एक मादा से संबंध बनाए जिससे तेरह अंडे पैदा हुए, लेकिन उन अंडों से बच्चे पैदा नहीं हो सके.
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इंसानों से खतरा
गालापागोस यानी स्पैनिश भाषा में कछुए. 1535 में जब स्पेन के नाविक यहां आए तो कछुओं के कारण ही द्वीप को यह नाम दे दिया. इंसानों के यहां आने के बाद हालात बदल गए. 17वीं शताब्दी से मांस के लिए इनका शिकार किया जाता रहा है. अब इनके लुप्त होने का खतरा बना हुआ है.
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ज्वालामुखीय द्वीप
यहां पहुंच सके. इस इलाके का तेज तापमान इस लावा छिपकली जैसे जीवों के लिए अनुकूल है. ऐसी छिपकलियां खुद को गर्मी से बचाने के लिए जब अपने दो पैर ऊपर उठाती हैं तो ऐसा लगता है जैसे नाच रही हों.
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खतरनाक छिपकली
मरीन इगुआना नाम की ये छिपकलियां दिखने में भले ही खतरनाक लगें, लेकिन ये केवल समुद्री शैवाल ही खाती है. माना जाता है कि इस इलाके में ऐसी लाखों छिपकलियां हैं. लेकिन कछुओं की ही तरह इंसानी गतिविधियों से इन पर भी लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है.
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जॉर्ज के पड़ोसी
इस इलाके में फ्रिगेट बर्ड भी पाए जाते हैं. नर पक्षी मादा का ध्यान खींचने के लिए अपनी गर्दन के नीचे लाल रंग की थैली को फुला लेते हैं, वे पंख फड़फाड़ते हैं और गाते भी हैं.
तस्वीर: James Frankham
बदलाव
एक समय था जब यहां परभक्षी बहुत ही कम हुआ करते थे. इसलिए वन्य जीवन को कोई बड़ा खतरा नहीं था. लेकिन इंसानों के यहां आने से ऐसे जीव भी आए हैं जो इस इलाके के हैं ही नहीं. चूहे अब कछुयों के अंडे खा जाते हैं. पक्षियों को भी अपने खाने का सही इंतजाम करना पड़ता है.
तस्वीर: James Frankham
खूबसूरत फ्लेमिंगो
गुलाबी रंग के खूबसूरत फ्लेमिंगो इस द्वीप की शान बढ़ाते हैं. हर साल ये हजारों पर्यटकों का ध्यान इन द्वीपों की ओर खींचते हैं. ये समुद्री पौधे और झींगे खाते हैं. झीगों से ही इन्हें यह रंग भी मिलता है.
तस्वीर: James Frankham
मिल गया खाना
इस विशाल कछुए को अपना खाना मिल गया है. अधिकतर बकरियां पौधे और घास खा जाती हैं, वह भी जड़ से. इसलिए कछुओं के लिए ठीक से कुछ बचता ही नहीं है. ये जायंट टॉरटोइज सबसे लम्बे समय तक जिंदा रह सकते हैं. अनुकूल परिस्थितियों में ये सौ साल से भी ज्यदा जी सकते हैं.
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बढ़ती आबादी
कछुओं को लुप्त होने वाले जीवों की सूची में रखा गया है. चार्ल्स डार्विन फाउंडेशन के शुरू किए एक कार्यक्रम के तहत कछुओं की संख्या को बढ़ाने में मदद मिली है. 1974 में कछुओं की संख्या केवल तीन हजार थी. अब वह बीस हजार से अधिक हो चुकी है.