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हार के बाद फिर दोराहे पर कांग्रेस

६ मार्च २०१२

भारत के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कांग्रेस पार्टी की करारी हार हुई है. संसदीय चुनावों से पहले कांग्रेस को गिरेबां में झांक कर देखना होगा कि जनता उससे दूर क्यों जा रही है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

तीन साल पहले केंद्र में दोबारा चुन कर आई कांग्रेस पार्टी ने अगले संसदीय चुनावों से दो साल पहले हो रहे महाचुनाव में जमीन बनाने की पूरी कोशिश की. ये चुनाव मनमोहन सिंह की घोटालों में घिरी सरकार की लोकप्रियता का टेस्ट था. नेहरू-गांधी वंश के कुंवर राहुल गांधी को पूरी तरह उत्तर प्रदेश में झोंक दिया गया था, ताकि वह देश के ज्यादातर प्रधानमंत्री देने वाले प्रांत की जमीन से परिचित हो सकें, लोगों की नब्ज पहचान सकें और नेता के रूप में स्थापित हो सकें. प्लान प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग को संसदीय चुनावों से पहले ही भारत की गद्दी सौंपने का था, जो उत्तर प्रदेश के बुरे नतीजों के बाद आसान नहीं होगा.

कहां चूकी कांग्रेस

राजनीति भावनाओं का खेल होती है और मनमोहन सिंह की पार्टी यह खेल हार गई है. देश की सबसे बड़ी पार्टी लोगों को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रही कि वह आर्थिक प्रगति पर जोर देते हुए लोगों के हितों का ध्यान रखेगी. आंकड़े भी यही दिखाते हैं. भारी प्रगति के बावजूद भारत में गरीबी बढ़ी है, नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं और खुद अत्यंत ईमानदार समझे जाने वाले प्रधानमंत्री की सरकार के कुछ मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं.

भ्रष्टाचार का व्यापक विरोधतस्वीर: AP

कांग्रेस की सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर स्पष्ट रुख अपनाने में विफल रही है. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का मुकाबला राजनीतिक तरीके से करने के बदले उसने सरकारी तंत्र का सहारा लिया. आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर या दूसरे मुकदमों में उलझाकर आंदोलन को तोड़ने की कोशिश की. आर्थिक विकास से भारत में एक नया मध्य वर्ग उभरा है जो बेहतर नागरिक समाज की मांग कर रहा है. कांग्रेस इन नई आकांक्षाओं से पुराने तरीके से निबट रही है.

कसौटी पर नाकाम

भारत की एक तिहाई आबादी 20 साल से कम उम्र की है. अगले आठ साल में 32 करोड़ लोग नौकरी की उम्र में पहुंचने वाले हैं. लेकिन इस युवा आबादी का प्रतिनिधित्व ऐसी सरकार कर रही है जिसकी औसत उम्र 60 से ज्यादा है. सरकार का हर महत्वपूर्ण नेता 75 साल की उम्र का है. लगभग हर पार्टी में वंशवाद चल रहा है, और संसद वर्तमान या पुराने नेताओं के बच्चों से भरी है, लेकिन इसके बावजूद सत्तारूढ़ गठबंधन 8 साल के शासन के बावजूद युवा प्रतिभाओं को सामने लाने और जिम्मेदारी देने में विफल रहा है. अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारतीय नेतृत्व की छवि बीमार और बूढ़े लोगों की बन रही है, जो मुश्किलों से तुरंत निबटने में समर्थ नहीं है. आर्थिक और वित्तीय संकट के बाद भारत में निवेश में आई कमी की एक वजह यह भी है.

मनमोहन और थाईलैंड की युवा प्रधानमंत्रीतस्वीर: AP

कांग्रेस की हार का एक कारण यह भी रहा है कि पिछले दिनों में धर्मनिरपेक्ष पार्टी होने की उनकी छवि को खरोंच लगी है. मामला चाहे पिछड़े रह गए मुसलमानों को आरक्षण की सुविधा देने का रहा हो, या सलमान रुश्दी के भारत आने का, उसके कदम चुनाव में लाभ उठाने से प्रेरित रहे हैं. राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कांग्रेस से राष्ट्रीय हितों का ख्याल रखने और क्षेत्रीय और गुटीय आकांक्षाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन पिछले सालों में वह इन पैमानों पर बुरी तरह विफल रही है.

कांग्रेस को आत्ममंथन करने की जरूरत है. नेहरू गांधी परिवार का करिश्मा अब चुनाव जिताने की हालत में नहीं है. यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पार्टी में लोकतंत्र लाने का मौका है. राजनीति में उसने वंशवाद की शुरुआत की थी, अब वह भारतीय राजनीति को आधुनिक बनाने की शुरुआत कर सकता है. दुनिया में भारत का आर्थिक और राजनीतिक महत्व बढ़ा है, लेकिन प्रीमियर लीग में खेलने वाले खिलाड़ियों को सामने लाने की जरूरत है. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को यहीं से शुरुआत करनी होगी.

रिपोर्टः महेश झा

संपादनः ए जमाल

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