अफगानिस्तान में दर्जनों सिपाही, तालिबान के लड़ाके और आम लोग रोज मारे जा रहे हैं, लेकिन हिंसा में कमी देखने को नहीं मिल रही है. विशेषज्ञ कह रहे हैं कि हिंसा की वजह से पहले से कमजोर शांति प्रक्रिया खतरे में आ गई है.
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अमेरिका और तालिबान के बीच संधि पर हस्ताक्षर के सिर्फ दो ही महीनों बाद अफगानिस्तान में हिंसा काबू से बाहर हो रही है. जब संधि पर हस्ताक्षर हुए थे तब अमेरिका ने इसे अफगानिस्तान में वर्षों से चल रहे युद्ध को समाप्त करने का रास्ता बताया था लेकिन विशेषज्ञ अब कह रहे हैं कि बढ़ती हुई हिंसा की वजह से पहले से कमजोर शांति प्रक्रिया खतरे में आ गई है. दर्जनों अफगान सिपाही और तालिबान के लड़ाके रोज मारे जा रहे हैं.
पूरे देश में मारे जाने वाले आम लोगों की संख्या भी बढ़ रही है लेकिन हिंसा में कोई कमी देखने को नहीं मिल रही है. समीक्षकों का कहना है कि तालिबान के लड़ाकों को संधि की शर्तों से और बल मिला है क्योंकि सिर्फ कुछ ही वायदों के बदले उन्हें कई रियायतें मिली हैं. समीक्षकों के अनुसार, इसी वजह से बीते सप्ताहों में उनके हमले बढ़ गए हैं. हालात के बिगड़ने का यह समय भी बहुत बुरा है क्योंकि अफगानिस्तान कोरोना वायरस के कारण फैली महामारी से भी जूझ रहा है.
ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट के एक रिसर्चर ऐश्ले जैक्सन का कहना है कि शांति प्रक्रिया "अभी बेजान नहीं हुई है, लेकिन लाइफ सपोर्ट पर है." उन्होंने कहा, "इसका बस अनुमान ही लगाया जा सकता है कि प्रक्रिया के इस तरह से टूट के बिखर जाने में कितना समय बचा है कि उसमें फिर से जान फूंकना मुमकिन ना हो." एक अफगान अधिकारी ने कहा कि 29 फरवरी को दोहा में संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद तालिबान ने रोज औसत 55 हमले किए हैं.
जबकि संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था का कहना है कि अफगान सिपाहियों द्वारा किए गए हवाई हमलों और गोलाबारी की वजह से इतने बच्चे मारे गए हैं जितने तालिबानियों की वजह से नहीं मारे गए होंगे. समीक्षकों का कहना है कि ये खून-खराबा होना ही था क्योंकि संधि की शर्तें ही कुछ ऐसी थीं जिनके तहत अमेरिका ने तालिबान को बहुत बड़ी रियायतें दे दी थीं. संधि में अमेरिकी सैनिकों को पूरी तरह से अफगानिस्तान से हटा लेने का वादा किया गया था लेकिन तालिबान की तरफ से युद्ध-विराम या हिंसा में कमी के लिए भी कोई प्रतिबद्धता नहीं ली गई.
फाउंडेशन फॉर डिफेंस ऑफ डेमोक्रेसीज में सीनियर फेलो बिल रोज्जिओ के अनुसार, इंसर्जेंट समझौते को एक "कब्जे का अंत करने वाली संधि" के रूप में देखते हैं." वे कहते हैं, "अमेरिका अफगानिस्तान से निकलना चाहता है और उसने तालिबान की सभी शर्तें मान ली हैं." काबुल में रहने वाले सामरिक और सुरक्षा मामलों के जानकार निशंक मोटवानी कहते हैं कि दोहा समझौते ने तालिबान को वैधता और प्रोत्साहन दोनों दे दिया और अब वो समझते हैं कि उन्होंने युद्ध जीत लिया है तो अब वैसे भी लड़ाई बंद करने का कोई कारण नहीं है. उनके मुताबिक, "तालिबान मूल रूप से ये मानते हैं कि वो जीत चुके हैं."
अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के रेजिडेंट स्कॉलर माइकल रुबिन का कहना है, "ये शांति संधि नहीं है, ये सिर्फ एक समझौता है जिससे अमेरिकियों को अफगानिस्तान छोड़ने का मौका मिल सके. और अगर इसके लिए अफगान लोगों को बस के पहियों के नीचे फेंक देना पड़े, तो वो भी सही है." समझौते में राष्ट्रपति अशरफ गनी की तरफ से भी कई वायदों का जिक्र है, जिनमें एकतरफा बंदियों की अदला-बदली भी शामिल है, बावजूद इसके कि अमेरिका और तालिबान के वार्ताकारों ने उनकी सरकार को बाकायदा बातचीत से अलग रखा.
अदला-बदली में गनी तालिबान के 5,000 बंदियों को रिहा करेंगे जिनमें कई ऐसे लड़ाके भी शामिल हैं जिनकी युद्ध-भूमि में वापस जाने की पूरी संभावना है. बदले में तालिबान 1,000 अफगान सुरक्षाकर्मियों को रिहा करेगा. ये अदला-बदली 10 मार्च तक हो जानी थी, जिसके बाद अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति वार्ता शुरू हो जानी थी. तालिबान में एक सूत्र ने बताया कि जब तक बंदी रिहा नहीं हो जाते तब तक उनका हिंसा को कम करने का कोई इरादा नहीं था. उसने फिर से जोर देकर कहा कि जब तक वो नहीं होता तब तक बातचीत नहीं होगी.
शांति वार्ता के लिए चुनी गई अफगान टीम की सदस्य फौजिया कूफी का कहना है कि अफगानिस्तान का राजनीतिक संकट भी एक बाधा है, जिसके तहत गनी के प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने उनकी वैधता को चुनौती दी है. वो कहती हैं, "हम इस राजनीतिक विवाद के अंत का इंतजार कर रहे हैं ताकि बातचीत के दौरान हम संगठित हों." फिलहाल सभी विशेषज्ञ मान रहे हैं कि शांति वार्ता की सफलता के लिए सबसे ज्यादा जरूरी ये है कि दोनों पक्ष बात करते रहें, भले ही लड़ाई चल रही हो, तब भी.
कोरोना संकट के कारण दुनिया के दूसरे संकटों की तरफ इन दिनों का किसी ध्यान नहीं है. जलवायु परिवर्तन, कश्मीर में बंदिशें, लीबिया में जंग, सीरिया में अफरातफरी और अफगानिस्तान का संकट, सभी अपनी जगह कायम हैं.
तस्वीर: DW/ P. Vishwanathan
जलवायु परिवर्तन
पृथ्वी के तापमान में वृद्धि, बेलगाम आर्थिक गतिविधियां, बर्फ पिघलने से समुद्र के जलस्तर में इजाफा, वायु प्रदूषण और प्लास्टिक का बेतहाशा इस्तेमाल हमारे ग्रह के अस्तित्व पर सवाल उठा रहे हैं. वैज्ञानिक बार बार चेतावनी दे चुके हैं कि धरती को बचाने के लिए हमारे पास सीमित ही समय है. एक अध्ययन के अनुसार इंसानी गतिविधियां पृथ्वी को विनाश की तरफ धकेल रही हैं, जिससे नए वायरस और बीमारियां पैदा हो रही हैं.
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डगमगाती अफगान शांति डील
अफगानिस्तान में 18 साल से जारी जंग के खात्मे के लिए हाल में अमेरिका और तालिबान के बीच एक समझौता हुआ. लेकिन कभी कैदियों की अदला बदली पर मतभेद, कभी अलग अलग अफगान धड़ों में असहमति तो कभी रुक रुक कर हो रहे हमलों के कारण समझौते का भविष्य अधर में लटका है. इसके अलावा अफगानिस्तान में लगभग दो हजार आईएस के लड़ाके भी सक्रिय हैं, जो शांति की उम्मीदों के लिए लगातार खतरा हैं.
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भारत पाक तनाव कायम
पुलवामा हमले के बाद से भारत और पाकिस्तान में काफी तनाव है. दोनों देश कोरोना संकट का सामना कर रहे हैं लेकिन सरहद पर उनके तनाव में कोई बदलाव नहीं आया है. भारतीय सेना का दावा है कि मार्च में पाकिस्तान की तरफ से नियंत्रण रेखा पर फायरिंग के चार सौ से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं. पाकिस्तान ने भारत पर इस साल अब तक बिना वजह सात सौ बार फायरिंग का आरोप लगाया है.
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कश्मीर में बंदिशें
जम्मू कश्मीर में पिछले साल अगस्त में धारा 370 को खत्म किए जाने के बाद से ही लॉकडाउन के हालात थे जबकि कोरोना संकट की वजह इसे और भी सख्ती से लागू किया जा रहा है. बंदिशों की वजह से कश्मीर लोगों की आर्थिक कमर पहले से ही टूटी हुई है. सब कामकाज और कारोबार पिछले नौ महीने से बंद है. कोरोना संकट ने कश्मीरियों की मुश्किलों को और बढ़ा दिया है.
तस्वीर: Sharique Ahmad
बेहाल ईरान
अमेरिका 2015 में हुई ईरानी डील से जब से अलग हुआ, तभी से ईरान पर प्रतिबंध दोबारा लग गए. इससे देश की अर्थव्यवस्था का पहले ही बेड़ा गर्क था, लेकिन कोरोना संकट ने और ठप्प कर दिया. मध्य पूर्व में ईरान कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित है. देश के सर्वोच्च नेता अमेरिकी मदद को ठुकरा चुके हैं. उनका कहना है कि अमेरिका मदद ही करना चाहता है तो प्रतिबंधों को हटाए. अमेरिकी राष्ट्रपति इस मांग को खारिज कर चुके हैं.
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रोहिंग्या आज भी बेघर और बेसहारा
बांग्लादेश की सरकार ने अप्रैल के शुरू में कॉक्स बाजार में पूरी तरह लॉकडाउन को लागू कर दिया. इस जिले में लगभग दस लाख रोहिंग्या लोगों ने शरण ले रखी है. रोहिंग्या म्यांमार में सेना की कथित ज्यादतियों से तंग हो कर बांग्लादेश पहुंचे हैं. संयुक्त राष्ट्र रोहिंग्या लोगों के खिलाफ म्यांमार के कदमों की तुलना "नस्ली सफाये" से कर चुका है. इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय न्याय अदालत में मुकदमा चल रहा है.
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यमन की जंग के पीड़ित
संयुक्त राष्ट्र यमन में जारी लड़ाई को इस वक्त की "सबसे बुरी मानवीय त्रासदी" कह चुका है. पांच साल से भी ज्यादा समय से चल रही लड़ाई में एक लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं जबकि बेघर होने वाले और सूखे जैसे हालात का सामने करने वाले लोगों की संख्या दसियों लाख है. सऊदी नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन ने दो हफ्तों के संघर्षविराम का ऐलान किया, लेकिन इससे छलनी हो चुके यमन को शायद ही कोई राहत मिले.
तस्वीर: picture alliance / Xinhua News Agency
सीरिया में भी विनाश जारी है
सीरिया में 2011 से चला आ रहा गृहयुद्ध अब भी खत्म नहीं हुआ है. इन दिनों इदलीब प्रांत रूसी और सीरियाई लड़ाकू विमानों की बमबारी की जद में है. पिछले दिनों सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद की फौज पर अतीत में रासानियक हथियारों का इस्तेमाल करने के आरोप फिर लगे. संयुक्त राष्ट्र सीरिया के युद्ध में शामिल सभी पक्षों पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगाता है.
तस्वीर: AFP/O. H. Kadour
यूरोप का शरणार्थी संकट
सन 2015 में मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका से दस लाख से ज्यादा शरणार्थी यूरोप पहुंचे जिससे पैदा संकट आज भी जारी है. लाखों शरणार्थी तुर्की, लेबनान, जॉर्डन और यूरोप के अलग अलग देशों में शरणार्थी शिविरों में गुजर बसर कर रहे हैं. इनमें सबसे बुरा हाल ग्रीस के द्वीपों पर स्थिति कैंपों का है, जिनमें पहले ही क्षमता से ज्यादा लोगों को रखा गया है. कोरोना संकट के बाद अब उनके लिए खतरे कहीं ज्यादा बढ़ गए हैं.