हिंसा से दूर, सुर की तलाश
१४ जनवरी २०१२मध्य काबुल के दो मंजिले मकान से कभी बेसुरे वायलिन की चीख या पियानो की मीठी आवाज निकलती है. यहां बच्चों को संगीत सिखाया जाता है ताकि वे सुरों में खो कर अफगानिस्तान में आतंक और हिंसा के माहौल से कुछ बाहर आ सकें.
संगीत से पुनर्निर्माण
अफगानिस्तान के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ म्यूजिक के प्रमुख अहमद सरमस्त कहते हैं, "हमारा मकसद है कि जो जिंदगियां जंग से बर्बाद हो गई हैं, उन्हें हम संगीत के जरिए दोबारा बनाने की कोशिश करें." सरमस्त ने संगीत की शिक्षा मॉस्को और ऑस्ट्रेलिया से ली जिसके बाद वह 2008 में अकादमी शुरु करने के मकसद से अफगानिस्तान लौटे.
सरमस्त पहले ट्रंपेट बजाते थे. दो साल पहले उन्होंने अकादमी की शुरुआत की, उसी इमारत में जहां 1990 की दशक में तालिबान शासन के दौरान राष्ट्रीय स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स को बंद कर दिया गया था. तालिबान के शासन के दौरान समाज से संगीत को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया था. आज के काबुल में सब जगह बॉलिवुड और अफगानी हिट गाने सुनने को मिलते हैं.
बांसुरी सिखा रहे मशाल अरमान का कहना है, "युवा संगीत के प्यासे हैं और देश इस तरह बदल रहा है, यह देखने में कितनी खुशी मिल रही है." अकादमी के प्रमुख सरमस्त का कहना है कि स्कूल में एक तिहाई लड़कियां हैं. सारे बच्चों को स्कूल आने के लिए स्कॉलरशिप मिलते हैं.
स्कूल चलाने के लिए अकादमी को सरकार से सहारा मिलता है. ब्रिटेन, जर्मनी और डेनमार्क की सरकारें भी स्कूल को आर्थिक मदद दे रहे हैं.
संगीत या भविष्य?
संगीत पढ़ रहे युवा छात्रों में से कई अनाथ हैं या सड़कों पर रहते हैं. बाकियों को एक परीक्षा के जरिए चुना गया है. भारत से अफगानिस्तान में खास संगीत सिखाने आए इरफान खान का कहना है कि यह तरकीब तो अच्छी है लेकिन गरीबी की वजह से बच्चे अपने लिए साज नहीं खरीद पाते.
अफगान वित्त मंत्रालय के मुताबिक अफगानिस्तान में आम मजदूर साल में 500 डॉलर के आसपास कमाता है. वहीं एक सैक्सोफोन का दाम 600 डॉलर है. सैयद अल्हम पियानो सीख रहा है लेकिन उसके घर में केवल एक कीबोर्ड है. पियानो खरीदने के लिए उसके घरवालों को 3000 डॉलर खर्च करने पड़ेंगे जो उसके लिए किसी सपने से कम नहीं.
इसके बावजूद स्कूल में लगातार बच्चे संगीत सीखने आ रहे हैं. लेकिन इस वक्त अफगानिस्तान में संगीत का भविष्य कुछ बहुत उज्ज्वल नहीं दिख रहा है. संगीतकार अकसर अपने एल्बम बनवाने के लिए खुद पैसे देते हैं और इस पेशे में नौकरियां ना के बराबर हैं.
रिपोर्टः रॉयटर्स/एमजी
संपादनः एन रंजन