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हिजाब या बुरके के आगे भी है मुस्लिम महिलाओं की दुनिया

२२ फ़रवरी २०१९

26 साल की लेखिका मरियम खान कहती हैं कि मुस्लिम औरतों के लिए बुरका और हिजाब कोई समस्या नहीं है. लेकिन "व्हाइट फेमिनिज्म" यानि पश्चिमी देशों के नारीवादी आंदोलनों में हिजाब या बुरके जैसी बातें फिट नहीं बैठतीं.

London Protest vor französischer Botschaft Frau mit Niqab
तस्वीर: Reuters/S. Wermuth

पश्चिमी देशों की ओर से मुस्लिम औरतों की जिस लाचारी की तस्वीर पेश की जाती है उसे अब एक नारीवादी लेखिका ने चुनौती दी हैं. लेखिका मरियम खान ने 17 अन्य मुस्लिम महिलाओं के अनुभवों के आधारों पर एक किताब, "इट्स नॉट अबाउट द बुरका" तैयार की है. इस किताब में मुस्लिम परिवारों से आने वाली महिला कार्यकर्ताओं से लेकर पत्रकारों और रिसर्चरों ने अपने अनुभव साझा किए हैं.

किताब की लेखिका मरियम खान कहती हैं, "पूरी दुनिया में बुरका मुस्लिम महिलाओं से जुड़ा एक बड़ा राजनीतिक शब्द है." उन्होंने कहा कि जब भी पश्चिमी देशों के लोग मुस्लिम औरतों के बारे में सोचते हैं तो जो दो शब्द सबसे पहले उनके दिमाग में आते हैं, वे हैं बुरका और हिजाब.

तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kappeler

मरियम के मुताबिक, "यहां बुरका-हिजाब समस्या नहीं है क्योंकि मुस्लिम महिलाओं के लिए कपड़ों के अलावा भी बहुत कुछ है." वह कहती हैं कि हमें स्वयं से जुड़ी अपनी कहानियों में नयापन और विविधता चाहिए. किताब में महिलाओं की मानसिक अवस्था से लेकर तीन तलाक, नारीवाद और हिजाब जैसे मुद्दों पर खुलकर चर्चा की गई है.

बुरके में मुस्लिम महिलाओं का पूरा शरीर ढंका होता है. चेहरे पर बस एक जाली जैसा कपड़ा लगा होता है. वहीं नकाब में औरतों की बस आंखें नजर आती हैं. ब्रिटेन के पूर्व विदेश मंत्री बोरिस जॉनसन ने अपने एक विवादित बयान में कहा था कि मुस्लिम महिलाओं की ऐसी पोशाकें बेकार और उन्हें दबाने वाली लगती है. जॉनसन ने यह तक कह डाला था कि ऐसी पोशाकों में महिलाएं लेटर बॉक्स या बैंक लूटने आए लुटेरों की तरह नजर आती हैं. हालांकि ब्रिटिश मंत्री के इस बयान पर खूब हो-हल्ला भी मचा था.

ब्रिटेन में रहने वाली मरियम के मुताबिक, "मुस्लिम महिलाओं की कहानियां ज्यादातर गैर-मुस्लिमों द्वारा कही जाती हैं. कभी-कभार ही ऐसा होता होगा जब मुस्लिम औरतों की कहानी लोग उनकी जुबानों से सुन पाते होंगे."

26 साल की मरियम खुद सिर पर हिजाब पहनती हैं. उन्होंने किताब में शामिल अपने निबंध में लिखा है कि कैसे "व्हाइट फेमिनिज्म" उन पसंदों पर फिट नहीं बैठता जिन्हें वह अपने धर्म में स्वेच्छा से चुनती हैं. व्हाइट फेमिनिज्म से मतलब है पश्चिमी देशों के नारीवादी आंदोलन. वे कहती हैं, "पश्चिमी देशों के नारीवादी हिजाब को दमनकारी कहते हैं, लेकिन हम जैसे लोग जो इसे पहनते हैं वह इसे ताकत समझते हैं. क्योंकि हिजाब को पहनना या ना पहनना मेरा अपना चुनाव है."

एक मिस्र-अमेरिकी कार्यकर्ता मोना एलाहतवी ने किताब में मुस्लिम समुदायों में फैली गलतफहमियों के बारे में लिखा है. साथ ही महिला अधिकारों के लिए जारी लड़ाई का जिक्र भी किया गया है. मीडिया संस्था बीबीसी की पूर्व पत्रकार साइमा मीर ने किताब में तलाक के बारे में लिखा है. उन्होंने अपने लेख में सवाल किया है कि क्यों मुस्लिम समाज में होने वाले तलाकों को कड़ाई से देखा जाता है.

मरियम को उम्मीद है कि मुस्लिम महिलाओं के अनुभवों के सामने आने के बाद लोग उनकी कहानियों को एक ही तरह से नहीं देखेंगे. साथ ही धर्म से जुड़ी उनकी बातों और सोच पर भी गौर किया जाएगा.

एए/आरपी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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