1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

हिमालय की हिंदूकुश पट्टी पर पानी का संकट

शिवप्रसाद जोशी
५ मार्च २०२०

मसूरी, दार्जिलिंग और काठमांडु जैसे पहाड़ी पर्यटन स्थलों पर पानी का गहरा संकट है. हिमालय की हिंदूकुश पर्वतमाला पर एक नए रिसर्च में ये दावा किया गया है. बांग्लादेश और पाकिस्तान के पहाड़ी शहरों का भी पानी सूख रहा है.

Indien Fluss Ganges
तस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

हिमालयी भूभाग में हिंदूकुश पट्टी के वे इलाके ही संकटग्रस्त हो रहे हैं जो कई नदियों के उद्गमस्थल हैं. विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि मौजूदा हिसाब से, 2050 तक मांग और आपूर्ति का अंतर बढ़कर दोगुना हो सकता है. बांग्लादेश, नेपाल, भारत और पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्र में पड़ने वाले आठ शहरों की जलापूर्ति में 20 से 70 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है. प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल "वॉटर पॉलिसी” में प्रकाशित एक वृहद अध्ययन में इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटड माउन्टेन डेवलेपमेंट नाम के संगठन ने यह दावा किया है. 

हिंदूकुश हिमालयी क्षेत्र के 13 शहरों में हुए अलग अलग 10 अध्ययनों में पानी का कुप्रबंधन और जलवायु परिवर्तन की समस्याएं पाई गई हैं. इनमें से पांच शहर तीन भारतीय राज्यों से हैं. उत्तराखंड से मसूरी और देवप्रयाग को लिया गया है. मसूरी एक मशहूर पर्यटन स्थल है और देवप्रयाग, ऋषीकेश बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक कस्बा है जहां गोमुख ग्लेशियर से निकलने वाली भागीरथी नदी और बद्रीनाथ से ऊपर सतोपंथ ग्लेशियर से निकलने वाली अलकनंदा नदी का संगम होता है. इसी संगम से आगे नदी, गंगा के विख्यात नाम से बहती है. सिक्किम राज्य का एक शहर सिंगटाम इस अध्ययन में शामिल किया गया है और पश्चिम बंगाल के दो शहर हैं कलिम्पोन्ग और दार्जिलिंग. बाकी आठ शहरों में नेपाल के काठमांडु, भरतपुर, तानसेन और दमौली शामिल हैं और पाकिस्तान के दो शहर- मुरी और हवालियन. दो शहर बांग्लादेश के भी हैं- सिलहट और चटगांव. 

काठमांडुतस्वीर: Marco Panzetti

शोधकर्ताओं की अलग अलग टीमों ने इन सभी पहाड़ी शहरों और कस्बों का दौरा कर वहां पानी की सप्लाई और नदी, झरने, तालाब जैसे उपलब्ध प्राकृतिक जल स्रोतों का अध्ययन किया. अध्ययन में पाया गया कि प्रभावित इलाके पानी के लिए झरनों पर निर्भर हैं. लेकिन कई जलवायु और गैर जलवायु कारकों की मिलीजुली वजहों से झरने सूख रहे हैं. बारिश के पानी के प्रबंधन से लेकर जल नियोजन, अनियोजित और अंधाधुंध शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और पीने के पानी की सप्लाई में विसंगतियां, प्रदूषण जैसी कई समस्याएं हैं जिनसे पानी की किल्लत होने लगी है. बताया गया है कि पर्यटन के लिहाज से महत्त्वपूर्ण होने और पर्याप्त टूरिस्ट आवाजाही रहने के बावजूद इन कस्बों में बारिश के पानी को सहेजने यनी रेन वॉटर हारवेस्टिंग की कोई व्यवस्था नहीं है और सीवेज सिस्टम भी दुरुस्त नहीं हैं. जानकारों का कहना है कि पहाड़ों में जलवायु परिवर्तन का अर्थ ग्लेशियरों के पिघलने से ही नहीं है, स्थानीय कारकों और समस्याओं को भी देखना होगा जिनमें बरसात और झरनों के पानी की किल्लत भी एक समस्या है.

संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पैनल के मुताबिक आने वाले वर्षों में बरसात से जुड़ी ज्यादतियां और बढ़ने का अनुमान है, जिनमें कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा भी शामिल है और अतिवृष्टि भी. कुछ इलाके और जलमग्न होंगे तो कुछ इलाके सूखे रह जाएंगें. मॉनसून की बेतरतीबियां वैसे ही फसलों को नुकसान पहुंचा रही है, जो खाद्य संकट के रूप मे परिलक्षित होंगे. बीमारियां जो हैं सो अलग. जल स्रोत पर्याप्त मात्रा में रिचार्ज नहीं होंगे जिसका असर पानी की उपलब्धता पर पड़ेगा. इनके अलावा कमजोर जलप्रबंधन, योजनाओं की कमी और पीक सीजन में कमजोर टूरिज्म प्रबंधन भी इस संकट के लिए जिम्मेदार है. एक रिपोर्ट के मुताबिक 12 हिमालयी राज्य जलवायु परिवर्तन के लिहाज से अत्यधिक संवेदनशील हैं.

अलकनंदातस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui

ताजा अध्ययन में यह भी पाया गया कि पानी की कमी का संबंध, वर्ग जाति और लिंग से भी है. मिसाल के लिए काठमांडु में पाया गया कि वहां के 20 प्रतिशत गरीब परिवारों को सरकारी जलापूर्ति नहीं मिलती है. इनका रोजमर्रा का काम निजी पानी टैंकरों से चलता है यानी पानी के लिए गरीब ज्यादा पैसा चुका रहे हैं. ये जल आर्थिकी का सबसे विडंबनापूर्ण पक्ष है. वैसे तो जलवायु परिवर्तन से विस्थापित होने वाली आबादी या आबादी समूह को लेकर कोई पक्का डाटा उपलब्ध नही है लेकिन इंडिया स्पेंड में आए दिसंबर 2019 के एक आंकड़े के मुताबिक भारत 181 देशों में से उन देशों में पांचवें नंबर पर आता है जो जलवायु परिवर्तन की मार से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. पानी की वजह से होने वाले विस्थापनों का सही सही आंकड़ा भले ना हो लेकिन यह तय है कि इसमें भी सबसे ज्यादा मार महिलाओं पर पड़ती है. वे और बच्चे सबसे ज्यादा भुगतते हैं. जाहिर है गरीब आबादी ऐसे पर्यायवरणीय और सामाजिक संकटों की चपेट में सबसे पहले आती है.

अध्ययन में बताया गया है कि ऐसे संकटों का समाधान स्थानीय स्तर पर ही ढूंढा जा सकता है. ना सिर्फ स्थानीय निकाय मजबूत होने चाहिए बल्कि स्थानीय कारणों और उपायों को भी देखा जाना चाहिए. जल प्रबंधन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाए जाने की भी जरूरत है. पर्वतीय इलाकों की बुनियादी योजनाएं भी स्थानीय भूगोल के लिहाज से बनाई जानी चाहिए. इतने विशद् अध्ययन से इतर ये बताए जाने की भी जरूरत है कि तीव्र औद्योगीकरण और बांध  से लेकर सड़क और इमारतों तक निर्माण परियोजनाओं से पहाड़ी पर्यावरण और पारिस्थितिकी को कितना नुकसान पहुंचा है या पहुंच रहा है. सरकारों की जवाबदेही तय करने वाले बिंदुओं को और जोरदार ढंग से रेखांकित किये जाने की भी जरूरत है और आम लोगों के बीच भी जागरूकता का स्तर बढ़ाने के लिए सतत अभियान चलाया जाना भी उतना ही जरूरी है. क्योंकि अक्सर देखा गया है कि पानी की किल्लत की भरपाई तात्कालिक तरीकों से कर दी जाती है लेकिन दीर्घकालीन रणनीति न होने से खामियाजा आखिरकार स्थानीय गरीब आबादी को ही भुगतना होता है.

__________________________

हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें