हैदराबाद नगर निगम चुनाव इतना हाईप्रोफाइल कैसे हो गया?
समीरात्मज मिश्र
३० नवम्बर २०२०
बीजेपी ने इस चुनाव में कुछ इस तरह पूरी ताकत झोंक रखी है मानो यह नगर निगम का चुनाव नहीं, बल्कि लोकसभा या विधान सभा के चुनाव हों.
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तेलंगाना राज्य के ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव के लिए प्रचार का काम खत्म हो गया और अब मंगलवार को वहां मतदान होना है. चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी ने न सिर्फ चर्चा बटोरी बल्कि इस राज्य में ज्यादा प्रभाव न होने के बावजूद पार्टी ने अपने लगभग सभी दिग्गजों को प्रचार अभियान में उतारकर अपने इरादे जाहिर कर दिए.
ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव में 150 पार्षद चुने जाने हैं जिन पर शहर में प्रशासन और आधारभूत ढांचे के निर्माण की जिम्मेदारी होती है. यहां स्ट्रीट लाइट, सरकारी स्कूल, सड़कों का रखरखाव, साफ-सफाई, स्वास्थ्य जैसे मामलों के अलावा इमारतों और सड़क निर्माण जैसे कार्यों को भी नगर निगम संभालता है और इसका बजट करीब साढ़े पांच हजार करोड़ रुपये का है.
ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम की आबादी 82 लाख है और यह तेलंगाना की 24 विधानसभा और पांच लोकसभा सीटों में फैला हुआ है. यह देश के सबसे बड़े नगर निगमों में से एक है. इस नगर निगम में हैदराबाद, रंगारेड्डी, मलकानगिरि और संगारेड्डी समेत चार जिले आते हैं.
यही नहीं, तेलंगाना की जीडीपी का बड़ा हिस्सा इसी नगर निगम से आता है. तेलंगाना में यह माना जाता है कि इस नगर निगम पर कब्जा करने का मतलब तेलंगाना की सत्ता के नजदीक पहुंचना है. साल 2016 के निकाय चुनावों में तेलंगाना में सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति यानी टीआरएस ने 99, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने 44, बीजेपी ने चार और कांग्रेस ने दो सीटें जीती थीं.
इस बार नगर निगम की 150 वॉर्डों के लिए 1,122 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं. एक दिसंबर को मतदान किया जाएगा और चार दिसंबर को नतीजों की घोषणा होगी.
ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम में महज चार सीटें, तेलंगाना विधानसभा में सिर्फ दो सीटें और लोकसभा में चार सीटें होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में कुछ इस तरह पूरी ताकत झोंक रखी है मानो ये नगर निगम का चुनाव नहीं, बल्कि लोकसभा या विधान सभा के चुनाव हों. बीजेपी के अलावा टीआरएस, एआईएमआईएम और कांग्रेस पार्टी तो चुनावी मैदान में हैं ही.
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हैदराबाद का नाम बदलने का वादा
चुनाव में बीजेपी की आक्रामकता ने लोगों को हैरान कर रखा है. गृहमंत्री अमित शाह के अलावा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा तक वहां प्रचार और रोड शो कर चुके हैं, तो योगी आदित्यनाथ ने भी अपने चिर-परिचित अंदाज में न सिर्फ भाषण दिया, बल्कि रोड शो भी किया. योगी आदित्यनाथ ने तो प्रचार में यह तक कह दिया कि उनकी पार्टी सत्ता में आने पर हैदराबाद का नाम तक बदल सकती है.
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इसके अलावा बीजेपी के कई केंद्रीय कैबिनेट मंत्री जैसे स्मृति ईरानी, प्रकाश जावड़ेकर भी यहां प्रचार के लिए आ चुके हैं. बीजेपी युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तेजस्वी सूर्या तो वहीं डेरा डालकर बैठे हुए हैं. स्थिति यह है कि एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी यह टिप्पणी कर गए कि "अब तो सिर्फ ट्रंप का ही आना बाकी रह गया है."
सवाल उठता है कि बीजेपी को इस निकाय चुनाव में ऐसी कौन सी उम्मीद दिख रही है, जो उसने पूरी ताकत झोंक रखी है. बीजेपी के कई शीर्ष नेता ऑफ द रिकॉर्ड इस बात को स्वीकार करते हैं कि टीआरएस और एआईएमआईएम के गढ़ में पैठ जमाना आसान नहीं है लेकिन पिछली कुछ उपलब्धियां बीजेपी के आत्मविश्वास को बढ़ा रही हैं.
साल 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल हुई थी जबकि एक साल बाद ही लोकसभा चुनाव में उसने चार सीटें जीत लीं जबकि कांग्रेस पार्टी को सिर्फ तीन सीटें और एआईएमआईएम को सिर्फ एक सीट हासिल हुई थी. यही नहीं, बीजेपी की उम्मीदें तब हिलोरें मारने लगीं जब पिछले दिनों उसने इसी साल नबंवर की शुरुआत में दुब्बाक विधान सभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में जीत हासिल की. यह सीट टीआरएस विधायक के निधन से खाली हुई थी और टीआरएस ने उनकी पत्नी को ही टिकट दिया था लेकिन बीजेपी उम्मीदवार ने उन्हें हरा दिया.
भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय महासचिव भूपेंद्र यादव को हैदराबाद नगर निगम चुनाव में प्रभारी बनाया है और भूपेंद्र यादव इससे पहले जिन राज्यों में भी प्रभारी रहे, वहां पार्टी का प्रदर्शन बेहतरीन रहा.
भूपेंद्र यादव कहते हैं, "बीजेपी यहां इतनी मजबूती से अपनी दावेदारी क्यों पेश कर रही है, यह सवाल बेमानी है. जब हम त्रिपुरा जीत सकते हैं, तेलंगाना में चार लोकसभा सीट जीत सकते हैं, तो नगर निगम चुनाव क्यों नहीं जीत सकते हैं. यहां की जनता टीआरएस के शासन को देख रही है और उससे मुक्ति पाना चाहती है. बीजेपी की ओर वो आशा भरी निगाहों से देख रही है और हम यहां की जनता की सेवा करने को तत्पर हैं."
नरेंद्र मोदी ने दिए इतने सारे नारे
कोरोना महामारी के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "आत्मनिर्भर भारत" का नारा दिया है. इससे पहले भी वे ऐसे कई नारे दे चुके हैं जो लोगों की जुबान पर चढ़ गए.
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दवाई भी कड़ाई भी
राजकोट में एम्स की आधारशिला रखने के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2021 के लिए नया नारा दिया है. नया नारा कोरोना महामारी के संदर्भ में हैं और प्रधानमंत्री मानते हैं कि भारत इस महामारी से लड़ने में कामयाब हुआ है.
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आत्मनिर्भर भारत
कोरोना महामारी के मुश्किल दौर में नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का नारा दे कर देशवासियों को इस दिशा में सोचने को कहा कि जिन चीजों को भारत आयात करता है, उन्हें घरेलू बाजार में ही कैसे बनाया जाए.
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अच्छे दिन आएंगे
2014 के आम चुनावों से पहले मोदी ने नारा दिया "अच्छे दिन आने वाले हैं" और लोगों से अपील की कि अगर वे अच्छे दिन चाहते हैं तो उन्हें वोट दें और बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी यह बात मानी भी.
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अब की बार, मोदी सरकार
इन्हीं चुनावों में "अबकी बार मोदी सरकार" का नारा भी खूब चला. सिर्फ भारत में नहीं, अमेरिका में भी इसी तर्ज पर "अब की बार, ट्रंप सरकार" सुनाई दिया.
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विकास का नारा
2014 का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया. हर रैली में मोदी ने चुनाव जीतने के बाद देश में विकास और काला धन वापस लाने की बात कही.
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मेक इन इंडिया
सत्ता में आने के बाद सितंबर 2014 में मोदी ने "मेक इन इंडिया" अभियान की शुरुआत की. आत्मनिर्भर भारत की तरह यहां भी नारे के केंद्र में उत्पादन भारत में कराना ही था.
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स्वच्छ भारत
इसी दौरान "स्वच्छ भारत अभियान" की भी शुरुआत हुई. इंटरनेट में चलने वाले तरह तरह के चैलेंज की तरह इस अभियान के तहत कई सिलेब्रिटी हाथ में झाड़ू लिए नजर आए.
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जहां सोच, वहां शौचालय
स्वच्छता की बात करते हुए मोदी टॉयलेट के मुद्दे पर भी आए और शौचालय का यह नारा दिया. वैसे चुनावों से पहले भी वे टॉयलेट के मुद्दे को छेड़ चुके थे. तब उन्होंने कहा था, "पहले शौचालय, फिर देवालय."
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बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ
इसके बाद जनवरी 2015 में उन्होंने "बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ" का नारा दिया जिसका मकसद देशवासियों को जागरूक करना और महिलाओं और लड़कियों की स्थिति सुधारना था.
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डिजिटल इंडिया
इसी साल जुलाई में "डिजिटल इंडिया" अभियान की शुरुआत हुई. लक्ष्य सरकारी स्कीमों को इंटरनेट के माध्यम से नागरिकों तक पहुंचाने का था.
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कैशलेस इकोनॉमी
2016 में नोटबंदी का ऐलान करते हुए मोदी ने "कैशलेस इकॉनॉमी" का नारा दिया. हर नागरिक के पास बैंक अकाउंट होने की बात कही गई.
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फिर एक बार
2019 के आम चुनाव में नारा आया, "फिर एक बार मोदी सरकार". नारा सच भी हुआ. देश में एक बार फिर मोदी की ही सरकार आई.
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हर हर मोदी, घर घर मोदी
इन चुनावों में यह फर्क था कि ना अच्छे दिनों की बात हो रही थी और ना ही विकास की. अखबार "हर हर मोदी, घर घर मोदी" वाले नए नारे से भरे रहे.
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मैं भी चौकीदार
मोदी ने "चौकीदार" का नारा दिया तो विपक्ष ने "चौकीदार चोर है" का. मोदी समर्थक "मैं भी चौकीदार" के नारे के साथ सोशल मीडिया पर उतर आए. लोग अपने नाम के आगे चौकीदार लगाने लगे.
2014 में दिए गए इस नारे का अपनी दूसरी पारी में मोदी ने थोड़ा विस्तार कर दिया और इसे.. "सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास" बना दिया.
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अंग्रेजी में भी
सिर्फ हिंदी में ही नहीं, नरेंद्र मोदी ने अंग्रेजी में भी कई नारे दिए हैं जैसे स्टार्ट अप इंडिया स्टैंड अप इंडिया, मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस, जीरो डिफेक्ट जीरो इफेक्ट.
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त्रिपुराजैसेचमत्कारकीउम्मीदनहीं
दिल्ली में बीजेपी के एक बड़े नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि हैदराबाद नगर निगम चुनाव में पार्टी त्रिपुरा जैसे चमत्कार की उम्मीद तो नहीं कर रही है लेकिन वह इस चुनाव के माध्यम से खुद को टीआरएस का विकल्प बनने की कोशिश कर रही है. यानी, बीजेपी इस उम्मीद में है कि वो कांग्रेस पार्टी को निगम चुनाव में शून्य पर ला दे और फिर अगली बार उसके निशाने पर सिर्फ टीआरएस रहेगी.
हैदराबाद में रह रहे सामाजिक कार्यकर्ता पवन के यादव कहते हैं कि बीजेपी की अचानक आक्रामकता यह बता रही है कि उसकी निगाह में हैदराबाद निगम चुनाव नहीं, बल्कि आगामी विधानसभा चुनाव है जहां वह अपनी मजबूत दावेदारी पेश करने की कोशिश में है. पवन के मुताबिक, "पार्टी के रणनीतिकार यह मानते हैं कि टीआरएस के नेता और मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव को टार्गेट करके बीजेपी अपना रास्ता बनाने की कोशिश में है. चंद्रशेखर राव पर हमले के लिए उसके पास कई बिंदु हैं और उन्हें लेकर लोगों में नाराजगी भी है. मसलन, बीजेपी उन पर वंशवाद को बढ़ावा देने, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता के आरोप लगाकर निशाने पर ले रही है."
बीजेपी इस चुनाव में न सिर्फ बड़ा निवेश कर रही है और बड़े नेताओं से प्रचार करा रही है, बल्कि चुनाव के मुद्दों को भी अपनी तरह से हैंडल कर रही है. नगर निगम के चुनाव आमतौर पर स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और दूसरी पार्टियों के नेता बिजली, पानी, सड़क, कूड़ा जैसे मुद्दों पर लड़ भी रहे हैं. आमतौर पर इन चुनावों में राज्य के बड़े नेता भी प्रचार करने से बचते हैं लेकिन बीजेपी ने न सिर्फ बड़े नेताओं को प्रचार में उतारा बल्कि प्रचार को अपने एजेंडे के इर्द-गिर्द रखने की कोशिश की.
राजस्थान में कांग्रेस विधायकों के विद्रोह के कारण एक संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है, जिसमें स्पीकर को हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा. हाल में और किन राज्यों में हुआ है सत्ता को लेकर संवैधानिक संकट?
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Singh
मध्य प्रदेश
नवंबर 2018 में हुए विधान सभा चुनावों में जीत हासिल कर कांग्रेस ने सरकार बनाई गई थी और कमल नाथ मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन मार्च 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए और उनके साथ कांग्रेस के 22 विधायकों ने भी इस्तीफा दे दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कमल नाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट का सामना करने का आदेश दिया. इसके कमल नाथ ने इस्तीफा दे दिया और शिवराज नए मुख्यमंत्री बने.
तस्वीर: imago images/Hindustan Times
कर्नाटक
2018 में हुए विधान सभा चुनावों के बाद राज्यपाल ने बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए निमंत्रण दे दिया. कांग्रेस इस कदम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई और आधी रात को अदालत में सुनवाई हुई. बाद में अदालत ने राज्यपाल के फैसले को गलत ठहराते हुए फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जेडी (एस) के एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने.
तस्वीर: IANS
कर्नाटक (दोबारा)
जुलाई 2019 में जेडी (एस) और कांग्रेस के विधायकों के इस्तीफे से मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की सरकार अल्पमत में आ गई. विधायक जब मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए तब अदालत ने स्पीकर को विधायकों का इस्तीफा मंजूर करने का आदेश दिया और बाद में उन्हें अयोग्य घोषित किए जाने से सुरक्षा भी प्रदान की. विधान सभा में फ्लोर टेस्ट हुआ और कुमारस्वामी की सरकार गिर गई. बीजेपी के येदियुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/S. Forster
महाराष्ट्र
नवंबर 2019 में महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों के नतीजे आ जाने के दो सप्ताह तक रही अनिश्चितता के बीच एक दिन अचानक राज्यपाल ने बीजपी नेता देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. कांग्रेस और एनसीपी ने राज्यपाल के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. अदालत के फ्लोर टेस्ट के आदेश देने पर फडणवीस ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस, एनसीपी और शिव सेना ने मिलकर सरकार बनाई.
तस्वीर: P. Paranjpe/AFP/Getty Images
जम्मू और कश्मीर
जून 2018 में जम्मू और कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी की गठबंधन सरकार से बीजेपी के अचानक समर्थन वापस ले लेने से राजनीतिक और संवैधानिक संकट खड़ा हो गया. मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को इस्तीफा देना पड़ा. राज्य में राज्यपाल का शासन लगा दिया गया. छह महीने बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और अगस्त 2019 में केंद्र ने जम्मू और कश्मीर का राज्य का दर्जा ही खत्म कर दिया और उसकी जगह दो केंद्र-शासित प्रदेश बना दिए.
तस्वीर: Getty Images/S. Hussain
बिहार
जुलाई 2017 में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया और आरजेडी और कांग्रेस के साथ गठबंधन वाली अपनी ही सरकार गिरा दी. कुमार को बीजेपी के विधायकों का समर्थन मिल गया और राज्यपाल ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का निमंत्रण दे दिया. आरजेडी ने पटना हाई कोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दायर कर दी जो खारिज कर दी गई और कुमार फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित कर फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
तस्वीर: IANS
गोवा
मार्च 2017 में गोवा विधान सभा चुनावों के बाद जब राज्यपाल ने बीजेपी नेता मनोहर परिकर को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया, तब सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी कांग्रेस ने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया, जिसमें मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण करने के बाद परिकर ने बहुमत साबित कर दिया.
तस्वीर: Getty Images/AFP
अरुणाचल प्रदेश
दिसंबर 2015 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के कुछ विधायकों और डिप्टी स्पीकर ने विद्रोह के बाद स्पीकर पर महाभियोग लगाने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. स्पीकर ने हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. जनवरी 2016 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. फरवरी में कलिखो पुल ने सरकार बना ली. जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को गैर-कानूनी करार दिया और कांग्रेस की सरकार को बहाल किया.
तस्वीर: Imago/Hindustan Times/A. Yadav
उत्तराखंड
मार्च 2016 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के विद्रोही विधायकों ने विपक्ष के साथ मिलकर बजट पर वोटिंग की मांग की, लेकिन स्पीकर ने ध्वनि मत से बजट पारित करा दिया. विद्रोही विधायक राज्यपाल के पास चले गए और उनकी अनुशंसा पर केंद्र ने मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार बर्खास्त कर दी. राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. रावत की याचिका पर उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटा दिया और रावत सरकार को बहाल किया.