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समाज

2016: भारतीय महिलाओं की इन पांच जीतों के नाम

१६ दिसम्बर २०१६

16 दिसंबर 2012 के निर्भया बलात्कार और हत्याकांड से झकझोरे जाने के बावजूद आज भी देश को महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं बनाया जा सका है. फिर भी 2016 की कुछ मिसालें देश में महिला अधिकारों के बेहतर दिनों की आशा जगाती हैं.

Indien Selfie
तस्वीर: imago/Pacific Press Agency

भारत में हर दिन महिलाओं के खिलाफ अपराध अब भी जारी है. सामाजिक स्तर पर कई तरह के भेदभाव झेल रही महिलाओं ने इस सबके बावजूद कई दूसरे मंचों पर अपने झंडे गाड़े हैं. 2016 में भारतीय महिलाओं को मिली ऐसी पांच जीतों में से पहली जीत महिलाओं की पूजा और प्रार्थना स्थलों में प्रवेश पर रोक हटवाने को माना जा सकता है.

कुछ पहुंच से बाहर नहीं

देश के कई हिन्दू मंदिरों और मुस्लिम प्रार्थना स्थलों में 21वीं सदी के 16 साल बीतने तक महिलाओं के प्रवेश पर रोक चली आ रही थी. कई पुराने दकियानूसी कारण गिनाते हुए इन धार्मिक स्थलों के प्रबंधन बोर्ड जैसे कर्ताधर्ता संघ इन प्रतिबंधों को जारी रखना चाहते थे. महिला संगठनों के सड़कों पर उतर कर किए पुरजोर संघर्ष और अदालत में लड़े गए मुकदमों में जीतने के बाद महाराष्ट्र के एक हिंदू मंदिर और एक मुस्लिम स्थल पर महिलाओं के लिए चली आ रही रोक हटाने में कामयाबी मिली.

सदियों से जारी भेदभावपूर्ण परिपाटी को बदलते हुए अहमदाबाद के शनि शिंगणापुर मंदिर ने अप्रैल में पहली बार महिलाओं के लिए गर्भगृह के द्वार खोले. वहीं नवंबर में मुंबई के मशहूर हाजी अली दरगाह की मस्जिद में भी पहली बार औरतों ने उसके भीतर जाने के अपने अधिकार का इस्तेमाल किया. अभी भी देश के कई अन्य धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के खिलाफ इस तरह की रोक जारी है, जिनके विरूद्ध देश की कई अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं.

आसमान से भी ऊपर

एक दूसरे महत्वपूर्ण कदम में तीन महिला पायलटों को भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान उड़ाने के लिए चुना गया. इस कदम के साथ जून के महीने में भारतीय सेना के लड़ाकू दस्ते में महिलाओं को शामिल किए जाने की शुरुआत हुई. यह शुरुआत करने वाली तीनों महिलाएं 20 से 30 साल के बीच की युवा लड़कियां हैं, और उनके नाम है अवनि चतुर्वेदी, मोहना सिंह और भावना कांत. इसके पहले तक वायु सेना की महिला पायलटों को केवल ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट और हेलिकॉप्टर ही उड़ाने दिए जाते थे.

ओलंपिक में देश का गौरव

भारत के लिंगानुपात दर पर नजर डालें तो देश की आबादी में लड़कों और लड़कियों के जन्म दर का संतुलन खुद भारतीयों ने ही बिगाड़ दिया है. यह अनुपात औसतन प्रति 1,000 लड़कों पर मात्र 943 लड़कियों के जन्म तक गिर गया है. फिर भी जिन लड़कियों को जन्म से पहले ही गर्भ में नहीं मार डाला गया, ऐसी दो महिला एथलीट्स ने ब्राजील के रियो डि जेनेरो में आयोजित ओलंपिक खेल प्रतियोगिता में भारत को मेडल दिलाए. भारत से 100 से भी अधिक एथलीट्स का दल भेजा गया था, जिनमें से केवल दो महिलाओं, पहलवान साक्षी मलिक ने कांस्य पदक और बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु ने रजत पदक जीता. इनके अलावा जिम्नास्ट दीपा कर्मकार व्यक्तिगत वॉल्ट के फाइनल मुकाबले में चौथे स्थान पर आकर मेडल जीतते जीतते रह गईं.  साक्षी मलिक का परिवार मूलत: हरियाणा से है, जहां औसतन हर 1,000 लड़कों पर मात्र 879 लड़कियां हैं. 

रेप आरोपियों को सजा 

तस्वीर: Getty Images/L. Baron

भारतीय अदालतों में बलात्कार के मामलों में अभियुक्तों को दोषी करार देने की दर सन 2012 से लगातार बढ़ ही रही है. 2012 ही वो साल था जब राजधानी दिल्ली में हुई एक बेहद क्रूर घटना में छह आदमियों ने एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार और मारपीट की, जिसके कारण उस लड़की की जान चली गई. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के सालाना आंकड़े दिखाते हैं कि जहां 2012 में रेप आरोपियों को दोषी करार दिए जाने की दर मात्र 24.2 प्रतिशत थी, वहीं 2014 में वह 28 प्रतिशत और 2015 में बढ़कर 29.4 प्रतिशत हो गई है. ये आंकड़े अगस्त 2016 में जारी हुए.

तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. Maqbool

मुख्यधारा में महिला अधिकारों पर ध्यान

महिला के ना कहने के अधिकार को शानदार ढंग से सामने रखने वाली एक हिंदी फिल्म 'पिंक' ने भी 2016 में महिला अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने में भी अहम भूमिका निभाई है. ज्यादातर हिंदी फिल्मों में आज भी पितृसत्ता और समाज के कई दकियानूसी कायदों को लेकर ही किरदार गढ़े जाते हैं. ऐसे में इस फिल्म ने दर्शकों के सामने कुछ जरूरी बातें साफ साफ रखीं. जैसे कि अगर कोई लड़की अपनी मर्जी के कपड़े पहनती है, या कोई शराब या सिगरेट पीती हो, किसी की लड़कों से दोस्ती हो या फिर कोई सेक्स के मामले में अनुभवी हो - तो भी कोई उसे अपने साथ सेक्स संबंध बनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. हर हाल में महिला की ना का मतलब इंकार ही है और इसका हर महिला को पूरा हक है. अपनी मर्जी से अपने जीवन से जुड़े चुनाव करने और फैसले लेने के महिलाओं के हक के बारे में मुख्यधारा की फिल्मों में चर्चा होना भी कोई छोटी उपलब्धि नहीं मानी जा सकती है.

आरपी/ओएसजे (डीपीए)

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