जर्मनी एक अमीर देश है. लेकिन यही ढर्रा जारी रहा तो 14 साल बाद देश में गरीबों की अच्छी खासी तादाद होगी. युवाओं के लिए यह निराशाजनक खबर है.
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जरा सोचिए कि आपकी उम्र 35 साल है और आपने बुढ़ापे के लिए वित्तीय योजना बनानी शुरू की. बुढ़ापे में आप थोड़ा घूमना चाहेंगे, कुछ चीजें खरीदना चाहेंगे और नाती-पोतों के लिए कुछ छोड़ना भी चाहेंगे. लेकिन यह सब भूल जाइये. यह एक भ्रम है. हो सकता है कि नाती-पोतों को आपकी मदद करनी पड़े. कड़वा सच यही है. आशंका है कि 2030 से जर्मनी के आधे पेंशनभोगी गरीबी रेखा के नीचे होंगे. जर्मनी की सरकारी प्रसार सेवा वेस्टडॉयचर रुंडफुंक के अध्ययन में यह बात सामने आई है. रिपोर्ट के मुताबिक भविष्य में पेंशन के सहारे अच्छे से गुजर बसर करना मुश्किल होगा.
मुश्किल हुई बचत
यानि कई दशकों की कड़ी मेहनत के बाद सरकार पेंशन के रूप में आपको ऐसे ही धन्यवाद कहेगी. यह न सिर्फ निराशाजनक है, बल्कि क्रोधित करने वाला भी है. आखिर यह कैसा देश है जो अपनी युवा पीढ़ी की प्लेट से इतना कुछ लेता है, वो भी सिर्फ बुजुर्गों को देने के लिए.
लेकिन आपको गुस्सा नहीं आता, बल्कि आप खुद से कहते हैं कि, "मैं पैसा बचाऊंगा या कुछ पैसा भविष्य के लिए अलग रख दूंगा." लेकिन इसमें भी समस्या है. अगर आप 35 साल के हैं, तो आपको बचत में भी बहुत ही खराब ब्याज मिलेगा. बैंक दर इतनी नीचे हैं कि बचत का कोई मतलब ही नहीं है. अगर ब्याज दर 5 फीसदी होती, तो आप दो फीसदी दर के मुकाबले तीनगुना ज्यादा पैसा बचा पाते.
62 अमीरों की गरीब दुनिया
दुनिया के राजनैतिक और आर्थिक नेताओं से गरीबी मिटाने के प्रयासों को बढ़ाने की अपील. ऑक्सफैम के अनुसार सिर्फ 62 लोगों के पास इतना धन है जितना दुनिया की आधी आबादी के पास. बहुतों को खाना-पीना, दवा, छत और शिक्षा मयस्सर नहीं.
पाकिस्तान के शहर पेशावर में बच्चे एक नहर में जमा कूड़े के ढेर से काम का प्लास्टिक निकाल रहे हैं ताकि उसे बेचकर कुछ कमाई कर सकें.
तस्वीर: Reuters/K. Parvez
केन्या के शहर नैरोबी में 8 साल की बच्ची प्लास्टिक बोतलों से भरी बोरी लिए. इसे उसने डंडोरा स्लम के कूड़े से इकट्ठा किया है.
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मॉस्को में गरीबों की मदद के लिए सामूहिक खाने का आयोजन होता है. एक चर्च द्वारा आयोजित खाने के लिए इकट्ठा भीड़.
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युद्ध के बाद बालकान के देश भी भारी गरीबी झेल रहे हैं. क्रोएशिया के जागरेब में परमार्थ संस्थाएं मुफ्त खाने की व्यवस्था करती हैं.
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पर्याप्त कमाई न हो हर चीज मुश्किल हो जाती है. नेपाल में बहुत से लोग लकड़ी जलाकर खाना पकाने या घर गर्म करने पर मजबूर हैं.
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ईरान में गरीबों की मदद के लिए लोग पुराने सामान देते हैं. यहां अमोल शहर के बाजार में आलमारी में रखे सामान जरूरतमंद लोग ले सकते हैं.
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बहुत से लोग गरीबी के कारण छोटी मोटी चीजें बेचकर जीवनयापन करने को मजबूर हैं. लेकिन इससे परिवार की जरूरतें पूरी नहीं होती.
तस्वीर: DW/T. Shahzad
धनी अमेरिका भी गरीबी की समस्या को सुलझा नहीं पाया है. बेहतर जीवन के लिए शिक्षा, रोजगार और भविष्य के मौके जरूरी हैं.
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जर्मनी जैसे समृद्ध पश्चिमी देशों में भी गरीबी की समस्या है. खासकर बच्चों वाले परिवारों के लिए. अकेली मांएं बच्चों की देखभाल करें या कमाई के लिए काम.
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विश्व के कई देशों में चल रहे संघर्ष के कारण लोग भाग रहे हैं. इसने गरीबी की समस्या को और बढ़ा दिया है. नई जगहों पर इतनी आसानी से रोजगार नहीं मिलता.
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फसल न हो तो कैसे कटे जिंदगी. जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे और बाढ़ का असर खेती पर हो रहा है. यहां जिम्बाब्वे का एक किसान अपने खेत में.
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युद्ध, जातीय संघर्ष, ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन भी विकास को अवरुद्ध कर रहा है और गरीबी की समस्या बढ़ा रहा है.
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खुद को निगलता आर्थिक तंत्र
अब तक यह कहा जाता था कि हमारे समाज की संपन्नता बढ़ रही है. अगर ऐसा है तो यह पैसा कहां गया? हां, पनामा दस्तावेजों के खुलासे में आई कंपनियों में या फिर बढ़ते अरबपतियों की नावों में. दुनिया के सबसे अमीर 62 लोगों के पास 3.5 अरब गरीबों के कुल धन बराबर संपत्ति है. यह गुस्सा दिलाने वाली बात है.
ऐसे में क्या किया जाए? हम सब एटीएम मशीनों से खूब सारा पैसा निकालें और उसे घर में तकिये के भीतर डाल दें. एक विकल्प यह है. इससे हमें लगातार पता चलेगा कि हमारे पास कितना पैसा है. यह भले ही बेवकूफाना लगे लेकिन बहुत सारे रिटायर हो चुके लोग ऐसा कर रहे हैं. वे अपने पोते पोतियों से भी ऐसा ही करने को कहेंगे.
भले ही कितना ही डिटिजटलाइजेशन हो जाए, नकदी हमेशा दमदार होती है. नकदी की जरूरत हर जगह होती है, चाहे भारत हो, अमेरिका हो या जर्मनी. स्विट्जरलैंड में एटीएम से फ्रांक (स्विस मुद्रा) निकालने की सीमा तय कर दी गई है. बैंक नहीं चाहते कि उनका खजाना खाली हो. नकदी को आसानी से ट्रैक नहीं किया जा सकता. बैंक भी जानना चाहते हैं कि आप पैसा कहां खर्च कर रहे हैं. सरकार भी चाहती है, उसे इस पैसे से होने वाले लेन देन पर टैक्स मिले.
नंबर दो को बढ़ावा
तो ऐसे में 35 साल का एक व्यक्ति क्यों बचत करे? बेहतर तो यही होगा कि वह तकिये में पैसा भर ले ताकि जब काम करना छूटे, तो कुछ नकदी रहे. लेकिन ऐसा करके भी चैन थोड़ी मिलेगा. चोरी और डकैती के बढ़ते मामले तनाव देंगे. यानि इतना पैसा है ही नहीं जो किसी को बचाकर रख सके.
यह सब सुनने के बाद 35 साल के एक शख्स ने कहा, "मैं अपार्टमेंट या फ्लैट खरीदूंगा. इतने सस्ते कर्ज में यह ठीक रहेगा. ब्याज दर फिलहाल बहुत ही कम है." लेकिन एक बार फिर सावधान हो जाइए, अगली मंदी तक में घरों की कीमत फिर धराशायी होगी.
ये सब देखने के बाद भविष्य के पेंशनर खुद से यही कह सकते हैं कि, मुश्किल घड़ी आने वाली है.
क्या उच्च शिक्षा केवल अमीरों के लिए?
दुनिया भर में 10 से 24 साल की उम्र के सबसे अधिक युवाओं वाले देश भारत में उच्च शिक्षा अब भी गरीबों की पहुंच से दूर लगती है. फिलहाल विश्व की तीसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था में सबकी हिस्सेदारी नहीं है.
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भारत में नरेंद्र मोदी सरकार ने मेडिकल और इंजीनियरिंग के और भी ज्यादा उत्कृष्ट संस्थान शुरू करने की घोषणा की है. आईआईएम जैसे प्रबंधन संस्थानों के केन्द्र जम्मू कश्मीर, बिहार, हिमाचल प्रदेश और असम में भी खुलने हैं. लेकिन बुनियादी ढांचे और फैकल्टी की कमी की चुनौतियां हैं. यहां सीट मिल भी जाए तो फीस काफी ऊंची है.
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देश के कई उत्कृष्ट शिक्षा संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी फिलहाल 30 से 40 फीसदी शिक्षकों की सीटें खाली पड़ी हैं. नासकॉम की रिपोर्ट दिखाती है कि डिग्री ले लेने के बाद भी केवल 25 फीसदी टेक्निकल ग्रेजुएट और लगभग 15 प्रतिशत अन्य स्नातक आईटी और संबंधित क्षेत्र में काम करने लायक होते हैं.
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कोटा, राजस्थान में कई मध्यमवर्गीय परिवारों के लोग अपने बच्चों को आईआईटी और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए भेजते हैं. महंगे कोचिंग सेंटरों में बड़ी बड़ी फीसें देकर वे बच्चों को आधुनिक युग के प्रतियोगी रोजगार बाजार के लिए तैयार करना चाहते हैं. इस तरह से गरीब बच्चे पहले ही इस प्रतियोगिता में बाहर निकल जाते हैं.
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भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने फ्रांस दौरे पर युवा भारतीय छात्रों के साथ सेल्फी लेते हुए. सक्षम छात्र अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और तमाम दूसरे देशों का रूख कर रहे हैं. लेकिन गरीब परिवारों के बच्चे ये सपना नहीं देख सकते. भारत में अब भी कुछ ही संस्थानों को विश्वस्तरीय क्वालिटी की मान्यता प्राप्त है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/C. Blumberg
मार्च 2015 में पूरी दुनिया में भारत के बिहार राज्य की यह तस्वीर दिखाई गई और नकल कराते दिखते लोगों की भारी आलोचना भी हुई. यह नजारा हाजीपुर के एक स्कूल में 10वीं की बोर्ड परीक्षा का था. जाहिर है कि पूरे देश में शिक्षा के स्तर को इस एक तस्वीर से आंकना सही नहीं होगा.
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राजस्थान के एक गांव की कक्षा में पढ़ते बच्चे. 2030 तक करीब 14 करोड़ लोग कॉलेज जाने की उम्र में होने का अनुमान है, जिसका अर्थ हुआ कि विश्व के हर चार में से एक ग्रेजुएट भारत के शिक्षा तंत्र से ही निकला होगा. कई विशेषज्ञ शिक्षा में एक जेनेरिक मॉडल के बजाए सीखने के रुझान और क्षमताओं पर आधारित शिक्षा दिए जाने का सुझाव देते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Robert Hardin
उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी जैसे दल खुद को दलित समुदाय का प्रतिनिधि और कल्याणकर्ता बताते रहे हैं. चुनावी रैलियों में दलित समुदाय की ओर से पार्टी के समर्थन में नारे लगवाना एक बात है, लेकिन सत्ता में आने पर उनके उत्थान और विकास के लिए जरूरी शिक्षा और रोजगार के मौके दिलाना बिल्कुल दूसरी बात.
तस्वीर: DW/S. Waheed
भारत के "मिसाइल मैन" कहे जाने वाले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम देश में उच्च शिक्षा के पूरे ढांचे में "संपूर्ण" बदलाव लाने की वकालत करते थे. उनका मानना था कि युवाओं में ऐसे कौशल विकसित किए जाएं जो भविष्य की चुनौतियों से निपटने में मददगार हों. इसमें एक और पहलू इसे सस्ता बनाना और देश की गरीब आबादी की पहुंच में लाना भी होगा.