चिन्नागुरुवइया दासारी 25 साल तक बंधुआ मजदूरों की तरह काम करते रहे. जैसे-जैसे वक्त गुजर रहा था किस्मत बदलने की उनकी उम्मीद धूमिल पड़ने लगी थी लेकिन 2015 में मिली पांच एकड़ जमीन ने उनकी तकदीर ही बदल दी.
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पच्चीस साल तक बंधुआ मजदूर की तरह काम करने वाले चिन्नागुरुवइया दासारी को साल 2015 में जब पांच एकड़ जमीन का मालिकाना हक मिला तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ. समझ ही नहीं आ रहा था कि अपनी खुशी का इजहार कैसे करें. जमीन का यह टुकड़ा उन्हें दक्षिण भारत के घने नल्लामाला जंगल के एक छोर पर मिला. चिन्नागुरुवइया आंध्र प्रदेश में रहने वाले चेंचू आदिवासी समुदाय से आते हैं. उस वक्त उनके गांव में 20 अन्य लोगों को भी सरकार ने जमीन आवंटित की थी.
आंध्र प्रदेश के प्रकासम जिले के एक गांव में रहने वाले चिन्नागुरुवइया बताते हैं कि वे लोग पिछले 15 सालों से जमीन के लिए लड़ रहे थे. ना जाने कितनी याचिकाएं दी, कितने विरोध किए लेकिन फैसला होते-होते लंबा वक्त लग गया. चेंचू लोग भारत के उन 10 करोड़ आदिवासियों में से एक हैं जो पिछले लंबे समय से जमीन के मालिकाना हक के लिए लड़ रहे थे. वो हक जो उन्हें बंधुआ मजदूरी के दलदल से निकाल सकता था. मानवाधिकार कार्यकर्ता बताते हैं कि भारत में गुलामी का सबसे आम रूप है बंधुआ मजदूरी. ऐसे मजदूर जो कर्ज में फंसकर गुलामी की जंजीरों से जकड़े रहते हैं.
आधे से अधिक जमीनी झगड़े अब भी अनसुलझे
सलाहकारी सेवायें देने वाली लंदन की कंपनी टीएमपी सिस्टम और गैर सरकारी संस्था राइट्स एंड रिसोर्स इनीशिएटिव की स्टडी के मुताबिक दुनिया में भूमि अधिकारों पर विवाद बढ़े हैं.
तस्वीर: Ravi Mishra/Global Witness
विकासशील देशों में बड़ा मुद्दा
स्टडी के मुताबिक विकासशील देशों में आधे से अधिक जमीनी विवाद अनसुलझे हैं. कई बार ये विवाद हिंसा का रूप भी ले लेते हैं. जब स्थानीय लोगों को ऐसी किसी जगह से हटाया जाता है जहां वे बिना किसी कानूनी अधिकार के रह रहे हैं तो ये विवाद काफी बढ़ जाता है.
तस्वीर: Ravi Mishra/Global Witness
दक्षिणपूर्व एशिया की समस्या
स्टडी के मुताबिक साल 2001 के बाद पैदा हुए दुनिया के तकरीबन 61 फीसदी विवाद अब तक नहीं सुलझाये जा सके हैं, वहीं दक्षिणपूर्व एशिया में जितने विवाद पैदा हुए उनमें से 88 फीसदी अब तक अनसुलझे हैं.
दक्षिणपूर्व एशिया में कारोबारी परियोजनाओं की देरी का एक बड़ा कारण ये जमीनी विवाद है. स्टडी मुताबिक तकरीबन 65 फीसदी परियोजानायें इस वजह से टली हैं और 71 फीसदी कानूनी विवादों में उलझी हुईं हैं.
तस्वीर: Ravi Mishra/Global Witness
बंद होती योजनायें
स्टडी के मुताबिक जमीनी विवाद न सिर्फ परियोजनाओं में देरी का कारण हैं बल्कि इनकी परिचालन लागत में भी 29 गुना का इजाफा हो जाता है जिसके चलते कई बार कारोबारी योजनाओं का विस्तार नहीं होता या इन्हें समय से पहले बंद कर दिया जाता है.
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आपसी अविश्वास
दक्षिणपूर्व एशिया के इन विवादों का एक बड़ा कारण प्रभावित लोगों और कंपनियों के बीच आपसी अविश्वास भी है. स्टडी के मुताबिक आपसी अविश्वास के चलते ये विवाद बड़ा रूप ले लेते हैं. ऐसे मामले अफ्रीका में सबसे अधिक नजर आते हैं.
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घटता निवेश
शोधकर्ताओं का मानना है कि हिंसा और तनाव में बदलते ये विवाद कंपनियां समय रहते सुलझा सकती हैं. रिपोर्ट मुताबिक निजी निवेशक जो भूमि अधिकारों के जोखिम को पहचानते हैं उन्हें कोई भी फैसला लेने से पहले स्थानीय लोगों से बातचीत करनी चाहिए.
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साल 1976 से प्रतिबंधित बंधुआ मजदूरी से आज भी भारत के कई परिवार जूझ रहे हैं. जानकार मानते हैं कि आदिवासी समुदाय पढ़ने लिखने में सक्षम नहीं है और ना ही कानूनी प्रक्रियाओं को समझता है जिसके चलते उनका शोषण होता रहा है. गैर लाभकारी संस्था चैरिटी रुरल डेवलपमेंट ट्रस्ट से जुड़े राम प्रताप रेड्डी कहते हैं, "ठेकेदार गांवों में जाते, वहां रहने वाले कुछ लोगों को पैसा देते और फिर उन्हें सस्ती मजदूरी के लिए ले आते."
चेंचू आदिवासियों की मदद करने में जुटे स्कूल टीचर भूमानी मंथाना भी इसी समुदाय से आते हैं. वह तेलंगाना के नगरकुरनूल जिले में लोगों को बंधुआ और सस्ते श्रमिक बनने से बचाने का काम करते हैं.
वन अधिकार कानून आदिवासियों को उन जंगलों में रहने का अधिकार देता है जहां उनके पूर्वज रहते थे. लेकिन मंथाना बताते हैं कि इस अधिकार को आदिवासियों के लिए पाना बेहद ही मुश्किल है. उन्होंने बताया, "जमीन से जुड़ा हर आवेदन कम से कम छह कमेटियों के पास जाता है उसके बाद कहीं जाकर सरकार जमीन का फैसला लेती है." हालांकि सभी चिन्नागुरुवइया की तरह किस्मत वाले नहीं है.
चिन्नागुरुवइया बताते हैं कि जमीन का टुकड़ा उनके लिए बदलाव लेकर आया है. साल 2015 में जमीन मिलने के बाद उन्होंने उस पर बाजरा बोया. अब वह हर सीजन में करीब 20 और लोगों को काम दे रहे हैं. चिन्नागुरुवइया बताते हैं, "मैं बहुत ही ईमानदारी और मेहनत से काम करता था लेकिन मेरा मालिक मेरे साथ खराब सलूक करता था." हालांकि उन्हें इस बात का सुकून भी है कि अब वह अपने खेत पर काम करने वालों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं. साथ ही भविष्य में जमीन बच्चों के भी काम आएगी.
पूर्वोत्तर भारत में आज भी कई कबीले रहते हैं. उनकी पहचान और संस्कृति एक दूसरे से काफी अलग है. अरुणाचल प्रदेश की अपातानी कबीले की महिलाएं तो दूर से ही पहचान में आ जाती है.
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सुंदरता छुपाओ
अपातानी कबीले की महिलाएं नाक में जेवर के बजाए लकड़ी की एक मोटी बाली जैसी पहनती हैं. आमतौर पर आभूषण सुंदरता को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होते हैं, लेकिन अपातानी समुदाय की महिलाएं सुंदरता को छुपाने के लिए ऐसा करती हैं.
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अपहरण का डर
किस्से कहानियों के मुताबिक अपातानी कबीले की महिलाएं अपनी सुंदरता के लिए मशहूर थीं. पुराने समय में कई बार दूसरे समुदाय के पुरुष अपातानी महिलाओं का अपहरण भी करते थे. एक बुजुर्ग अपातानी महिला के मुताबिक अपहरण से बचने के लिए महिलाओं से नाक में लकड़ी पहनना शुरू किया.
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कुरूप दिखने की कोशिश
ऐसा कर महिलाओं ने खुद को कुरूप स्त्री के तौर पर दिखाने की कोशिश की. दोनों तरफ नाक छेदने के साथ साथ माथे पर एक लंबा काला टीका भी लगाया जाने लगा. ठुड्डी पर पांच लकीरें खीचीं जाने लगीं.
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पहचान
पंरपरा के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह रिवाज पहुंचा. इस रिवाज को अपनाने वाली महिलाओं को स्थानीय समाज में सम्मान मिलता था. लेकिन 1970 के दशक के बाद धीरे धीरे यह परंपरा खत्म होने लगी है.
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विश्व धरोहर
अरुणाचल प्रदेश के सबसे ऊंचे जिले में रहने वाला अपातानी कबीला कृषि के जबरदस्त तरीकों के लिए भी मशहूर है. बेहतरीन पर्यावरण संतुलन के चलते ही यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर का दर्जा भी दिया.
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मछली पालन
ये मछली खेतों में छोड़ी जाती है. अपातानी घाटी में मछली पालन काफी प्रचलित है. यहां के लोग मछली, बांस, चीड़ और कृषि में संतुलन साध चुके हैं. जून और जुलाई में खेतों में छोड़ी जाने वाली ये मछलियां सितंबर व अक्टूबर में पकड़ी जाती हैं.
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इतिहास बनती एक संस्कृति
आज ज्यादातर अपातानी महिलाएं नाक में बड़े छेद कर लकड़ी की बाली नहीं पहनती. ये परंपराएं अब सिर्फ कबीले के बुजुर्गों में दिखाई पड़ती हैं.
रिपोर्ट: एपी/ओएसजे