पंद्रह अगस्त को भारत अपनी स्वाधीनता के सत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और उनकी भारतीय जनता पार्टी इस अवसर को बहुत धूमधाम से मना रहे हैं.
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भाजपा विधायकों और सांसदों को कहा गया है कि वे पंद्रह दिन के भीतर स्वाधीनता सेनानियों के स्मारकों समेत कम से कम डेढ़ सौ स्थानों का दौरा करें और ऐसा करते समय उनके हाथ में बड़े-बड़े तिरंगे झंडे यानी राष्ट्रध्वज होने चाहिए. केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी तो सियाचिन जाकर सैनिकों को राखी बांधेंगी. अनेक मशहूर लोग सरकार और पार्टी के कार्यक्रमों में भाग लेकर उनमें चार चांद लगाएंगे. पंद्रह दिन लंबे इस अभियान को ‘जरा याद करो कुर्बानी' का नाम दिया गया है और 23 अगस्त को इसके समापन के दिन देश भर के स्कूलों में बच्चे राष्ट्रगान गाएंगे. भाजपा और मोदी सरकार का राष्ट्रवाद पर विशेष जोर है. शायद यह एक प्रकार की हीनता ग्रंथि के कारण पैदा हुआ है क्योंकि भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देश के स्वाधीनता आंदोलन में कोई योगदान नहीं था क्योंकि उसकी प्राथमिकता ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्ति न होकर हिन्दू समाज को संगठित करना थी.
क्रांति के प्रतीक फूल
आजादी का फूलों से क्या ताल्लुक? इस साल मालियों की विश्व चैंपियनशिप के मौके पर हम क्रांति के प्रतीक फूलों के इतिहास पर निगाह डालते हैं.
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ट्यूनीशिया की जास्मीन क्रांति
क्रांति के सिलसिले में फूलों की बात हो तो ट्यूनीशिया की जास्मीन क्रांति आंखों के सामने तैर जाती है. इसका नाम ट्यूनीशिया के राष्ट्रीय फूल के नाम पर पड़ा है जो जास्मीन है. जनवरी 2011 में प्रदर्शनकारियों ने सिने अल आबीदीन बेन अली की सरकार को गिरा दिया. प्रदर्शनकारियों से भागकर सऊदी अरब जाने से पहले देश पर 20 साल तक बेन अली का शासन रहा था.
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आजादी के फूल
गुलाब हो, जास्मीन या गुलनार का फूल. बंदूक की नली में फूल से बेहतर कुछ नहीं हो सकता क्योंकि वह शांति और आजादी का प्रतीक है. शुरुआत पुर्तगाल ने की. 1974 में सेना के एक हिस्से का शांतिपूर्ण विद्रोह गुलनार क्रांति के नाम से प्रसिद्ध हुआ
तस्वीर: Fotolia/Hunta
गुलनार क्रांति
पुर्तगाल में करीब 50 साल तक सैनिक तानाशाही थी. कारमोना और सालाजार जैसे जनरलों की तानाशाही के दौरान 1974 तक मनमानी, उत्पीड़न और प्रेस सेंसरशिप का राज था. सेना के एक हिस्से ने यूरोप की सबसे पुरानी तानाशाही का अंत किया. करीब करीब रक्तहीन क्रांति की खुशी में लोगों ने विद्रोहियों को गुलनार के फूल भेंट किए.
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अरब वसंत
ट्यूनीशिया के जनविद्रोह के साथ अरब वसंत की शुरुआत हुई. उसके बाद मिस्र, लीबिया और उत्तर अफ्रीका तथा मध्य पूर्व के कई दूसरे देशों में भी लोकतांत्रिक आंदोलन शुरू हुए. ट्यूनीशिया अब तक अरब वसंत से निकली सफल क्रांति की एकमात्र मिसाल है. बार बार होने वाले प्रदर्शनों के बावजूद उसे कुल मिलाकर स्थिर देश माना जाता है.
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अशांत सीरिया
सीरिया के ठीक विपरीत. यह तस्वीर मई 2013 में ली गई थी. इसमें अलेप्पो में एक कुर्द विद्रोही को देखा जा सकता है. उसके रूसी एक-47 में भी एक फूल लगा है. लेकिन तस्वीर लिए जाने के दो साल बाद भी शांति बहुत दूर है. इस बीच कुर्द विद्रोही सिर्फ राष्ट्रपति असद के खिलाफ ही नहीं लड़ रहे बल्कि आईएस के आतंकवादियों के खिलाफ भी.
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चीन में जास्मीन
अरब दुनिया में शुरू हुए विद्रोह के बीच चीन में भी 2011 में प्रदर्शनों की शुरुआत हुई. प्रदर्शनकारियों ने जानबूझकर जास्मीन के फूल ले रखे थे ताकि चीनी अधिकारियों का ध्यान ट्यूनीशिया की घटनाओं पर जाए. अधिकारियों ने फौरन प्रतिक्रिया दिखाई और इंटरनेट में लोकतंत्र के साथ साथ जास्मीन शब्द खोजने पर भी रोक लगा दी.
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जॉर्जिया की गुलाबी क्रांति
कम ही लोगों को पता है कि जॉर्जिया में भी फूल वाली क्रांति आई थी. 2003 में वहां गुलाबी क्रांति हुई. उसका नतीजा राष्ट्रपति एदुआर्द शेवार्दनाद्से के इस्तीफे के रूप में सामने आया जो सोवियत संघ की अंतिम सरकार में विदेश मंत्री थे. प्रदर्शनकारियों ने देश के पहले राष्ट्रपति के शब्दों को शब्दशः लिया कि हम दुश्मन पर गोली के बदले गुलाब फेंकेंगे.
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किर्गिस्तान की ट्यूलिप क्रांति
फरवरी 2005 में संसदीय चुनावों के बाद किर्गिस्तान में जन आंदोलन शुरू हो गया जिसका नतीजा राष्ट्रपति अकायेव के पतन के रूप में सामने आया. विद्रोही विपक्ष के प्रतीक का इस्तेमाल कर रहे थे जो पहाड़ी ट्यूलिप था. 2010 में किर्गिस्तान के संसदीय लोकतंत्र बनने तक देश अस्थिर रहा. प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी में अभी भी कमियां हैं.
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फूल और रंग
फूलों की क्रांति के अलावा रंगों की भी क्रांतियां हुई हैं. इनमें यूक्रेन की ऑरेंज क्रांति के अलावा ट्यूलिप और गुलाब क्रांति भी है. फूलों को राजनीतिक गुटों के साथ जोड़ने की परंपरा काफी लंबी है. जर्मनी में एसपीडी के कार्यकर्ता लाल गुलाब का इस्तेमाल करते हैं जबकि 1968 के छात्र आंदोलनकारियों ने सर में फूल लगाकर वियतनाम युद्ध का विरोध किया था.
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थाइलैंड के फूल
थाइलैंड में 2013 में हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान सरकार के मन में विचार आया कि आम चलन के विपरीत इस बार पुलिस ही आंदोलनकारियों को फूल बांटे. सरकार समर्थक रेड शर्ट प्रदर्शनकारियों और विपक्ष के पीले शर्ट वाले समर्थकों के बीच महीनों तक चले सत्ता संघर्ष के बाद 2014 में सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. तब से थाइलैंड में इमरजेंसी लगी है.
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अशांत पूर्वी यूक्रेन
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जैसे कि पूर्वी यूक्रेन की इस तस्वीर में जहां सैनिकों की बंदूकों में फूल लगे हैं लेकिन जहां शांति नहीं आई है. बर्लिन में मालियों की विश्व चैंपियनशिप ने अपने भागीदारों से अपील की है कि वे अपने डिजायन में आजादी शब्द को अभिव्यक्ति दें और वह भी राजनीतिक सोच के साथ.
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फूलों की ताकत
इस साल की विश्व चैंपियनशिप बर्लिन में हो रही है. बर्लिन ने अपने इतिहास के साथ दिखाया है कि आजादी की ललक दीवारों को तोड़ सकती है, सीमाओं को मिटा सकती है. आयोजकों को उम्मीद है कि यह ताकत भागीदारों को प्रेरणा देगी.
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लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि यदि देश की जनता में स्वाधीनता दिवस मनाने का उत्साह और जोश होता, तो सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी को इस प्रकार के कार्यक्रमों की योजना बनाने की जरूरत ही न पड़ती. आजादी मिलने के बाद के दो-तीन दशकों तक स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस पर लगभग हर गांव, कस्बे और शहर में सुबह-सुबह प्रभातफेरी निकला करती थी जिसमें आम नागरिक उत्साह से शामिल होते थे और देशभक्ति के गीत गाते हुए हाथ में तिरंगा लेकर गलियों और बाजारों में निकल पड़ते थे. हर स्कूल और कॉलेज से भी इसी तरह की प्रभातफेरियां निकला करती थीं और उनमें स्वाधीनता और गणतंत्र दिवस समारोह भी आयोजित किए जाते थे.
लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, स्वाधीनता आंदोलन की स्मृतियां धुंधली होती गईं. जिन पीढ़ियों ने उसमें हिस्सा लिया था, वे भी संसार से विदा होती गईं. इस समय भारत की आबादी विश्व में सबसे अधिक युवा है. जाहिर है कि इस युवा को न केवल आजादी की लड़ाई की कोई स्मृति है बल्कि उसके इतिहास से भी वह अधिकांशतः अनभिज्ञ है. स्वाधीन भारत में लगातार बढ़ते गए भ्रष्टाचार के कारण भी उसमें उस पीढ़ी के प्रति वितृष्णा पैदा हुई है जिसने आजादी की लड़ाई में तो हिस्सा लिया और कुर्बानियां भी दीं, लेकिन सत्ता में आते ही उनका आचरण बदल गया. इस वितृष्णा के कारण ही भाजपा जैसी पार्टी सत्ता में आई जिसके मूल्य और आदर्श स्वाधीनता संघर्ष के दौरान उपजे और स्वीकृत मूल्यों और आदर्शों के ठीक विपरीत हैं.
ऐतिहासिक आजादी की याद
8 मई 1945 की तारीख गवाह है हिटलर की जर्मनी के बिना शर्त हथियार डालने की, और इसी के साथ यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति की. जर्मनी में कई स्मारकों पर इसे मित्र देशों से मिली आजादी के दिन के तौर पर याद करते है.
तस्वीर: DW/F. Müller
हुर्टगेन फॉरेस्ट की लड़ाई
जर्मनी में आखेन के पास स्थित हुर्टगेन फॉरेस्ट में अमेरिकी सेनाओं ने जर्मन सशस्त्र बलों के विरूद्ध निर्णायक युद्ध लड़ा. जर्मनी की धरती पर मित्र सेना की यह एक महत्वपूर्ण जीत थी. यह अक्टूबर 1944 से लेकर फरवरी 1945 तक चली जर्मनी के इतिहास में सबसे लंबी लड़ाई रही.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Oliver Berg
रेमागन का पुल
7 मार्च 1945 को बॉन शहर के दक्षिण में स्थित रेमागन के रेलवे पुल को ठीक ठाक हालत में देख कर अमेरिकी सेनाएं हैरान थीं. उन्होंने उस पर कब्जा जमाया और हजारों अमेरिकी सैनिकों ने पहली बार राइन नदी को पार किया. इस घटना को "रेमागन का चमत्कार" कहा जाता है. कब्जे के 10 दिनों के भीतर ही बमबारी के कारण पुल ध्वस्त हो गया. आज उसके अवशेषों पर एक शांति स्मारक बना हुआ है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Thomas Frey
राइषवाल्ड फॉरेस्ट युद्ध कब्रिस्तान
अमेरिकी सेना अपने सैनिकों को देश वापस ले गई लेकिन युद्ध में मारे गए ब्रिटिश सैनिकों को जर्मनी के ही 15 कब्रिस्तानों में दफनाया गया. इनमें से सबसे बड़ी कब्रगाह कॉमनवेल्थ वॉर सीमिट्री जर्मन-डच सीमा के पास है.
तस्वीर: Gemeinfrei/DennisPeeters
सीलो हाइट्स मेमोरियल
पूर्वी सीमा पर सोवियत रेड आर्मी ने 16 अप्रैल 1945 को अंतिम बड़ा आक्रमण किया था. सीलो हाइट्स की लड़ाई भोर में बमों की बरसात के साथ शुरु हुई और बर्लिन की ओर बढ़त बनाती गई. इस युद्ध में करीब 9 लाख सोवियत सैनिकों के सामने 90,000 जर्मन सशस्त्र बल के सैनिक थे, जिनमें से हजारों इस युद्ध में मारे गए.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Patrick Pleul
टोरगाउ में एल्बे दिवस
जर्मन धरती पर सोवियत और अमेरिकी सेनाओं की सबसे पहली मुलाकात टोरगाउ में एल्बे नदी पर 25 अप्रैल 1945 को हुई. इसी मुलाकात के साथ पूर्वी और पश्चिमी फ्रंट के बीच दूरी खत्म हुई. टोरगाउ में दोनों पक्षों के बीच हाथ मिलाने की तस्वीरें ऐतिहासिक बन गईं. उस दिन को एल्बे दिवस के रूप में याद किया जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/H. Schmidt
जर्मन-रूसी संग्रहालय, बर्लिन
8-9 मई 1945 की रात को जर्मन सेना ने जिस जगह पर बिना शर्त आत्मसमर्पण करने के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए थे, वह थी बर्लिन-कार्लहोर्स्ट की ऑफिसर्स मेस. आज उसी जगह बने म्यूजियम में सरेंडर रूम में उस मूल दस्तावेज को संभालकर रखा गया है, जिसे अंग्रेजी, जर्मन और रूसी भाषा में लिखा गया था.
तस्वीर: picture-alliance/ZB
सोवियत वॉर मेमोरियल, ट्रेप्टोवर पार्क
विशाल ट्रेप्टोवर पार्क में स्थित स्मारक और मिलिट्री कब्रिस्तान कुल मिलाकर करीब 100,000 वर्ग मीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है. इसे द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद बर्लिन की लड़ाई में मारे गए रेड आर्मी सैनिकों की स्मृति में बनाया गया था.
तस्वीर: picture-alliance/ZB/Matthias Tödt
सेसिलियनहोफ पैलेस में पोट्सडाम कॉन्फ्रेंस
नाजी जर्मनी के आत्मसमर्पण के बाद तीन प्रमुख मित्र देशों के राष्ट्राध्यक्ष पोट्सडाम के सेसिलियनहोफ पैलेस में ही मिले थे. 1945 की गर्मियों में यहां हुई जोसेफ स्टालिन, हैरी ट्रूमन और विंस्टन चर्चिल की मुलाकात को पोट्सडाम कॉन्फ्रेंस के नाम से जाना गया. इसमें ही युद्ध के बाद के यूरोप की व्यवस्था को लेकर चर्चा हुई और जर्मनी को चार ऑक्यूपेशन जोन्स में बांटने का निर्णय हुआ.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Ralf Hirschberger
एलाइड म्यूजियम
बर्लिन भी चार सेक्टरों में बंटा हुआ था. सेलेनडॉर्फ जिला अमेरिकन सेक्टर था, जहां स्थित अमेरिकी सेना का सिनेमा "आउटपोस्ट" आज एलाइड म्यूजियम का हिस्सा है. यहां 1945 में पश्चिमी बर्लिन पर कब्जे के राजनैतिक इतिहास और सैनिक प्रतिबद्धताओं के बारे में विस्तृत जानकारी रखी गई है.
तस्वीर: AlliiertenMuseum/Chodan
शोएनहाउजेन पैलेस, बर्लिन
प्रशियन शासकों का यह महल 1990 में जर्मनी और कब्जा करने वाली सेनाओं के बीच हुए महत्वपूर्ण गोल मेज सम्मेलन का गवाह बना. अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ - इन चारों शक्तियों ने जर्मनी में हासिल किए अपने सभी अधिकार छोड़ने का फैसला किया, जिससे आगे चलकर जर्मन एकीकरण का रास्ता साफ हुआ.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Hans Joachim Rech
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स्वाधीनता आंदोलन के बुनियादी मूल्यों में धर्मनिरपेक्षता एक महत्वपूर्ण मूल्य थी जिसके कारण धर्म के आधार पर देश का विभाजन होने के बावजूद इस आंदोलन के नेताओं ने भारत को एक धर्माधारित राष्ट्र नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया और इस संकल्प के अनुरूप ही संविधान का निर्माण किया. लेकिन भाजपा जिस संघ परिवार की सदस्य है, उसका बुनियादी मूल्य हिन्दुत्व है और हिन्दू राष्ट्र का निर्माण उसका लक्ष्य. उसका राष्ट्रवाद हिन्दू वर्चस्व की अवधारणा पर आधारित राष्ट्रवाद है. इसीलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नागपूर-स्थित अपने मुख्यालय पर 2002 में पहली बार तिरंगा झंडा फहराया. तब तक वह केवल हिन्दू धर्म से जुड़े भगवा झंडे को ही फहराया करता था.
भाजपा का राष्ट्रवाद एक प्रकार का राष्ट्रोन्माद पैदा करता है और इसीलिए सैन्यवाद उसका एक महत्वपूर्ण घटक है. पंद्रह अगस्त के अवसर पर “जरा याद करो कुर्बानी” कार्यक्रम का लक्ष्य भी इसी को और हवा देना है. लेकिन क्या सरकार द्वारा आयोजित और प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिये कारगर ढंग से राष्ट्रवादी भावनाओं को बल पहुंचाया जा सकता है? इस समय स्थिति यह है कि देशवासी निश्चय ही भारत से प्यार करते हैं और उसके लिए हर तरह की कुर्बानी देने के लिए भी तत्पर हैं, लेकिन राष्ट्रवाद उनके रोजमर्रा के जीवन का अभिन्न हिस्सा नहीं है क्योंकि उनका जीवन तो जीवनयापन की समस्याएं हल करने की कोशिश में बीत रहा है. कृत्रिम तरीके से राष्ट्रवाद पनपाने का उन पर बहुत ज्यादा असर होने वाला नहीं.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार
आलोचना को दबाती सरकारें
इंटरनेट ने समाज को लोकतांत्रिक बनाने का काम किया है और ब्लॉगरों ने लोकतांत्रिक बहस को नई दिशा दी है. लेकिन आलोचना सरकारों को रास नहीं आ रही है और ब्लॉगरों को हर कहीं दमन का शिकार बनाया जा रहा है.
तस्वीर: DW/H. Kiesel
सउदी ब्लॉगर रइफ बदावी को इस्लाम के कथित अपमान के लिए सुनाई गई 1,000 कोड़ों की सजा जनता में शासन का डर बनाए रखने का एक क्रूर तरीका है. मई 2014 में सुनाई गई सजा को बरकरार रखते हुए सउदी कोर्ट ने बदावी को हर हफ्ते सार्वजनिक रूप से 50 कोड़े मारे जाने के अलावा 10 साल की जेल की सजा भी सुनाई है.
तस्वीर: privat
पहली बार जनवरी 2015 में बदावी को जेद्दाह में सार्वजनिक रूप से 50 कोड़े मारे गए. इसके विरोध में नीदरलैंड्स के द हेग में प्रदर्शन हुए. दुनिया भर में सजा का विरोध हुआ. अब इस सजा के खिलाफ किसी कोर्ट में अपील करना संभव नहीं है. अब केवल सउदी किंग सलमान बिन अब्दुलअजीज ही 31 साल के बदावी को क्षमादान दे सकते हैं.
तस्वीर: Beekman/AFP/Getty Images
ब्लॉगर रइफ बदावी 2012 से सउदी अरब में कैद हैं. उनकी वेबसाइट को बंद कर दिया गया है. बदावी पर धर्मनिरपेक्षता की तारीफ करने का आरोप है.
तस्वीर: Beekman/AFP/Getty Images
बदावी की सजा के खिलाफ मॉन्ट्रियल में हुए प्रदर्शन में उनकी पत्नी इंसाफ हैदर ने भी भाग लिया. उन्होंने कोड़ों की सजा की तुलना मुस्लिम आतंकवादियों के हमलों से की.
तस्वीर: picture alliance/empics
बदावी अपने इंटरनेट पेज पर सउदी अरब में वहाबी इस्लाम का कड़ाई का पालन करवाने के लिए धार्मिक पुलिस की नियमित रूप से आलोचना करते थे. एमनेस्टी इंटरनेशनल सजा के खिलाफ अभियान चला रहा है.
तस्वीर: DW/A.-S. Philippi
ईरान के सोहैल अराबी को फेसबुक पर टिप्पणियों के लिए इमामों के अपमान का आरोप लगाकर सजा दी गई है. वे अभी भी जेल में हैं.
तस्वीर: Privat
बांग्लादेश के रसेल परवेज ने भौतिकी की पढ़ाई कर देश में धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देने की कोशिश की. ईशनिंदा के आरोप में उन्हें जेल की सजा मिली.
तस्वीर: Sharat Choudhury
मिस्र के प्रमुख ब्लॉगर अला अब्देल फतह पिछले साल एक मुकदमे के दौरान अदालत के पिंजड़े में. उन पर देश के विरोध प्रदर्शन कानून को तोड़ने के लिए मुकदमा चलाया गया.
तस्वीर: picture-alliance/AP/Ravy Shaker
ब्लॉगरों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ ऐसा बर्ताव सिर्फ इस्लामी देशों में ही नहीं होता. पुतिन विरोधी अलेक्सी नवाल्नी को भी सरकार की ताकत का दंश झेलना पड़ा है.