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पश्चिमी देशों के सामने ब्रिक्सः नयी विश्व व्यवस्था की आहट?

१४ अप्रैल २०२३

ब्रिक्स देशों को पश्चिम सिर्फ अर्थव्यवस्था में तेजी करते देशों के तौर पर देखता रहा जबकि ये गठबंधन पश्चिमी मुख्यधारा से बाहर एक कूटनीतिक और वित्तीय मंच बनाने की तैयारी कर रहा है.

लूला दा सिल्वा
ब्राजील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वातस्वीर: Eraldo Peres/AP Photo/picture alliance

ब्रिक्स शब्दावली एक लिहाज से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के बारे में बताने वाली कुछ कुछ आशावादी शब्दावली थी. लेकिन अब ब्रिक्स नाम से मशहूर ये देश- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका-  मौजूदा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और राजनीतिक मंचों के विकल्प के रूप में खुद को खड़ा कर रहे हैं.

अंतरराष्ट्रीय और सुरक्षा मामलों के जर्मन संस्थान, एसडब्लूपी के उप निदेशक ग्युंथर माइहोल्ड कहते हैं, "उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाला मिथक अब फीका पड़ चुका है. ब्रिक्स देश अपने भूराजनीतिक पल का अनुभव कर रहे हैं."

ब्राजील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका- ग्लोबल साउथ यानी गरीब और विकासशील देशों के प्रतिनिधियों के रूप में खुद को पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए "जी7 का एक वैकल्पिक मॉडल" भी मुहैया कराया गया है.

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जी7 दुनिया के सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के प्रमुखों का एक "अनौपचारिक मंच" है जिसकी स्थापाना 1975 में हुई थी. जर्मनी, फ्रांस, द यूनाइटेड किंगडम, इटली, जापान, कनाडा और अमेरिका और यूरोपीय संघ इसके सदस्य हैं.

विश्व बैंक के मॉडल को चुनौती

ब्रिक नाम से साथ आए देशों में शुरुआती सदस्य ब्राजील, रूस, भारत और चीन थे. 2001 में जिम ओ'नील ने ये नाम दिया था. उस समय वो बहुराष्ट्रीय निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्स में मुख्य अर्थशास्त्री थे. उस दौरान ये चार देश, उच्च आर्थिक वृद्धि दर बनाए रखने में सफल रहे थे और ब्रिक का लेबल इन देशों के भविष्य के आर्थिक आशावाद के नाते दिया गया था.

इस लेबल के विरोधियों का कहना है कि अपनी व्यापक विविधताओं को देखते हुए ये देश इस तरह एक समूह में रखे जाने के लिए उपयुक्त नहीं थे और ये महज गोल्डमैन सैक्स का मार्केटिंग शिगूफा था.

लेकिन निवेशकों को प्रोत्साहित करने के लिए जिसे बाजारू हथकंडा बताया गया था, वही हूबहू जी7 की तरह सरकारों के बीच सहयोग के एक मंच के रूप में उभर आया. ब्रिक के चार देशों की पहली बैठक 2009 में रूस के येकातेरिनबुर्ग में हुई थी.

2010 में साउथ अफ्रीका को भी समूह में शामिल कर लिया गया. इस तरह ब्रिक में एस अक्षर जुड़कर, समूह का नाम ब्रिक्स हो गया.

बीज राशि के रूप में 50 अरब डॉलर के साथ, 2014 में ब्रिक्स देशों ने विश्व बैंक (वर्ल्ड बैंक) और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के विकल्प के रूप में नव विकास बैंक (न्यू डेवलेपमेंट बैंक) की स्थापना कर दी.

इसके अलावा, भुगतान को लेकर जूझते सदस्य देशों की मदद के लिए एक लिक्विडिटी व्यवस्था भी निर्मित की गई जिसे नाम दिया गया आकस्मिक आरक्षित निधि व्यवस्था (कंटिन्जेंट रिजर्व अरेंजमेंट.)

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ये पेशकश न सिर्फ ब्रिक्स देशों के खुद के लिए आकर्षक थीं बल्कि दूसरे विकासशील और उभरती हुई अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए भी मददगार थी जिन्होंने पूर्व में मदद के बदले आईएमएफ के ढांचागत सुधार कार्यक्रमों और कड़े उपायों का दर्द झेला था. इसीलिए कई देशों ने ब्रिक्स समूह में शामिल होने की इच्छा जताई है.

ब्रिक्स बैंक के दरवाजे नये सदस्यों के लिए खुले हैं. 2021 में मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात, उरुग्वे और बांग्लादेश ने शेयर उठाए. लेकिन बैंक के संस्थापक देशों के 10 अरब डॉलर के निवेश के मुकाबले ये राशि बहुत ही कम थी.

विस्तार के लिए तैयार

दक्षिण अफ्रीकी विदेश मंत्री नालेदी पैन्डोर ने कहा है कि ब्रिक्स समूह को लेकर विश्वव्यापी दिलचस्पी "बहुत ज्यादा" है. +शुरुआती मार्च में उन्हें टीवी पत्रकारों से कहा कि उनके पास 12 देशों से चिट्ठियां आई पड़ी हैं.

उन्होंने बताया, "एक देश सउदी अरब है. संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र, अल्जीरिया, अर्जेन्टीना, मेक्सिको और नाइजीरिया भी" ब्रिक्स में आना चाहते हैं.

उन्होंने कहा, "निर्धारित मापदंड तैयार कर लेने के बाद हम फैसला करेंगे." उन्होंने बताया कि दक्षिण अफ्रीका में अगस्त में होने वाली बैठक के दौरान ये विषय एजेंडे में होगा.

ब्रिक्स सदस्य देशों में सबसे हाल की आर्थिक हलचलों का उन शुरुआती मान्यताओं या मिथकों से कोई संबंध नहीं जिनके आधार पर समूह की स्थापना हुई थी. पांच सदस्यों में से सिर्फ चीन ने तब से निरंतर और व्यापक वृद्धि दर्ज की है.

2010 में चीन का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 6 खरब डॉलर से बढ़कर, 2021 में करीब 18 खरब डॉलर हो गया था. लेकिन ब्राजील, अफ्रीका और रूस की अर्थव्यवस्थाएं शिथिल रही. भारत की जीडीपी बेशक 1.7 खरब डॉलर से बढ़कर 3.1 खरब डॉलर तक पहुंच गई लेकिन चीन की वृद्धि के मुकाबले ये कुछ भी नहीं थी.

भारत की जिम्मेदारी बड़ी

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यूक्रेन में रूसी युद्ध की शुरुआत से ही, ब्रिक्स देशों ने तथाकथित पश्चिम से खुद को दूर ही रखा है. न भारत, ब्राजील, साउथ अफ्रीका और ना ही चीन, रूस के खिलाफ प्रतिबंधों में शामिल हैं. भारत और रूस के बीच लगभग ऐतिहासिक स्तर के व्यापार संबंधों को देखते हुए या रूसी खाद पर ब्राजील की निर्भरता को देखते हुए ये लगातार स्पष्ट होता गया है.

रूस के खिलाफ कोई प्रतिबंध नहीं

पिछले साल के आखिर में इकोनॉमिक्स ऑब्जर्वेटरी में शेफील्ड यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञानी मैथ्यू बिशप ने लिखा था कि, "कूटनीतिक तौर पर यूक्रेन में युद्ध ने रूस समर्थित पूर्व और पश्चिम के बीच एक गाढ़ी विभाजक रेखा खींच दी है.

नतीजतन, कुछ यूरोपीय और अमेरिकी नीति-निर्माता इस बात से चिंतित हैं कि वैश्विक वृद्धि और विकास को प्रभावित करने की खातिर गठित, ब्रिक्स उभरती हुई शक्तियों का आर्थिक क्लब कम और सत्तावादी राष्ट्रवाद से परिभाषित राजनीतिक क्लब ज्यादा बन सकता है."

अंतरराष्ट्रीय और सुरक्षा मामलों के जर्मन संस्थान से जुड़े माइहोल्ड इस बात से सहमत हैं. वो कहते हैं कि "ब्रिक्स गठबंधन, पश्चिम को काउंटर करने वाले मंच की अपेक्षा, बढ़ते हुए संप्रभु और स्वायत्त विचार का मंच ज्यादा बन रहा है. माइहोल्ड मानते हैं कि दोध्रुवीय दुनिया में साउथ अफ्रीका, भारत और ब्राजील, सीधे तौर पर बेहतर शर्तों के लिए जोर लगा रहे हैं."

माइहोल्ड कहते हैं कि दूसरी ओर, चीन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए ब्रिक्स के मंच का इस्तेमाल कर रहा है. उन्होंने यूक्रेन की लड़ाई में मध्यस्थता की चीनी पेशकश और साउथ अफ्रीका में रूस और चीन के साझा सैन्य अभ्यासों की ओर ध्यान दिलाया.

माइहोल्ड मानते हैं कि, पश्चिम ने ब्रिक्स के रवैये में इस बदलाव को नोटिस कर लिया है और वो इसका जवाब देने की कोशिश कर रहा है. उनके मुताबिक, "पश्चिमी देश बहुत करीब से देख रहे हैं. 2022 में जर्मनी में हुई जी-सात बैठक में उन्होंने सुनिश्चित किया कि साउथ अफ्रीका और भारत को आमंत्रित किया जाए, ताकि ऐसा न लगे कि जी7, ब्रिक्र्स के रास्ते में आ रहा है."

रिपोर्टः एस्ट्रिड प्रांगे

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