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लाखों की क्यों बिकती है सांप जैसी दिखने वाली यह मछली

१६ दिसम्बर २०२१

खात्मे की कगार पर पहुंच चुकी ग्लास ईल मछली कैसे प्रजनन करती है, यह बात आज भी रहस्य है. इसे बाड़ों में रखकर प्रजनन कराने के प्रयास भी नाकाम रहे हैं.

तस्वीर: Behrouz Mehri/AFP/Getty Images

तयोशी हचीस्का ईल को आराम से ग्रिल पर रखते हैं. वह एक बहुचर्चित जापानी व्यंजन तैयार कर रहे हैं, जिसका मिलना अब मुश्किल हो चला है. मिलता है तो बहुत महंगे दामों पर और अंतरराष्ट्रीय तस्कर भी इस पर नजरें गड़ाए रहते हैं. दुनिया भर में खाई जाने वाली ईल एशिया में खासतौर पर प्रचलित है और शायद जापान से ज्यादा और कहीं नहीं पाई जाती.

जापानी ऐतिहासिक दस्तावेज दिखाते हैं कि इसे यहां हजारों सालों से इसे खाया जा रहा है. इसकी जबरदस्त लोकप्रियता के बावजूद, ईल के बारे में कई बातें अब भी रहस्य हैं. खासकर यह कि वे प्रजनन कैसे करती हैं और बाड़ों में रखकर इसका प्रजनन कराने की कोशिशें भी अब तक विफल रही हैं.

जापानी खाने की जान

हाल के दशकों में प्रदूषण और जरूरत से ज्यादा मछली पकड़ने के चलते इस मछली की संख्या नाटकीय रूप से कम हो गई है. भले ही सांप जैसी दिखने वाली यह मछली कुछ लोगों को न भाए, लेकिन यह जापानी खानों में प्रमुख है. लेकिन जापान में ग्लास ईल मछली की पकड़ 1960 के मुकाबले गिरकर 10 फीसदी हो गई है.

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इससे इसके दाम आसमान छूने लगे, वह भी उस देश में जहां लोग दाम बढ़ाने के लिए सालों तक जूझते रहे. मध्य जापान के शिजूओका इलाके के हमामात्सू शहर में रेस्टोरेंट चलाने वाले 66 साल के हचिसुका बताते हैं, "आज उनाजु नाम की एक डिश का दाम उस समय से तीन गुना हो चुका है, जब मैंने इसे बनाना शुरू किया था."

अरस्तु को उलझाया था

ईल की 19 प्रजातियां और उपप्रजातियां हैं, जिनमें से ज्यादातर अब खतरे में हैं. 2014 में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर नाम की संस्था ने जापानी ईल को संकटग्रस्त श्रेणी में डाल दिया है. इसके पीछे वजह उनके बसेरे का नुकसान, ज्यादा मछली पकड़ना और प्रदूषण जैसी चीजें जिम्मेदार हैं. जानवरों को बचाना उनके जटिल जीवन चक्र के चलते भी मुश्किल है. ये मछलियां एक बड़े इलाके में फैली हैं और उनके प्रजनन के बारे में कई बातें पता नहीं हैं.

ईल के प्रजनन के रहस्य ने हजारों सालों से वैज्ञानिकों को आकर्षित किया है. यहां तक कि प्राचीन यूनानी दार्शनिक और प्रकृतिवादी अरस्तू को भी इसने उलझा दिया था. ईल के बारे में अंतत: वह इस नतीजे पर पहुंचे थे कि यह यूं ही मिट्टी में अपने आप पैदा हो जाती है. ऐसा इसलिए क्योंकि वे उसके लार्वा को नहीं खोज सके थे.

बोर्नियो से दुनियाभर में फैली

टोक्यो यूनिवर्सिटी के जलीय जीव विज्ञान विभाग की मारी कुरोकी ने बताया, "हम सोचते हैं कि ईल करीब 6 करोड़ साल पहले बोर्नियो द्वीप के पास पैदा हुई थी." वह बताती हैं, "महाद्वीपीय बहाव ने समुद्री धाराओं को प्रभावित किया और उन क्षेत्रों के बीच की दूरी बढ़ गई, जहां ईल रहती थीं और अंडे देती थीं. ईल भी उसी तरह से ढलीं. और अब ये अंटार्कटिक को छोड़कर दुनिया के हर समुद्र में पहुंच चुकी थी."

ईल हर जगह थी, फिर भी यूरोपीय वैज्ञानिक 20वीं शताब्दी में ही पता लगा सके कि यूरोप और अमेरिका में पाई जाने वाली ईल मछलियों की उत्पत्ति कभी क्यूबा के करीब सारगैसो सागर में हुई थी और यहीं से उनका लार्वा इलाके के अलग-अलग हिस्सों में ले जाया गया.

अब तक नहीं देखी जा सकी प्रजनन प्रक्रिया

ईल के अंडे देने की जगहें तो 2009 तक एक पहेली ही बनी रहीं. इसे तब सुलझाया जा सका जब एक वैज्ञानिक मिशन ने जापानी तट से करीब 2000-3000 किमी दूरी पर मारियाना द्वीप समूह के पश्चिम में एक मैदान में ईल का प्रजनन स्थान खोज निकाला.

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वहां मिले सबूतों से पता चला कि ईल संभोग करती है और उसी जगह पर अंडे भी दे देती है. लेकिन रोचक बात यह है कि यह प्रक्रिया अब भी देखी नहीं जा सकी है. एक बार जब वे लार्वा में बदल जाती हैं तो समुद्र तट की ओर बढ़ने लगती हैं और रास्ते में ही ग्लास ईल बन जाती हैं.

ईल के कई दुश्मन

फिर यह जापान, ताइवान, चीन और दक्षिण कोरिया की नदियों में 5 से 15 साल तक तैरती है और फिर समुद्र में लौट जाती है. यहीं उसकी मौत भी होती है. ईल के लिए इंसानी गतिविधियां विनाशकारी साबित हो रही हैं. फिर अलनीनो जैसी घटनाओं ने उन समुद्री धाराओं को भी प्रभावित किया है जो उन्हें एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाती हैं और उनके लिए प्रजनन की जगहें उपलब्ध कराती हैं.

उनके ताजे पानी के बसेरों में आ रही कमी, जिसमें प्रदूषण के साथ नदी परियोजनाओं का भी हाथ है, वह भी इसमें एक अहम रोल निभा रही है. बांध उनके पर्यावास वाले रास्तों को भी रोक सकते हैं और कई बार तो ईल हाइड्रोइलेक्ट्रिक टरबाइनों में फंस जाती हैं. ये सारी समस्याएं इस प्रजाति के तेजी से होते खात्मे के लिए जिम्मेदार हैं.

जापान में भारी कालाबाजारी

साल 2012 से ही जहां सबसे ज्यादा जापानी ईल मौजूद हैं, ऐसे चार इलाकों के वैज्ञानिक उनके संरक्षण पर काम कर रहे हैं. इन्हें पकड़ने का भी कोटा निर्धारित कर दिया गया है. लेकिन इन प्रतिबंधों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ईल के तेजी से बढ़ते ब्लैक मार्केट को ही बनाने का काम किया है. इनमें ईयू का 2010 का आयात प्रतिबंध भी शामिल है.

जापान में 99 फीसदी से ज्यादा सप्लाई या तो पकड़ी गई ईल्स की होती है, या ऐसी ईल्स की जिन्हें जापान के मछली पालक बड़ा करते हैं. जापान की फिशरीज एजेंसी (जेएफए) के मुताबिक साल 2020 में पकड़ी गई और कानूनी रूप से आयात की गई ग्लास ईल्स का भार 14 टन था. लेकिन सिर्फ वहां के मछली पालकों ने सालभर में 20 टन ग्लास ईल खरीदने की बात कही थी. इस अंतर से जापान में ईल की कालाबाजारी की बात साफ हो जाती है.

20 लाख प्रति किलो तक गया दाम

हमामात्सू में समुद्र के नजदीक मौजूद झील हमाना का खारा पानी ईल के लिए सबसे अच्छा बसेरा है और चुपचाप यहां दिसंबर से अप्रैल के बीच इस जीव का चुपचाप शिकार होता है. मछली पकड़ने का अपना अनोखा जाल लिए 66 साल के बुजुर्ग मछुआरे कुन्हिको काको कहते हैं, "ईल इस झील की सबसे कीमती मछली है. इसलिए हमें सतर्क रहने की जरूरत होती है."

यह जीव इतनी कीमती है कि इसे 'सफेद सोना' कहा जाता है. इसका भाव पकड़ की मात्रा के हिसाब से चढ़ता-उतरता रहता है. जेएफए के मुताबिक मछली पालकों ने साल 2020 में आज की कीमतों के हिसाब से 1.32 मिलियन येन यानी करीब 9 लाख रुपये चुकाए थे. और साल 2018 में इसकी कीमतें रिकॉर्ड 20 लाख रुपये प्रति किलो को भी पार कर गई थीं.

मेनकोर्स से बनी ट्रीट

ईल की मात्रा में कमी आने और इसकी कीमतों के बढ़ते जाने के साथ ही जापान में ईल की खपत में भी बदलाव आया है और अब इसे मेनकोर्स के बजाए एक ट्रीट के तौर पर परोसा जाने लगा है. साल 2000 में जापान में रिकॉर्ड 1.6 लाख टन ईल की जापान में खपत हुई थी, जिसके बाद से यह आंकड़ा दो-तिहाई तक गिर चुका है.

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हमाना झील के पास कारोबार करने वाले सीफूड के थोक विक्रेता सेनिचिरो कामो कहते हैं, "पहले ग्रिल खाने वाली जगहों पर और स्थानीय होटल के रेस्टोरेंट्स में बेचे जाने वाले हर खाने में ईल हुआ करती थी." कुल कमाई का आधा सिर्फ ईल बेचकर कमाने वाले कामो बताते हैं, "ईल स्टेशन पर मिलने वाले मिक्स खाने के बेंटो बॉक्स में भी मिलती थी. लेकिन जब से इसके दाम तीन गुने हुए हैं, यह संभव नहीं रह गया है."

मछली नहीं कीमती प्राकृतिक संसाधन

चौंकाने वाली बात यह भी है कि अगर कोई एक छोटे इलाके में ईल को बड़े पैमाने पर पालना चाहे तो इसके प्रजनन में जबरदस्त गिरावट आ जाती है. 1960 से ही जापानी रिसर्चर उनके मूड को इस हिसाब से ढालने के लिए काम कर रहे हैं लेकिन अब तक उन्हें कोई सफलता नहीं मिली है.

साल 2010 में जानकारों ने जापानी ईल की लगातार दो पीढ़ियों का प्रजनन कराया था, जो एक बड़ी कामयाबी थी. लेकिन आर्टिफिशियल ईल जल्द मार्केट में नहीं आने वाली. जापान फिशरीज रिसर्च एंड एजुकेशन एजेंसी के रुसुके सुडो बताते हैं, "सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह तरीका बहुत महंगा है."

इस तरह के प्रजनन की दर भी बहुत कम है और इन बाड़ों में रखकर कराए गए प्रजनन के बाद इनके बढ़ने की दर, इनके खुले में रह रहे साथियों के मुकाबले कम होती है. ऐसे में रिसर्चर कुरोकी मानती हैं कि इस प्रजाति को बचाने का सबसे अच्छा तरीका यही हो सकता है कि इसके प्रति ग्राहकों को और सजग बनाया जाए. वे मानते हैं कि हर ईल को खाते हुए दिमाग में यह बात होनी चाहिए कि यह एक कीमती प्राकृतिक संसाधन है.

एडी/एके (एएफपी)

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