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विज्ञानब्रिटेन

रॉल्स-रॉयस ने किया विमान को हाईड्रोजन से उड़ाने का परीक्षण

२८ नवम्बर २०२२

विमानों के इंजन बनाने वाली कंपनी रॉल्स-रॉयस ने हाइड्रोजन ईंधन से विमान उड़ाने का परीक्षण शुरू कर दिया है. अगर ये परीक्षण सफल रहते हैं तो दुनिया का विमानन उद्योग क्रांतिकारी रूप से बदल सकता है.

प्रतीकात्मक तस्वीरः यह रॉल्स-रॉयस का पहला पूरी तरह इलेक्ट्रिक विमान है
प्रतीकात्मक तस्वीरः यह रॉल्स-रॉयस का पहला पूरी तरह इलेक्ट्रिक विमान हैतस्वीर: Cover-Images/imago images

रॉल्स-रॉयस ने विमानन कंपनी ईजी जेट के साथ मिलकर परीक्षण शुरू किए हैं जो दुनिया में एविएशन उद्योग की दिशा और दशा बदल सकते हैं. दक्षिणी इंग्लैंड के सेलिसबरी में एक छोटे विमान को एई2100 इंजन के साथ उड़ाया जा रहा है. आमतौर पर एई2100 इंजन को ही छोटे क्षेत्रीय विमानों में प्रयोग किया जाता है लेकिन फर्क ईंधन का है. अब रॉल्स-रॉयस और ईजी जेट परीक्षण कर रहे हैं कि इसी इंजन को हाइड्रोजन से चलाया जा सकता है या नहीं.

वैसे सितंबर में ही कंपनी ने इस बात का ऐलान कर दिया था कि ये परीक्षण शुरू होने वाले हैं. तब ट्वीट करके उसने बताया था कि एई2100 को इन परीक्षणों में प्रयोग किया जाएगा. रॉल्स-रॉयस ने ट्विटर पर लिखा था, "इस एई2100 इंजिन को देखिए जिसे हम पहले हाइड्रोडन ग्राउंड टेस्ट के लिए प्रयोग करेंगे. इसमें कोई संदेह नहीं कि अगले कदम चुनौतीपूर्ण होंगे लेकिन इस परीक्षण के नतीजे हमारी उस महत्वाकांक्षा को पूरी करेंगे जो इस तकनीक को हवा में ले जाना चाहती है.”

यह पहली बार है जबकि किसी आधुनिक विमान को हाइड्रोजन पर चलाने की कोशिश की जा रही है. इस वक्त सेलिसबरी में जो परीक्षण हो रहे हैं उनका मकसद बस यह दिखाना है कि जेट इंजन को पारंपरिक विमान ईंधन के बजाय हाइड्रोजन से भी चलाया जा सकता है. यदि ये परीक्षण कामयाब रहते हैं तो फिर अगला कदम इस ईंधन को पारंपरिक ईंधन की जगह लेने के पूरी तरह तैयार करना होगा.

क्यों चाहिए नया ईंधन?

हाइड्रोजन को कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से ज्यादा सुरक्षित ईंधन माना जाता है. विमानों में जेट फ्यूल इस्तेमाल होता है. यह केरोसीन से बनने वाला परिष्कृत उत्पाद होता है जिसका कार्बन उत्सर्जन किसी भी जीवाश्म ईंधन जैसा होता है. लेकिन विमानों से होने वाले उत्सर्जन को कारों या अन्य वाहनों के उत्सर्जन से ज्यादा खतरनाक माना जाता है क्योंकि यह उत्सर्जन वातावरण में काफी ऊंचाई पर होता है.

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संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण पर काम करने वाली समिति इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने 1999 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें विस्तार से बताया गया था कि विमानन उद्योग जलवायु परिवर्तन पर कितना असर डाल रहा है. उस रिपोर्ट में बताया गया कि विमान ऐसी गैसें और पार्टिकल वातावरण में उत्सर्जित करते हैं जो ग्रीन हाउस गैसों की सघनता बढ़ा देते हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक विमानों का जलवायु परिवर्तन में 3.5 प्रतिशत का योगदान है.

जलवायु परिवर्तन को लेकर चेतावनियों में अक्सर यह बात कही जाती है कि विमान से यात्रा करना पर्यावरण के लीए बेहद महंगा पड़ता है और उसे कम किया जाना चाहिए. इसलिए विमानन उद्योग की कोशिश है कि एक ऐसा ईंधन तैयार किया जाए जो कम प्रदूषण करे और विमानों से यात्रा करना खतरनाक ना रहे. उस दिशा में हाइड्रोजन का काफी संभावनाशील माना जा रहा है.

हाइड्रोजन ही क्यों?

रॉल्स-रॉयस में एयरोस्पेस टेक्नोलॉजी के प्रमुख ऐलन न्यूबी ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में इस सवाल का जवाब दिया है कि हाइड्रोजन को इतना संभावनाशील क्यों माना जाता है. उन्होंने कहा, "हम हाइड्रोजन की तरफ इसलिए देख रहे हैं ताकि नेट जीरो हासिल किया जा सके. आमतौर पर तो हम केरोसीन का प्रयोग करते हैं. केरोसीन एक हाइड्रोकार्बन है और जलने पर कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा करता है. हाईड्रोजन की खूबसूरती यह है कि इसमें कार्बन नहीं होता और इसलिए इसके जलने पर कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा नहीं होती.”

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रॉल्स-रॉयस का मानना है कि विमानन उद्योग के कार्बन उत्सर्जन को कम करने की क्षमता हाईड्रोजन से मिल सकती है. वैसे बैट्री से प्लेन को उड़ाने जैसे विकल्पों पर भी विचार हो चुका है. इसके अलावा सौर ऊर्जा को लेकर भी कई प्रयोग हो चुके हैं. लेकिन विमान की विशालता को देखते हुए उसके लिए अत्याधिक ऊर्जा की जरूरतों ऐसे विकल्पों को थोड़ा कमजोर कर दी है. प्रति किलोग्राम ऊर्जा के मामले में हाईड्रोजन सोलर या बैट्री से कहीं ज्यादा ताकतवर है.

अभी तो शुरुआत है

हाईड्रोजन से विमान उड़ाने की तकनीक अभी शुरुआती दौर में है और इसके बहुत विकास की जरूरत है. फिलहाल एई2100 के साथ जो प्रयोग हो रहे हैं वे बस इतना दिखा पाएंगे कि ऐसा करना संभव है. लेकिन, विशालकाय विमानों को उड़ाने के लिए ऐसे इंजन बनाने होंगे जो हाईड्रोजन से चल सकेंगे. उसके लिए लंबे-चौड़े शोध और भारी-भरकम निवेश की जरूरत होगी.

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साथ ही विमानों के डिजाइन में भी बदलाव करने होंगे. द्रव रूप में हाईड्रोजन केरोसीन से करीब चार गुना ज्यादा जगह लेती है. यानी अब के मुकाबले विमानों का फ्यूल टैंक चार गुना ज्यादा बड़ा करना होगा. पर ऐसा करते ही विमान भारी हो जाएंगे और उनकी उड़ने की क्षमता प्रभावित होगी. लिहाजा, वैज्ञानिकों को कोई जुगत निकालनी होगी.

इसके अलावा हाईड्रोजन को द्रव रूप में रखना भी अपने आप में एक चुनौती है. इसे द्रव बनाने के लिए -253 डिग्री सेल्सियस पर ठंडा करना पड़ता है. विमानों में उसे लगातार द्रव रूप में बनाए रखना आसान नहीं होगा. और फिर, हाईड्रोजन की इस मात्रा में सप्लाई के लिए भी तंत्र तैयार करना होगा.

रिपोर्टः विवेक कुमार (एएफपी)

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