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काबुल पर ‘कफन ढके जाने को’ बेबस देख रहे हैं शरीफी

७ सितम्बर २०२१

तालिबान को अफगानिस्तान पर काबिज हुए एक महीना भी नहीं हुआ है. पर देश बदला जा रहा है. काबुल की दीवारें अलग रंग में रंगी जा रही हैं. और कभी उन पर चित्र बनाने वाले शरीफी दूर से बेबस देख रहे हैं.

Afghanistan Kabul | Künstlerkollektiv Artlords
तस्वीर: Wakil Kohsar/AFP/Getty Images

कला के लिए काम करने वाले अफगान कार्यकर्ता ओमैद शरीफी की संस्था आर्टलॉर्ड्स कलेक्टिव ने बम धमाकों में बर्बाद हुईं काबुल की दीवारों को सजाने संवारने में सात साल गुजारे. दीवारें जब सुंदर नजर आने लगीं और उन पर लगे बारूद के धब्बे मिट गए, तो तालिबान फिर से आ गए.

शरीफी की रंगी काबुल की कई दीवारों से कलाकृतियां हटा दी गई हैं. उन पर तालिबान के प्रचार वाले नारे छाप दिए गए हैं. इन दीवारों को पोतते मजदूरों की तस्वीरें जब शरीफी तक पहुंचीं तो उनका दिल बैठ गया. आर्टलॉर्ड्स कलेक्टिव ने 2014 से अब तक दीवारों पर 2,200 से ज्यादा चित्र बनाए थे.

तस्वीरों मेंः अमेरिका के सबसे लंबे युद्ध

शरीफी अब यूएई में हैं. उनके बनाए चित्रों को कई जगह सफेद कपड़ों से ढक दिया गया है. उन्होंने फोन पर बातचीत में बताया, "मेरे जहन में जो तस्वीर उभर रही है वो ऐसी है कि तालिबान शहर पर कफन ढक रहे हैं.”

‘चुप नहीं बैठेंगे'

शरीफी अफगानिस्तान छोड़कर चले गए हैं. हालांकि, उनका कहना है कि वह अपना अभियान बंद नहीं करेंगे. 34 वर्षीय कलाकार शरीफी कहते हैं, "हम कभी चुप नहीं बैठेंगे. हम सुनिश्चित करेंगे कि दुनिया हमारी बात सुने. हम सुनिश्चित करेंगे कि तालिबान को हर एक दिन शर्मसार होना पड़े.”

जो तस्वीरें मिटाई गई हैं उनमें अमेरिका के विशेष दूत जालमे खलीलजाद और तालिबान के सह-संस्थापक अब्दुल गनी बरादर का 2020 में समझौते के हाथ मिलाते हुए एक चित्र भी था.

ओमैद शरीफी की रंगी एक दीवारतस्वीर: Wakil Kohsar/AFP/Getty Images

शरीफी 2014 में आर्टलॉर्ड्स की स्थापना की थी. इसका मकसद था कला का शांति, सामाजिक न्याय और जवाबदेही के लिए इस्तेमाल करना. इस संस्था की बनाई तस्वीरों ने अक्सर अफगानिस्तान के भ्रष्ट नेताओं और देश के ताकतवर लोगों को शर्मिंदा किया.

साथ ही चित्रों के जरिए अफगान नायकों को मान दिया गया, हिंसा की जगह शांति से मसले सुलझाने की बात की गई और महिलाओं के लिए अधिकार मांगे गए. संस्था के सदस्यों को जान से मारने की धमकियां भी मिलती रहीं.

15 अगस्त की सुबह

15 अगस्त की सुबह जह तालिबान काबुल के दरवाजे पर थे, शरीफी और उनके पांच साथी एक सरकारी इमारत के बाहर चित्र बनाने गए थे. कुछ ही घंटों में उन्होंने लोगों को दफ्तरों से भागते हुए देखा तो वे भी अपनी संस्था के दफ्तर में लौट आए.

उस मरहले को याद करते हुए शरीफी कहते हैं, "सारी सड़कें बंद थीं. हर तरफ से सेना और पुलिसवाली आ रहे थे. लोग अपनी कारें छोड़कर भाग रहे थे. हर कोई भाग रहा था.” शरीफी और उनके साथियों को दफ्तर पहुंच कर पता चला कि तालिबान का काबुल पर कब्जा हो गया है.

1996 में जब यह संगठन पहली बार सत्ता में आया था तब शरीफी 10 साल के थे. उन्होंने तालिबान का पांच साल का कठोर और क्रूर शासन देखा. फिर उन्होंने अमेरिका का हमला भी देखा. वह कहते हैं, "मुझे तो नहीं लगता कि बहुत कुछ बदला है.”

यह एक बैरियर था जिसे शरीफी ने रंग दिया थातस्वीर: Wakil Kohsar/AFP/Getty Images

उन्हें अपने बचपन के वे दिन याद हैं जब काबुल के फुटबॉल स्टेडियम में लोगों को सरेआम सजा दी जाती थी. वह बताते हैं, "मैं सेट्रल मार्किट में अपनी साइकल से जा रहा होता तो कितने ही टूटे हुए टीवी, कैसेट प्लेयर और टेप देखता था. वो आज भी मेरे जहन में है. वो कभी नहीं भूलता.”

अब अफगानिस्तान छोड़कर जाने का फैसला शरीफी के लिए आसान नहीं था. वह कहते हैं, "मुश्किल फैसला था. मैं बस उम्मीद कर सकता हूं कि हर कोई महसूस करे, हम जिससे गुजरे हैं. अफगानिस्तान मेरा घर है, मेरी पहचान है. मैं अपनी जड़ें उखाड़कर दुनिया के किसी और हिस्से में नहीं ले जा सकता.”

वीके/सीके (एएफपी)

देखिए, तालिबान के राज में कैसा है अफगानिस्तान

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