अफगानिस्तान में सेना की मदद करने वालों का पहला दस्ता जर्मनी आ गया है. इसमें 23 लोग हैं. कुल 2,380 लोगों को अनुमति मिली है लेकिन उनके आने में समय लगेगा.
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अफगानिस्तान में जर्मन सेना के अभियान के दौरान मदद करने वाले अफगान नागरिकों का पहला दस्ता शरणार्थी के तौर पर जर्मनी आ गया है. डेर श्पीगल पत्रिका ने खबर छापी है छह लोगों का पहला दस्ता जर्मनी पहुंच गया है. तालिबान के डर से ये लोग जर्मनी में शरण चाहते हैं.
डेर श्पीगल ने सोमवार को लिखा कि ये छह लोग अपने परिवारों के साथ जर्मनी आए हैं. इसके साथ ही जर्मन सेना की मदद करने वाले अफगान लोगों को तालिबान से सुरक्षा और शरण देने का कार्यक्रम शुरू हो गया है.
23 लोग आए
छह मददगार अपने परिजनों के साथ आए हैं. इस तरह कुल 23 लोग जर्मनी पहुंचे हैं जिनमें बच्चे भी शामिल हैं. मजार ए शरीफ से इन लोगों को टर्किश एयरलाइन्स के विमान से जर्मनी लाया गया. आने वाले दिनों में 30 और लोगों के इसी तरह जर्मनी आने की संभावना है.
जर्मन सैन्य अधिकारियों ने अफगानिस्तान छोड़ने से पहले 471 स्थानीय कर्मचारियों का एक दस्तावेज तैयार किया था. इनमें अनुवादक और अन्य कर्मचारी शामिल हैं. इनके परिजनों के कुल 2,380 वीजा दस्तावेज भी तैयार किए गए हैं.
नाटो सेनाएं अफगानिस्तान से वापसी कर रही हैं. जर्मनी के सारे सैनिक स्वदेश लौट चुके हैं. पिछले महीने ही आखिरी जर्मन सैनिकों ने अफगानिस्तान छोड़ दिया था. अमेरिकी सैनिक भी 11 सितंबर से पहले अपनी वापसी पूरी कर लेना चाहते हैं, जिसके साथ 20 साल लंबा अभियान खत्म हो जाएगा.
पश्चिमी सेनाओं के अफगानिस्तान में काम करने के दौरान बहुत से अफगान नागरिकों ने उनके लिए काम किया था और उनकी मदद की थी. अब जबकि ये सेनाएं देश छोड़ रही हैं और तालिबान का बहुत बड़े हिस्से पर कब्जा होने की खबरें आ रही हैं, तो पश्चिमी सेनाओं के लिए काम करने वाले लोगों को डर सता रहा है कि तालिबान उनसे बदला ले सकता है.
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जर्मन सरकार की आलोचना
जर्मन सरकार ने पहले बीते दो साल में उसकी सेना के साथ काम करने वाले अफगानों को सुरक्षा देने की योजना बनाई थी. लेकिन बाद में इस अवधि को बढ़ा दिया गया था और 2013 के बाद से जर्मन सेना के साथ काम करने वाले अफगान लोगों को इसमें शामिल किया गया.
तस्वीरों मेंः चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
बगराम हवाई अड्डा करीब बीस साल तक अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों का मुख्यालय रहा. अमेरिकी फौज स्वदेश वापस जा रही है और इस मुख्यालय को खाली किया जा रहा है. पीछे रह गया है टनों कचरा...
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
जहां तक नजर जाए
2021 में 11 सितंबर की बरसी से पहले अमेरिकी सेना बगराम बेस को खाली कर देना चाहती है. जल्दी-जल्दी काम निपटाए जा रहे हैं. और पीछे छूट रहा है टनों कचरा, जिसमें तारें, धातु और जाने क्या क्या है.
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कुछ काम की चीजें
अभी तो जहां कचरा है, वहां लोगों की भीड़ कुछ अच्छी चीजों की तलाश में पहुंच रही है. कुछ लोगों को कई काम की चीजें मिल भी जाती हैं. जैसे कि सैनिकों के जूते. लोगों को उम्मीद है कि ये चीजें वे कहीं बेच पाएंगे.
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इलेक्ट्रॉनिक खजाना
कुछ लोगों की नजरें इलेक्ट्रोनिक कचरे में मौजूद खजाने को खोजती रहती हैं. सर्किट बोर्ड में कुछ कीमती धातुएं होती हैं, जैसे सोने के कण. इन धातुओं को खजाने में बदला जा सकता है.
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बच्चे भी तलाश में
कचरे के ढेर से कुछ काम की चीज तलाशते बच्चे भी देखे जा सकते हैं. नाटो फौजों के देश में होने से लड़कियों को और महिलाओं को सबसे ज्यादा लाभ हुआ था. वे स्कूल जाने और काम करने की आजादी पा सकी थीं. डर है कि अब यह आजादी छिन न जाए.
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कुछ निशानियां
कई बार लोगों को कचरे के ढेर में प्यारी सी चीजें भी मिल जाती हैं. कुछ लोग तो इन चीजों को इसलिए जमा कर रहे हैं कि उन्हें इस वक्त की निशानी रखनी है.
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खतरनाक है वापसी
1 मई से सैनिकों की वापसी आधिकारिक तौर पर शुरू हुई है. लेकिन सब कुछ हड़बड़ी में हो रहा है क्योंकि तालीबान के हमले का खतरा बना रहता है. इसलिए कचरा बढ़ने की गुंजाइश भी बढ़ गई है.
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कहां जाएगा यह कचरा?
अमेरिकी फौजों के पास जो साज-ओ-सामान है, उसे या तो वे वापस ले जाएंगे या फिर स्थानीय अधिकारियों को दे देंगे. लेकिन तब भी ऐसा बहुत कुछ बच जाएगा, जो किसी खाते में नहीं होगा. इसमें बहुत सारा इलेक्ट्रॉनिक कचरा है, जो बीस साल तक यहां रहे एक लाख से ज्यादा सैनिकों ने उपभोग करके छोड़ा है.
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बगराम का क्या होगा?
हिंदुकुश पर्वत की तलहटी में बसा बगराम एक ऐतिहासिक सैन्य बेस है. 1979 में जब सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान आई थी, तो उसने भी यहीं अपना अड्डा बनाया था. लेकिन, अब लोगों को डर सता रहा है कि अमरीकियों के जाने के बाद यह जगह तालीबान के कब्जे में जा सकती है.
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सोचो, साथ क्या जाएगा
क्या नाटो के बीस साल लंबे अफगानिस्तान अभियान का हासिल बस यह कचरा है? स्थानीय लोग इसी सवाल का जवाब खोज रहे हैं.
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फिर भी, काफी लोग सरकार की आलोचना कर रहे हैं क्योंकि वीजा प्रक्रिया बहुत जटिल बताई जा रही है. डेर श्पीगल के मुताबिक जर्मन नेताओं को डर है कि वीजा की प्रक्रिया आसान होने पर अर्जियों की संख्या बहुत बढ़ सकती है.
जर्मन विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता राएनर ब्रोएल ने माना है कि जर्मन सेना के देश से चले जाने और मजार ए शरीफ में कान्स्युलेट बंद हो जान से वीजा प्रक्रिया जटिल हुई है. उन्होंने कहा कि लोगों की सुविधा के लिए सरकार इंटरनैशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर काम कर रही है.
रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता डेहेल्मबोल्ड ने कहा कि वीजा अर्जियों की संख्या कम रखी गई है क्योंकि जिन लोगों को भी यात्रा दस्तावेज दिए गए हैं, उनमें से सभी लोग एकदम नहीं आना चाहते थे.
आलोचकों को इस बात की भी शिकायत है कि जो अफगान लोग जर्मन सेना के साथ सीधे काम करने के बजाय, किसी ठेकेदार के जरिए काम करते थे, उन्हें इस योजना में शामिल नहीं किया गया है.
रिपोर्टः आलेक्स बेरी
देखिएः अफगान अभियान की कीमत
अफगानिस्तान में 20 साल से चल रहे युद्ध की कीमत
सितंबर 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद शुरू हुआ अफगानिस्तान में युद्ध अमेरिका का सबसे लंबा युद्ध बन चुका है. अब स्पष्ट हो चुका है कि संसाधनों और जिंदगियों की असीमित कीमत चुकाने के बाद भी अमेरिका यह युद्ध जीत नहीं पाया.
तस्वीर: Alexander Zemlianichenko/AFP
एक खूनी अभियान
युद्ध की सबसे बड़ी कीमत अफगानियों ने चुकाई है. ब्राउन विश्वविद्यालय के "युद्ध की कीमत" प्रोजेक्ट के मुताबिक पिछले 20 सालों में अफगानिस्तान के कम से कम 47,245 नागरिक मारे जा चुके हैं. इसके अलावा 66,000-69,000 अफगान सैनिकों के भी मारे जाने का अनुमान है. अमेरिका ने 2,442 सैनिक और 3,800 निजी सुरक्षाकर्मी गंवाएं हैं और नाटो के 40 सदस्य राष्ट्रों के 1,144 कर्मी मारे गए हैं.
तस्वीर: Saifurahman Safi/Xinhua/picture alliance
भारी विस्थापन
युद्ध की वजह से 27 लाख से भी ज्यादा अफगानी लोग दूसरे देश चले गए. इनमें से अधिकतर ईरान, पाकिस्तान और यूरोप चले गए. जो देश में ही रह गए उनमें से 40 लाख देश के अंदर ही विस्थापित हो गए. देश की कुल आबादी 3.6 करोड़ है.
तस्वीर: Aref Karimi/DW
पैसों की बर्बादी
"युद्ध की कीमत" प्रोजेक्ट के मुताबिक अमेरिका ने इस युद्ध पर 2260 अरब डॉलर खर्च दिए हैं. अमेरिका के रक्षा मंत्रालय के मुताबिक सिर्फ युद्ध लड़ने में ही 815 अरब डॉलर खर्च हो गए. युद्ध के बाद अफगानिस्तान के राष्ट्र निर्माण की अलग अलग परियोजनाओं में 143 अरब डॉलर खर्च हो गए. इतिहास में पहली बार एक युद्ध के लिए अमेरिका ने उधार भी लिया और पिछले सालों में वो 530 अरब डॉलर मूल्य के ब्याज का भुगतान कर चुका है.
तस्वीर: Gouvernement Media and Information Center
यह खर्च अभी भी चलता रहेगा
अमेरिका ने सेवानिवृत्त सैनिकों के इलाज और देखभाल पर 296 अरब डॉलर खर्च किए हैं. यह खर्च आने वाले कई सालों तक चलता रहेगा.
अमेरिकी सरकार का अनुमान है कि राष्ट्र निर्माण पर हुए खर्च में से अरबों रुपए बेकार चले गए. नहरें, बांध और राज्य मार्गों का इस्तेमाल ही नहीं हो पाया, नए अस्पताल और स्कूल खाली पड़े हैं और भ्रष्टाचार भी पनपा है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. S. Arman
जाने का खर्च अलग है
कई लोगों को डर है कि स्वास्थ्य, शिक्षा और महिलाओं के लिए अधिकारों के क्षेत्र में अफगानिस्तान में जो भी थोड़ी-बहुत तरक्की हुई है, वो अमेरिका के यहां से चले जाने के बाद संकट में पड़ जाएगी. पिछले 20 सालों में देश में अनुमानित जीवन-काल 56 से बढ़कर 64 हो गया है. मातृत्व मृत्यु दर आधे से भी ज्यादा कम हो गई है. साक्षरता दर आठ प्रतिशत बढ़ कर 43 प्रतिशत पर पहुंची है. बाल विवाह में भी 17 प्रतिशत की कमी आई है.
तस्वीर: Michael Kappeler/dpa/picture alliance
अनिश्चितता का दौर
निश्चित रूप से अमेरिका एक स्थिर, लोकतांत्रिक अफगानिस्तान बनाने के अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया और अब जब अमेरिकी सैनिक देश छोड़ रहे हैं, अफगानिस्तान का भविष्य अनिश्चितता से भरा हुआ नजर आ रहा है. (एपी)