रोजगार के कम अवसरों पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की बजाय मणिपुर के युवा आपदा में अवसर की तर्ज पर खेलों के जरिए ही आजीविका कमाने की राह पर बढ़ रहे हैं.
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पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर का नाम आजादी के बाद से ही उग्रवाद या सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) के कथित दुरुपयोग के लिए सुर्खियों में रहा है. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद राज्य में कोई बड़ा उद्योग नहीं होने के कारण रोजगार के संसाधन नहीं के बराबर हैं. ऐसे में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले राज्य के कई पूर्व चैंपियन अपनी अकादमी के जरिए युवाओं की प्रतिभा निखारने का काम कर रहे हैं.
खेलों की संस्कृति राज्य में गहरे रची-बसी है. शायद यही वजह है कि फुटबाल से लेकर भारोत्तोलन और कुश्ती से लेकर बॉक्सिंग तक राष्ट्रीय टीम में शामिल हो कर पदक बटोरने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है. राज्य में खेलों की इस परंपरा को ध्यान में रखते हुए नई प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए ही राज्य में देश का पहला राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय स्थापित गया है.
डिग्को सिंह, मैरी कॉम, सरिता देवी, विजेंदर, देवेंद्र सिंह और सरजूबाला जैसे चैंपियन खिलाड़ियों की सूची भी लगातार लंबी हो रही है. यह ऐसे नाम हैं जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में देश के लिए पदक बटोर कर देश का नाम तो रोशन किया ही है, रोजगार की नई राह भी खोली है. इनमें से कई खिलाड़ी अब दूसरी उभरती प्रतिभाओं को तराशने में लगे हैं.
राजधानी इंफाल स्थिति भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) भी इसमें अहम भूमिका निभा रही है. हालांकि निजी प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले ज्यादातर पूर्व खिलाड़ियों को सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिल पाने की शिकायत भी है. बावजूद इसके इन प्रशिक्षण केंद्रों में दाखिला लेने वालों की लगातार लंबी होती सूची अपनी कहानी खुद कहती है. खेल कोटे में इन युवाओं को पुलिस से लेकर सेना, केंद्रीय बलों और दूसरे सार्वजनिक उपक्रमों में आसानी से नौकरियां मिल जाती हैं. इन युवाओं खासकर पुरुषों में ज्यादातर का सपना भारतीय सेना में शामिल होना है.
चपला, चंचला, चोलिता
दक्षिण अमेरिकी देश बोलिविया में महिलाओं की कुश्ती बड़ी मशहूर है. स्कर्ट पहन कर कुश्ती करने वाली 'चोलिता' अपने प्रतिद्वंद्वी को ही नहीं समाज में मौजूद कई तरह के भेदभाव को भी पटखनी दे रही हैं.
तस्वीर: Kamran Ali
WWE से भी पुरानी
बोलिविया में महिलाओं की इस फ्री स्टाइल रेसलिंग को 'फाइटिंग चोलिताज' कहा जाता है. माना जाता है कि बोलिविया के अल आल्तो इलाके में इसकी शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई.
तस्वीर: Kamran Ali
परंपरागत पोशाक
कुश्ती के खास कपड़ों के उलट फाइटिंग चोलिता अपनी पारंपरिक पोशाक पहन कर लड़ती हैं. ग्रीक-रोमन शैली की यह कुश्ती लड़ने वाली महिलाएं लात और घूसों से कोई परहेज नहीं करतीं.
तस्वीर: Kamran Ali
बेदम करने तक
लुचा लिब्रे समुदाय की महिलाओं के बीच होने वाली इस फाइट में प्रतिद्वंद्वी को बेदम करना होता है. मुकाबला चित करने या फिर प्रतिद्वंद्वी के हार मानने पर ही खत्म होता है.
तस्वीर: Kamran Ali
अखाड़े के बाहर भी अखाड़ा
मुकाबले के दौरान अगर कोई फाइटर अखाड़े से बाहर भी चली जाए तो उसका पीछा किया जाता है और खास सीमा के अंदर उसे पटखनी दी जाती है. अगर कोई मैदान छोड़ दे तो उसे हारा घोषित किया जाता है.
तस्वीर: Kamran Ali
कहां फंस गया
कभी कभार लड़ाई के दौरान महिलाएं इतनी आक्रामक हो जाती हैं कि वह पुरुष रेफरी को भी नहीं बख्शती हैं. कई लोगों का मानना है कि अमेरिका की WWE रेसलिंग बोलिविया की फाइटिंग चोलिताज की नकल है.
तस्वीर: Kamran Ali
संडे के संडे
इस फ्री स्टाइल रेसलिंग के लड़ाकों को 'टाइटन्स ऑफ द रिंग' कहा जाता है. इसमें महिला और पुरुषों की अलग अलग श्रेणी होती है. मुकाबले हर इतवार होते हैं.
तस्वीर: Kamran Ali
जीत की हुंकार
विजयी महिला को करीब 30 डॉलर तक का ईनाम मिलता है. रेसलिंग करने वाली ज्यादातर महिलाएं सोमवार से शनिवार तक दूसरे काम करती हैं.
तस्वीर: Kamran Ali
दशकों चला अपमान
बोलिविया की मूल निवासी यह महिलाएं अपने लंबी स्कर्ट, खास हैट और बड़े गहनों वाले पहनावे के कारण दूर से पहचान में आ जाती थीं. कई दशकों तक चोलिता को कई सार्वजनिक जगहों पर जाने की मनाही रही.
तस्वीर: Claudia Morales/REUTERS
पहलवानी से सशक्तिकरण
रेसलिंग के कारण चोलिता को एक नई पहचान मिली. पहले जिन्हें घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार का शिकार बनना पड़ता था, आयमारा और ऐसे मूल समुदायों की महिलाएं रेसलर बन कर अपने को सशक्त बना रही हैं.
तस्वीर: Kamran Ali
ऐसे पता चली कहानी
फाइटिंग चोलिताज नाम की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म के जरिये बोलिविया की यह कहानी दुनिया के सामने आई. 2006 में बनी उस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को सम्मानित भी किया गया.
तस्वीर: Kamran Ali
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सामाजिक ताने-बाने में बुनी संस्कृति
मणिपुर के सामाजिक ताने-बाने में खेलों की संस्कृति गहरे रची-बसी है और इसकी परंपरा सदियों पुरानी है. भारत की आबादी में इस राज्य की हिस्सेदारी महज 0.24 प्रतिशत है. बावजूद इसके वर्ष 1984 से अब तक यहां से 19 खिलाड़ी ओलंपिक की विभिन्न स्पर्धाओं में देश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. अकेले टोक्यो ओलंपिक में ही राज्य के छह खिलाड़ी चुने गए थे.
मणिपुर में मूल रूप से मैतेयी समुदाय के लोग रहते हैं और लगभग 29 कबायली समुदाय हैं. राजा कांगबा और राजा खागेम्बा के समय में खेल को काफ़ी तरजीह दी गई. राजा कांगबा के समय मणिपुर के कुछ पांरपरिक खेलों की शुरुआत हुई थी.
ब्रिटिश सेना में अफसर रहे सर जेम्स जॉनस्टोन ने मणिपुर पर अपनी पुस्तक 'मणिपुर एंड नगा हिल्स' में राज्य के पारंपरिक खेलों का जिक्र करते हुए स्थानीय लोगों की खेलों में कुशलता की प्रशंसा की थी. राज्य में उत्सवों और त्योहारों के मौकों पर भी खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन की परंपरा रही है. मिसाल के तौर पर होली के मौके पर पांच दिनों तक विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है. इस त्योहार को राज्य में याओसांग कहा जाता है. इसमें हर उम्र के लोग सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं.
साई के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, "मणिपुर में राष्ट्रीय खेलों का आयोजन साल 1999 में हुआ था. लेकिन उससे पहले ही राज्य के कई खिलाड़ी ओलंपिक में हिस्सा ले चुके थे.” आधारभूत सुविधाओं की कमी के बावजूद राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय स्तर पर करीब एक हजार खेल क्लबों का संचालन होता है जहां स्थानीय प्रतिभाओं को निखारा जाता है. यह सामुदायिक क्लब बिना किसी सरकारी सहायता के ही चलते हैं.
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रोजगार का जरिया
राज्य में रोजगार के साधन नहीं के बराबर हैं. ऐसे में खेल ही युवाओं के लिए रोजगार की राह खोलते हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदक जीतते ही खेल कोटे के तहत नौकरियां मिल जाती हैं. सेना यहां के युवकों की पहली पसंद है. राजधानी इंफाल के बाहरी इलाके में स्थित बॉक्सिंग की विश्व चैंपियन रहीं सरिता देवी की अकादमी में प्रशिक्षण लेने वाले आठ साल के लोहेम्बा कहते हैं, "मैं सेना में जाना चाहता हूं. इसलिए मुक्केबाजी सीख रहा हूं.” वहीं प्रशिक्षण लेने वाली थोंग कुंजरानी देवी कहती है, "मैरी कॉम और सरिता देवी की तरह वह भी बॉक्सर बन कर देश और राज्य का नाम रोशन करना चाहती है.”
बैडमिंटन के राज्य चैंपियन विद्यासागर सलाम कहते हैं, "हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है. खेल से हमारे लिए रोजगार की राह खुलती है और भविष्य सुरक्षित होता है.” एक महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बेलिंदा कहती है, "मेरा सपना ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करना है.”
बॉक्सिंग की पूर्व राष्ट्रीय व विश्व चैंपियन सरिता देवी कहती हैं, "छोटा और सुदूर राज्य होने के बावजूद लोगों में खेलो के प्रति काफी दिलचस्पी है. हम नई प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देकर तैयार करते हैं. राज्य में प्रशिक्षण औऱ आधारभूत ढांचे की भारी कमी है.”
सरिता देवी अपने सहयोगियों के साथ दुर्गम पहाड़ी इलाकों में बसे गांवों में जाकर लोगों को समझाती हैं कि खेलों से करियर बन सकता है. उसके बाद छोटी उम्र में ही प्रतिभाओं को चुन कर अकादमी में प्रशिक्षण दिया जाता है. सरिता देवी कहती हैं कि "सरकार से सहायता मिले तो और बेहतर काम हो सकता है. मैंने बीस साल देश का प्रतिनिधित्व किया. अब इन बच्चों को प्रशिक्षण दे रही हूं ताकि यह आगे चल कर राज्य व देश का नाम रोशन कर सकें." उनका कहना है कि युवाओं में खेलों के प्रति दिलचस्पी बढ़ा कर उनको नशीली वस्तुओं के सेवन और अपराधों से भी बचाया जा सकता है.
वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार शर्मा कहते हैं, "मणिपुर में खेलों की परंपरा बहुत पुरानी है. इसलिए इसे देश में खेलों का पावरहाउस कहा जाता है. राज्य में विभिन्न त्योहारों के मौकों पर घरेलू प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं. उनमें हर उम्र के लोग हिस्सा लेते हैं. यही वजह है कि तमाम दिक्कतों के बावजूद राज्य से दर्जनों चैंपियन निकलते रहे हैं.”
रेसलिंग फेडरेशन आफ इंडिया के उपाध्यक्ष और राज्य इकाई के सचिव एन फोनी कहते हैं, "राज्य में शुरू से ही खेलों की संस्कृति गहरे रची-बसी है. स्पोर्ट्स अथारिटी आफ इंडिया और राज्य सरकार भी प्रशिक्षण के जरिए खेलों को बढ़ावा देने का काम कर रही है. इससे नौकरियां भी मिल जाती हैं.” उनके मुताबिक, एक चैंपियन को तैयार करने में 15 से 20 साल का समय लगता है. लेकिन पदक जीतने के बाद वह नौकरी पा कर दूसरे राज्य में चला जाता है. उसके बाद फिर वही कवायद दोहरानी पड़ती है.
मिलिए खेलों की कुछ सुपर महिलाओं से
महिलाएं खेलों में पुरुषों के साथ बराबरी के लिए दशकों से लड़ रही हैं. कई सफल महिला खिलाड़ियों के इस संघर्ष ने खेलों की दुनिया को हिला के रख दिया, लेकिन कई क्षेत्रों में वो सफलता ज्यादा वक्त तक चली नहीं.
तस्वीर: picture alliance/dpa/N.Mughal
एक बड़ी लैंगिक बाधा ध्वस्त
10 अप्रैल, 2021 को रेचल ब्लैकमोर ने खेलों की दुनिया की सबसे बड़े लैंगिक बाधाओं में से एक को तोड़ दिया. वो इंग्लैंड की कठिन ग्रैंड नेशनल प्रतियोगिता को जीतने वाली पहली महिला जॉकी बन गई हैं. आयरलैंड की रहने वाली 31 वर्षीय ब्लैकमोर ने जीत हासिल करने के बाद उन्होंने कहा, "मैं अभी पुरुष या महिला जैसा महसूस ही नहीं कर रही हूं. बल्कि मैं अभी इंसान जैसा भी महसूस नहीं कर रही हूं. यह अविश्वसनीय है."
तस्वीर: Tim Goode/empics/picture alliance
टेनिस की दुनिया का चमकता सितारा
1970 के दशक में बिली जीन किंग ने टेनिस में पुरुष और महिला खिलाड़ियों को एक जैसी पुरस्कार राशि देने के लिए संघर्ष किया था. 12 ग्रैंड स्लैम जीत चुकीं किंग ने कुछ और महिला खिलाड़ियों के साथ विरोध में अपनी अलग प्रतियोगिताएं ही शुरू कर दीं, जो आगे जाकर महिला टेनिस संगठन (डब्ल्यूटीए) बनीं. उनके संघर्ष का फल 1973 में मिला, जब पहली बार यूएस ओपन में एक जैसी पुरस्कार राशि दी गई.
तस्वीर: Imago Images/Sven Simon
हर चुनौती को हराया
कैथरीन स्विटजर बॉस्टन मैराथन में भाग लेने वाली और उसे पूरा करने वाली पहली महिला थीं. उस समय महिलाओं को इस मैराथन में सिर्फ 800 मीटर तक भाग लेने की इजाजत थी, जिसकी वजह से स्विटजर ने अपना पंजीकरण गुप्त रूप से करवाया था. इस तस्वीर में जैकेट और टोपी पहने गुस्साए हुए रेस के निर्देशक ने स्विटजर का रेस नंबर फाड़ देने की कोशिश की थी. उनके विरोध के कुछ साल बाद महिलाओं को लंबी दूरी तक दौड़ने की अनुमति मिली.
तस्वीर: picture alliance/dpa/UPI
दर्शकों की पसंद
इटली की साइक्लिस्ट अल्फोंसिना स्ट्राडा ने 1924 की जीरो दी इतालिया के लिए अल्फोंसिन स्ट्राडा के नाम से पंजीकरण करवा कर आयोजनकर्ताओं को चकमा दे दिया. उन्हें पता ही नहीं चला कि वो एक महिला हैं. बाद में जब उन्हें पता चला तो उसके बावजूद स्ट्राडा को रेस में भाग लेने की अनुमति दे दी गई और इस तरह वो पुरुषों की रेस को शुरू करने वाली अकेली महिला बन गईं.
तस्वीर: Imago Images/Leemage
छू लो आकाश
1990 के दशक तक महिलाएं स्की जंपिंग में हिस्सा नहीं ले सकती थीं, लेकिन 1994 में एवा गैंस्टर पहली महिला "प्री-जंपर" बनीं. 1997 में वो ऊंचे पहाड़ से छलांग लगाने वाली पहली महिला जंपर बनीं. पहला विश्व कप 2011 में आयोजित किया गया और ओलंपिक में यह खेल पहली बार 2014 में खेला गया.
तस्वीर: Imago Images/WEREK
आइस हॉकी में महिलाएं
मेनन ह्यूम ने 1992 में उत्तरी अमेरिका के लोकप्रिय नेशनल हॉकी लीग में हिस्सा लेने वाली पहली महिला बनकर इतिहास रच दिया. उन्होंने एक प्री सीजन मैच में एक पीरियड के लिए खेला लेकिन बाद में उसी साल वो बाकायदा सीजन में प्रोफेशनल मैच में खेलने वाली पहली महिला भी बनीं.
तस्वीर: Getty Images/S. Halleran
फुटबॉल में रेफरी
1993 में स्विट्जरलैंड की निकोल पेटिनात पुरुषों के चैंपियंस लीग फुटबॉल मैच में रेफरी बनने वाली पहली महिला बनीं. वो स्विस लीग, महिलाओं के विश्व कप और यूरोपीय चैंपियनशिप के फाइनल में भी रेफरी बनीं. हालांकि उनकी उपलब्धियों के बावजूद आज भी महिला रेफरियों की संख्या ज्यादा नहीं है. जर्मनी की बिबियाना स्टाइनहाउस इस मामले में अपवाद हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Pressefoto ULMER
महिला ड्राइवर
इटली की मारिया टेरेसा दे फिलिप्पिस उन दो महिलाओं में से एक हैं जिन्हें फार्मूला वन रेस में गाड़ी चलाने वाली महिला होने का गौरव हासिल है. 1958 से 1959 के बीच, मारिया ने तीन ग्रां प्री में भाग लिया. इटली की ही लैला लोम्बार्दी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलीं और 1974 से 1976 के बीच में 12 रेसों में हिस्सा लिया. उसके बाद से आज तक एफवन रेसों में महिलाएं हिस्सा नहीं ले पाई हैं.
तस्वीर: picture-alliance/empics
पुरुषों की कोच
कोरीन डाइकर चार अगस्त 2014 को पुरुषों की यूरोपीय फुटबॉल लीग में चोटी की दो श्रेणियों के एक मैच में कोच बनने वाली पहली महिला कोच बनीं. वो 2017 में फ्रांस की राष्ट्रीय महिला टीम की कोच भी बनीं. पुरुषों के फुटबॉल में आज भी उनकी अलग ही जगह है. आज भी कई महिला टीमों के कोच पुरुष हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
महिलाओं के लिए जीवन समर्पित
जर्मन फुटबॉल कोच मोनिका स्टाब एक सच्ची पथ प्रदर्शक हैं. वो पूरी दुनिया में घूम घूम कर महिलाओं और लड़कियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर रही हैं. उनका मानना है कि "खेलों में सकारात्मक फीडबैक आत्मविश्वास को बढ़ा देता है. जिंदगी से गुजरने के लिए यह आवश्यक है." - आंद्रेआस स्तेन-जीमंस