बिजली बचाने के चक्कर में मर रहे हैं हजारों लोगः शोध
७ फ़रवरी २०२३
बिजली बचाने और एयर कंडिशनर जैसी मशीनों के कम इस्तेमाल को जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए जरूरी बताया जा रहा है. लेकिन एक नया शोध बताता है कि बिजली बचाने को कहना कोई अच्छा आइडिया नहीं है.
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2011 में फुकुशिमा न्यूक्लियर रिएक्टर में हादसा होने के बाद जब जापान ने परमाणु बिजली का उत्पादन बंद करने का फैसला किया था तो उसने अपने देशवासियों से कहा था कि बिजली बचाएं क्योंकि अब ऊर्जा की कमी का सामना करना होगा. इसके लिए लोगों को कुछ सलाहें दी गई थीं जिनमें एक यह थी कि एयर कंडिशनर की जगह पंखे का इस्तेमाल करें.
वैसी ही कुछ अपील अब यूरोप के कई देशों में की जा रही हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते यूरोप के देश बिजली के संकट से जूझ रहे हैं और इसलिए लोगों से एयर कंडिशनर का इस्तेमाल ना करने की अपील की गई. लेकिन, एक रिसर्च के मुताबिक जापान में एसी का इस्तेमाल कम या बिल्कुल ना होने के कारण 7,710 लोगों की मौत समय से पहले हो गई.
कैसे हुआ अध्ययन?
इस अध्ययन में 2011 से 2015 के बीच बिजली बचाने के लिए उठाए गए उपायों का विश्लेषण किया गया है. आंकड़े दिखाते हैं कि भले ही इस नीति की मंशा भली थी लेकिन इसके कारण लोगों की सेहत के लिए कई खतरे पैदा हुए हैं और अक्षय ऊर्जा पर तेज निवेश इसका उपाय हो सकता है.
सौर ऊर्जा से गर्म होते घर खूब पैसा बचा रहे
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हांग कांग विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर गुओजुन ही इस अध्ययन के शोधकर्ताओं में शामिल थे. वह बताते हैं, "लोग अक्सर सोचते हैं कि ऊर्जा की बचत एक अच्छी चीज है. इससे पर्यावरण की सुरक्षा होती है और पैसा भी बचता है. लेकिन जापान से मिले आंकड़े दिखाते हैं कि लोगों को ऊर्जा का इस्तेमाल करने से रोकना बुरा हो सकता है.” प्रोफेसर गुओजुन ही कहते हैं कि नीतियों की लक्ष्य गंदी, क्षय ऊर्जा को अक्षय ऊर्जा से बदलना होना चाहिए ना कि ऊर्जा की खपत घटाना.
इस शोध की रिपोर्ट अमेरिकन इकनॉमिक जरनल में प्रकाशित हुई है. रिपोर्ट कहती है कि जापान में गर्मियों के मौसम में बिजली की कुल खपत का लगभग आधा एयर कंडिशनरों के कारण होता था. फुकुशिमा के बाद जब सरकार ने लोगों से एयर कंडिशनरों का इस्तेमाल घटाने को कहा तो बिजली की खपत 15 प्रतिशत घट गई.
लेकिन जब शोधकर्ताओं ने स्वास्थ्य संबंधी डेटा का विश्लेषण किया तो पाया कि ऊर्जा संरक्षण की कोशिश के दौरान हर साल लगभग 7,710 ज्यादा लोगों की जान गई और इनमें से ज्यादातर मौतें ज्यादा गर्म दिनों में हुईं. मरने वालों में ज्यादातर लोग 65 वर्ष से ऊपर के थे जो गर्मी से ज्यादा प्रभावित होते हैं. हालांकि शोध में यह भी पता चला कि युवाओं में जान ना लेने वाले हीट स्ट्रोक के मामलों की संख्या में उछाल आया था.
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अक्षय ऊर्जा की ओर ध्यान
प्रोफेसर ही कहते हैं कि जबकि पूरी दुनिया में जीवाश्म ईंधनों को खत्म करने की कोशिशें हो रही हैं और नीति-निर्माताओं पर ऐसी ऊर्जा के इस्तेमाल को घटाने का दबाव है, ऐसे में इस तरह के खतरों को समझना आवश्यक हो जाता है. वह कहते हैं कि आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण की रक्षा अहम है लेकिन आज जिंदा लोगों की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जानी चाहिए.
उन्होंने कहा, "जलवायु परिवर्तन संबंधी नीतियां बनाते और उन्हें लागू करते वक्त नीति-निर्माताओं को इस नुकसान का पता होना चाहिए. लोगों को ऊर्जा की खपत कम करने को कहना काफी बुरा विचार है, जबकि उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत हो. उन्हें ऐसी मशीनें खरीदने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जो ऊर्जा की कम खपत करती हैं."
जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में गर्मी के बहुत ज्यादा हो जाने की घटनाएं बढ़ी हैं. इस कारण बहुत से लोगों का जीवन खतरे में पड़ा है. ऐसा अमीर और गरीब दोनों ही देशों में हुआ है और वे समुदाय भी खतरे में हैं, जिन्हें पहले ऐसे खतरे से बाहर माना जाता था. 2021 में अमेरिका के वॉशिंगटन में अभूतपूर्व गर्मी पड़ी थी और तब 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे. सिएटल जैसे आमतौर पर ठंडे माने जाने वाले शहरों में भी तापमान 42 डिग्री तक पहुंच गया था.
अमीर देशों पर भी असर
विशेषज्ञ कहते हैं कि अमीर देशों में घरों और दफ्तरों को ठंडा रखने की बेहतर व्यवस्थाएं होती हैं और वे अत्याधिक गर्मी पड़ने पर हालात को संभालने में ज्यादा सक्षम होते हैं. लेकिन वहां भी तब बिजली की मांग बढ़ जाती है जब बहुत ज्यादा गर्मी पड़ती है. ऐसे में बिजलीघरों पर दबाव बढ़ता है और वे फेल हो सकते हैं. अन्य कुदरती आपदाओं जैसे बाढ़ या तूफान आदि से भी बिजलीघर फेल हो जाते हैं. ऐसे में लोग खतरे में पड़ जाते हैं.
जलवायु से जुड़े संकटों का साल रहा 2022
भीषण गर्मी और सूखा, जंगल की भयानक आग, तीखे तूफान और विनाशकारी बाढ़ - साल 2022 में जलवायु ने ऐसे रंग दिखाये कि विशेषण कम पड़ गये. इन तस्वीरों में देखिये बदलते जलवायु और मौसम की मुसीबतों का हाल.
तस्वीर: Thomas Coex/AFP
यूरोपः सबसे ज्यादा गर्म और अत्यधिक सूखा
यूरोप की गर्मियों ने 500 साल के सबसे ज्यादा गर्म मौसम से रूबरू कराया. स्पेन में तो लू चलने और 45 डिग्री से ऊपर के तापमान के कारण 500 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई. ब्रिटेन में भी तापमान 40 डिग्री के ऊपर गया. यूरोप की ज्यादातर नदियों के पानी में भारी कमी हुई और कई जगहों पर तो घरों में पानी की सप्लाई का कोटा तय करना पड़ गया.
तस्वीर: Thomas Coex/AFP
जलते जंगलों से तपता रहा यूरोप
पश्चिम में पुर्तगाल, स्पेन और फ्रांस से लेकर पूरब में इटली, ग्रीस और साइप्रस और उत्तर में साइबेरिया तक के जंगलों से उठती लाल लपटों ने यूरोप की गर्मी बढ़ाये रखी. साल के मध्य तक तकरीबन 660,000 हेक्टेयर जमीन पर दावानल ने तबाही मचाई. 2006 में रिकॉर्ड रखना शुरू होने के बाद यह सबसे ज्यादा है.
मानसून की भीषण बरसात से पाकिस्तान के करीब एक तिहाई हिस्से में पानी भर गया. बाढ़ के कारण 1100 से ज्यादा लोगों की जान गई, 3 करोड़ से ज्यादा लोग बेघर हुए और यह संक्रामक रोगों के फैलने का बड़ा कारण बन गया है. भारी बारिश ने अफगानिस्तान में भी काफी नुकसान किया. हजारों हेक्टेयर में फैली फसलें तबाह हो गईं और पहले से ही गरीबी का सामना कर रहे देश में भूख की समस्या और बढ़ गई.
तस्वीर: Stringer/REUTERS
एशिया में अत्यधिक गर्मी और तूफान भी
बाढ़ से पहले अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत ने अत्यधिक गर्मी और सूखे का सामना किया. इसी बीच चीन ने बीते 60 सालों का सबसे भयानक सूखा देखा और रिकॉर्ड रखना शुरू होने के बाद की सबसे भयानक लू. पतझड़ का मौसम आने से पहले ही 12 तूफानों ने यहां धावा बोला था. फिलिपींस, जापान, दक्षिण कोरिया और बांग्लादेश भी बड़े तूफानों की चपेट में आये. जलवायु परिवर्तन इन तूफानों की ताकत बढ़ा रहा है.
तस्वीर: Mark Schiefelbein/AP Photo/picture alliance
अफ्रीका की कमर तोड़ता जलवायु संकट
दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में अफ्रीका ज्यादा और तेजी से गर्म हो रहा है. यही वजह है कि बारिश का बदलता चक्र यहां सूखा और गर्मी की ज्यादा मुश्किलें ला रहा है. सोमालिया बीते 40 सालों के सबसे भयानक सूखे का सामना कर रहा है. संकट की वजह से लाखों लोग अपना घर छोड़ कर कहीं और जा कर रहने को मजबूर हुए हैं.
तस्वीर: ZOHRA BENSEMRA/REUTERS
अफ्रीका में अकाल और पलायन
बाढ़ और भयानक सूखे ने कृषि और मवेशीपालन को अफ्रीका के कई हिस्सों में असंभव बना दिया है इसके नतीजे में लाखों लोगों के सामने पेट भरने का संकट है. इथियोपिया, सोमालिया और केन्या में तो भूख के कारण पहले ही बहुत से लोगों की जान जा चुकी है.
तस्वीर: Dong Jianghui/dpa/XinHua/picture alliance
उत्तर अमेरिका की आग और बाढ़ ca
आंधी और तूफान ने अमेरिका के कैलिफोर्निया, नेवाडा और एरिजोना में खूब तबाही मचाई. गर्मियों के आखिरी महीनों में 40 डिग्री से ज्यादा तापमान ने लोगों को पसीने पसीने कर दिया. इसके साथ ही शुरुआती गर्मी के मौसम में भारी बारिश ने येलोस्टोन नेशनल पार्क और केंटकी में बाढ़ का संकट पैदा किया.
तस्वीर: DAVID SWANSON/REUTERS
तूफानों की तबाही
सितंबर में ईयान तूफान ने अमेरिकी राज्य फ्लोरिडा का काफी नुकसान किया स्थानीय अधिकारियों ने इसकी तीव्रता के आधार पर इसे 'ऐतिहासिक' कहा. इससे पहले ईयान ने क्यूबा को भी खूब परेशान किया, जहां लोगों को कई दिन तक बिना बिजली के गुजारने पड़े. फियोना तूफान लातिन अमेरिका और कैरेबिया में भारी नुकसान करने के बाद कनाडा पहुंचा. यह सबसे भयानक उष्णकटिबंधीय तूफान साबित हुआ.
तस्वीर: Giorgio Viera/AFP/Getty Images
मध्य अमेरिका में उष्णकटिबंधीय तूफान
मध्य अमेरिका तक पहुंचने वाले उष्णकटिबंधीय तूफानों में फियोना अकेला नहीं था. अक्टूबर में तूफान जूलिया ने कोलंबिया, वेनेजुएला, निकारागुआ, होंडुरास और अल सल्वाडोर को सताया और भारी नुकसान किया. वैश्विक तापमान बढ़ रहा है, सागर की सतह का तापमान बढ़ रहा है जो तूफानों को भयानक बना रहा है.
लगभग पूरे दक्षिण अमेरिकी महादेश को लगातार सूखे ने अपनी चंगुल में जकड़े रखा. उदाहरण के लिए चिली तो 2007 से ही बारिश की अत्यधिक कमी से जूझ रहा है. कई इलाकों में धाराएं और नदियां 50 से 90 फीसदी तक सूख गई हैं. मेक्सिको भी कई साल से बारिश के लिए तरस रहा है. अर्जेंटीना, ब्राजील, उरुग्वे, बोलिविया, पनामा और इक्वाडोर और कोलंबिया के लोग भी सूखे के साथ जी रहे हैं.
तस्वीर: IVAN ALVARADO/REUTERS
न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया पानी पानी
तेज बारिश के कारण ऑस्ट्रेलिया के कई इलाके 2022 में कई बार बाढ़ की चपेट में आये. जनवरी और मार्च के बीच देश के पूर्वी तट वाले इलाके में लगभग उतनी ही बारिश हुई जितनी जर्मनी में पूरे साल में होती है. न्यूजीलैंड भी बाढ़ से नहीं बच सका. अल नीना मौसम के तीखे तेवरों के लिए जिम्मेदार है लेकिन जलवायु परिवर्तन इसे और बढ़ा रहा है. गर्म वातावरण ज्यादा पानी सोखता है और बारिश को भारी बनाता है.
तस्वीर: Jenny Evans/Getty Images
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उदाहरण के लिए अमेरिका के फ्लोरिडा में 2017 में जब समुद्री तूफान इरमा आया था तो कई दिन तक बिजली नहीं थी. इस कारण नर्सिंग होम में रहने वाले करीब 28 हजार लोगों में मौत के मामलों में तेज वृद्धि देखी गई थी. जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में इस बारे में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई थी.
शोधकर्ता कहते हैं कि अक्षय ऊर्जा में निवेश की ज्यादा जरूरत है ताकि लोगों को एसी चलाने के लिए कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली सस्ती बिजली उपलब्ध कराई जा सके. ऐसा भारत जैसे उन देशों में तो बहुत ज्यादा जरूरी है जहां गर्मी के कारण पहले ही मौतों की संख्या बहुत अधिक है. प्रोफेसर ही कहते हैं कि अमेरिका के मुकाबले भारत में गर्मी के कारण मरने की दर 20 से 30 फीसदी ज्यादा है क्योंकि लोगों के पास बिजली नहीं है. वह कहते हैं, "गरीब देशों को इस सवाल का जवाब समस्या पैदा होने से पहले ही खोज लेना चाहिए.”