पंजाब की प्रमुख राजनीतिक पार्टी शिरोमणि अकाली दल ने 14 दिसंबर को अपने सौ साल पूरे कर लिए. इस पार्टी ने पंजाब की राजनीति में अहम भूमिका निभाई लेकिन आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती दिख रही है.
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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत में सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है जिसकी स्थापना साल 1885 में हुई. उसके करीब 35 साल बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई की स्थापना हुई. सीपीआई की स्थपाना के दो महीने बाद शिरोमणि अकाली दल का गठन हुआ.
भारतीय स्वाधीनता संग्राम का यह वो दौर था जब महात्मा गांधी आंदोलन की रीढ़ बन चुके थे. सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन न सिर्फ अंग्रेजी शासन के खिलाफ हो रहा था बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने, शोषक जमींदारों से मुक्ति, मंदिरों में दलितों के प्रवेश और गुरुद्वारों को कुछ लोगों की मुट्ठी से छुड़ाने के लिए भी शुरू हो चुका था.
तस्वीरेंः पाकिस्तान में भव्य मंदिर
पाकिस्तान में हिंदुओं का ऐतिहासिक भव्य मंदिर
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के चकवाल जिले में कोहिस्तान नामक पर्वत श्रृंखला में कटासराज नाम का एक गांव है. यह गांव हिंदुओं के लिए बहुत ऐतिहासिक और पवित्र है. इसका जिक्र महाभारत में भी मिलता है. आइए जानें इसकी विशेषता.
तस्वीर: Ismat Jabeen
कई मंदिर
कटासराज मंदिर परिसर में एक नहीं, बल्कि कम से कम सात मंदिर है. इसके अलावा यहां सिख और बौद्ध धर्म के भी पवित्र स्थल हैं. इसकी व्यवस्था अभी एक वक्फ बोर्ड और पंजाब की प्रांतीय सरकार का पुरातत्व विभाग देखता है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
पहाड़ी इलाके में मंदिर
कोहिस्तान नमक का इलाका छोटी-बड़ी पहाड़ियों से घिरा है. ऊंची पहाड़ियों पर बनाए गए इन मंदिरों तक जाने के लिए पहाड़ियों में होकर बल खाते पथरीले रास्ते हैं. इस तस्वीर में कटासराज का मुख्य मंदिर और उसके पास दूसरे भवन दिख रहे हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
सबसे ऊंचे मंदिर से नजारा
कटासराज की ये तस्वीर वहां के सबसे ऊंचे मंदिर से ली गई है जिसमें मुख्य तालाब, उसके आसपास के मंदिर, हवेली, बारादरी और पृष्ठभूमि में मंदिर के गुम्बद भी देखे जा सकते हैं. बाएं कोने में ऊपर की तरफ स्थानीय मुसलमानों की एक मस्जिद भी है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
नहीं रही हिंदू आबादी
कटासराज मंदिर के ये अवशेष चकवाल शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर दक्षिण में हैं. बंटवारे से पहले यहां हिंदुओं की अच्छी खासी आबादी रहती थी लेकिन 1947 में बहुत से हिंदू भारत चले गए. इस मंदिर परिसर में राम मंदिर, हनुमान मंदिर और शिव मंदिर खास तौर से देखे जा सकते हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
शिव और सती का निवास
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव ने सती से शादी के बाद कई साल कटासराज में ही गुजारे. मान्यता है कि कटासराज के तालाब में स्नान से सारे पाप दूर हो जाते हैं. 2005 में जब भारत के उप प्रधानमंत्री एलके आडवाणी पाकिस्तान आए तो उन्होंने कटासराज की खास तौर से यात्रा की थी.
तस्वीर: Ismat Jabeen
शिव के आंसू
हिंदू मान्यताओं के अनुसार जब शिव की पत्नी सती का निधन हुआ तो शिव इतना रोए कि उनके आंसू रुके ही नहीं और उन्हीं आंसुओं के कारण दो तालाब बन गए. इनमें से एक पुष्कर (राजस्थान) में है और दूसरा यहां कटाशा है. संस्कृत में कटाशा का मतलब आंसू की लड़ी है जो बाद में कटास हो गया.
तस्वीर: Ismat Jabeen
गणेश
हरी सिंह नलवे की हवेली की एक दीवार पर गणेश की तस्वीर, जिसमें वो अन्य जानवरों को खाने के लिए चीजें दे रहे हैं. ऐसे चित्रों में कोई न कोई हिंदू पौराणिक कहानी है. कटासराज के निर्माण में ज्यादातर चूना इस्तेमाल किया गया है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
धार्मिक महत्व
पुरातत्वविद् कहते हैं कि इस तस्वीर में नजर आने वाले मंदिर भी नौ सौ साल पुराने हैं. लेकिन पहाड़ी पर बनी किलेनुमा इमारत इससे काफी पहले ही बनाई गई थी. तस्वीर में दाईं तरफ एक बौद्ध स्तूप भी है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
प्राकृतिक चश्मे
कटासराज की शोहरत की एक वजह वो प्राकृतिक चश्मे हैं जिनके पानी से गुनियानाला वजूद में आया. कटासराज के तालाब की गहराई तीस फुट है और ये तालाब धीरे धीरे सूख रहा है. इसी तालाब के आसपास मंदिर बनाए गए हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
खास निर्माण शैली
कटासराज की विशिष्ट निर्माण शैली और गुंबद वाली ये बारादरी अन्य मंदिरों के मुकाबले कई सदियों बाद बनाई गई थी. इसलिए इसकी हालत अन्य मंदिरों के मुकाबले में अच्छी है. पुरातत्वविदों के अनुसार कटासराज का सबसे पुराना मंदिर छठी सदी का है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
दीवारों पर सदियों पुराने निशान
ये खूबसूरत कलाकारी एक हवेली की दीवारों पर की गई है जो यहां सदियों पहले सिख जनरल हरी सिंह नलवे ने बनवाई थी. इस हवेली के अवशेष आज भी इस हालत में मौजूद हैं कि उस जमाने की एक झलक बखूबी मिलती है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
नलवे की हवेली के झरोखे
सिख जनरल नलवे ने कटासराज में जो हवेली बनवाई, उसके चंद झरोखे आज भी असली हालत में मौजूद हैं. इस तस्वीर में एक अंदरूनी दीवार पर झरोखे के पास खूबसूरत चित्रकारी नजर आ रही है. कहा जाता है कि कटासराज का सबसे प्राचीन स्तूप सम्राट अशोक ने बनवाया था.
तस्वीर: Ismat Jabeen
बीती सदियों के प्रभाव
इस तस्वीर में कटासराज की कई इमारतें देखी जा सकती हैं, जिनमें मंदिर भी हैं, हवेलियां भी हैं और कई दरवाजों वाले आश्रम भी हैं. इस तस्वीर में दिख रही इमारतों पर बीती सदियों के असर साफ दिखते हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
सदियों का सफर
इस स्तूपनुमा मंदिर में शिवलिंग है. भारतीय पुरातत्व सर्वे की 19वीं सदी के आखिर में तैयार दस्तावेज बताते हैं कि कटासराज छठी सदी से लेकर बाद में कई दसियों तक हिंदुओं का बेहद पवित्र स्थल रहा है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
मूंगे की चट्टानें
कटासराज के मंदिरों और कई अन्य इमारतों में हिस्सों में मूंगे की चट्टानों, जानवरों की हड्डियों और कई पुरानी चीजों के अवशेष भी देखे जा सकते हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
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सीपीआई की स्थापना रूसी क्रांति से प्रभावित थी जबकि शिरोमणि अकाली दल पर गांधी की अहिंसात्मक संघर्ष की नीति का प्रभाव था और जिस तरह से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आंदोलन की उपज थी, उसी तरह यह पार्टी भी गुरुद्वारों में भ्रष्ट महंतों के खिलाफ हुए संघर्ष और गुरुद्वारों की मुक्ति के लिए चले आंदोलन से जन्मी थी. गुरुद्वारों का संचालन उस वक्त निजी तौर पर होता था और उनका नियंत्रण भी कुछेक महंतों के हाथ में होता था.
महंतों के खिलाफ अभियान
इतिहासकार बिपिन चंद्र ने अपनी पुस्तक ‘भारत का स्वाधीनता संघर्ष' में लिखा है कि केश न रखने के कारण मुगल इन महंतों को हिंदू समझते थे और इस वजह से ये महंत मुगलों के कोपभाजन होने से बचते रहे. लेकिन समय के साथ ये महंत भ्रष्ट होते गए और गुरुद्वारों में आने वाले चढ़ावे को निजी संपत्ति मान उसका दुरुपयोग करते रहे.
1920 के दशक में इन महंतों के खिलाफ सिख सुधारकों ने गांधीवादी तरीके से अभियान चलाया और न चाहते हुए भी अंग्रेज सिख गुरुद्वारा अधिनियम, 1925 लाने पर मजबूर हुए. साल 1920 में गुरुद्वारों को महंतों से आजाद कराने के लिए 175 सदस्यीय एक टास्क फोर्स का गठन किया गया जिसे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी नाम दिया गया.
संघर्ष का नेतृत्व करने, बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों को आंदोलन से जोड़ने और आंदोलन को सुनियोजित तरीके से चलाने के लिए 14 दिसंबर 1920 को अकाली दल का गठन हुआ जो बाद में शिरोमणि अकाली दल बन गया. बिपिन चंद्र लिखते हैं कि महंतों के खिलाफ लोगों में गुस्से की कुछ तात्कालिक वजहें भी थीं. चूंकि इन्हें ब्रिटिश हुकूमत का पूरा समर्थन मिलता था इसलिए ये महंत भी सरकार का साथ देते थे.
अपनी धरती के लिए सड़क पर भारतीय किसान
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साल 1920 में ही दो घटनाओं ने आग में घी डालने का काम किया. पहली घटना में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से एक फरमान जारी हुआ जिसमें विदेशों में रहकर अंग्रेजी सरकार के खिलाफ संघर्ष कर रहे गदर आंदोलन से जुड़े क्रांतिकारियों को विद्रोही घोषित कर दिया गया और दूसरी घटना यह हुई कि साल 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग में नरसंहार करने वाले जनरल डायर को सरोपा भेंट करके उन्हें सिख घोषित कर दिया गया.
आंदोलन यूं तो अहिंसक रहा लेकिन 20 फरवरी 1921 को ननकाना साहब गुरुद्वारे में प्रवेश करने की कोशिश रहे अकालियों पर गोली चलाई गई जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए. हालांकि अकाली इस गुरुद्वारे में प्रवेश करने में सफल रहे. आंदोलन को अपना समर्थन देने के लिए खुद महात्मा गांधी ननकाना साहब पहुंचे और उनके साथ मौलाना शौकत अली के अलावा कई बड़े नेताओं ने इस आंदोलन के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित की. अकाली दल और और एसजीपीसी ने असहयोग आंदोलन को समर्थन दिया और स्वतंत्रता संघर्ष में कांग्रेस और गांधी जी के साथ रहे. साल 1925 में गुरुद्वारों का नियंत्रण एसजीपीसी के हाथ में आ गया.
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भारत की पहली जीत
महात्मा गांधी ने आंदोलन के नेता बाबा खड़ग सिंह को अंग्रेजों द्वारा स्वर्ण मंदिर की चाबियां सौंपे जाने की घटना को अंग्रेजों से आजादी के लिए चल रहे संघर्ष में भारत की पहली जीत बताया. करीब बीस साल तक अकाली दल और कांग्रेस मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते रहे. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन से पहले तक कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल की दोहरी सदस्यता आम बात थी. यहां तक कि बाबा खड़ग सिंह भी 1922 में अकाली दल का अध्यक्ष बनने के बाद भी पंजाब में कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता रहे.
सिखों की लड़ाई लड़ने वाले शिरोमणि अकाली दल ने साल 1937 में पहली बार चुनावी मैदान में कदम रखा और पंजाब में 10 सीटें हासिल कीं. साल 1947 में जब मजहब के आधार पर देश का बंटवारा हुआ तो शिरोमणि अकाली दल के तत्कालीन प्रमुख मास्टर तारा सिंह ने इसका विरोध किया. पूर्व राज्यसभा सदस्य तरलोचन सिंह ने कुछ समय पहले संसद में कहा था कि यदि तारा सिंह ने विभाजन के समय पाकिस्तान में एक सिख राज्य के लिए जिन्ना के कुछ देने के बदले कुछ लेने की मंशा को खारिज न किया होता तो पूरा पंजाब पाकिस्तान में चला गया होता. दरअसल साल 1930 से 1965 तक सिख राजनीति के सर्वेसर्वा बाबा खड़ग सिंह के उत्तराधिकारी मास्टर तारा सिंह ही थे.
साल 1950 के दशक में देश भर में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग तेज हुई तो इस आंदोलन की आंच पंजाब पर भी आई. आंदोलन यहां भी चला लेकिन साल 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर जिन राज्यों की स्थापना हुई, उसमें पंजाब का नाम नहीं था. पंजाब को साल 1966 में अलग राज्य का दर्जा मिला और अगले साल हुए विधानसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल के नेता गुरनाम सिंह राज्य के पहले अकाली मुख्यमंत्री बने.
पाकिस्तान के करतारपुर कॉरिडोर की खासियत क्या है
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव का जन्म मौजूदा पाकिस्तान में हुआ और वहीं उन्होंने आखिरी सांस भी ली. वह जहां पैदा हुए, उसे आज ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है और उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी साल करतारपुर में बिताए.
तस्वीर: AFP/Getty Images/N. Nanu
सिख धर्म के संस्थापक
माना जाता है कि गुरु नानक का जन्म 15 अप्रैल 1469 को तलवंडी नाम के एक कस्बे में हुआ. पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित यह कस्बा अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है. उनका निधन 22 सितंबर 1539 को करतारपुर में हुआ. उन्होंने अपने जीवन के लगभग आखिरी 18 साल यहीं पर बिताए.
दरबार साहिब करतारपुर को पाकिस्तान में सिखों के सबसे पवित्र स्थलों में गिना जाता है. ननकाना साहिब में जहां गुरु नानक पैदा हुए, वहां गुरुद्वारा जनम अस्थान है. इसके अलावा गुरुद्वारा पंजा साहिब और गुरुद्वारा सच्चा सौदा पाकिस्तान में स्थित सिखों के अन्य पवित्र स्थल हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Ali
दरबार साहिब करतार पुर
सिखों के पहले गुरु नानक देव जी ने करतारपुर गुरुद्वारे की बुनियाद 1504 में रखी. जहां रावी नदी पाकिस्तान में दाखिल होती है, उसके पास ही यह गुरुद्वारा स्थित है. उन्होंने अपने जीवन का आखिरी समय इस जगह पर बिताया, इसलिए सिखों के लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/K.M. Chaudary
श्री करतारपुर साहिब
दुनिया भर के सिखों की ओर से लंबे समय से करतारपुर कॉरिडोर खोलने की मांग चली आ रही थी. इससे पहले वे भारतीय पंजाब से दूरबीनों की मदद से करतारपुर गुरुद्वारे के दर्शन करते थे. तस्वीर में आप इस गुरुद्वारे का एक मॉडल देख सकते हैं जिसे गुरदीप सिंह नाम के एक कलाकार ने बनाया है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Nanu
करतारपुर कॉरीडोर
भारतीय पंजाब में स्थित डेरा बाबा नानक साहब को पाकिस्तान में पड़ने वाले दरबार साहिब से जोड़ने वाले कॉरिडोर को करतारपुर कॉरिडोर का नाम दिया गया है. यह लगभग पांच किलोमीटर लंबी सड़क है. सिख अनुयायी खास वीजा लेकर इसका इस्तेमाल कर सकते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Ali
गुरु नानक की 550वीं जयंती
गुरु नानक देव की 550वीं जयंती पर दुनिया भर में कार्यक्रम हुए. इसी मौके पर करतारपुर कॉरिडोर को खोला गया. अनुमान है कि दुनिया भर के 50 हजार सिखों ने इस आयोजन में हिस्सा लिया.
तस्वीर: PID
इमरान खान का फैसला
इमरान खान ने प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद ही करतारपुर कॉरिडोर को खोलने का फैसला किया था. इसे बनाने का काम नवंबर 2018 में शुरू हुआ. कॉरिडोर बनाने के अलावा यात्रियों के रुकने की व्यवस्था और गुरुद्वारे की साज सज्जा का काम रिकॉर्ड समय में पूरा किया गया.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/K.M. Chaudary
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साल 1975 में लगे आपातकाल का सबसे पहला विरोध शिरोमणि अकाली दल की ओर से किया गया और प्रकाश सिंह बादल, गुरचरण सिंह टोहड़ा, जगदेव सिंह तलवंडी जैसे कई प्रमुख नेता गिरफ्तार किए गए थे. अकाली दल के इंदिरा गांधी से रिश्ते यहीं से बिगड़ने लगे. इंदिरा गांधी ने सत्ता में लौटने के बाद साल 1978 में बनी अकाली सरकार को भंग कर दिया.
आतंकवाद का दौर
1980 के दशक में पंजाब अलगाववाद और उग्रवाद के साये में रहा. साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्थितियां और बिगड़ गईं. अकाली दल को भी कट्टरपंथी राजनीति का सामना करना पड़ा लेकिन उग्रवाद के खात्मे के बाद स्थितियां बदलने लगीं और शिरोमणि अकाली दल एक बार फिर मुख्य धारा की राजनीति में सक्रिय हो गई. कभी कांग्रेस के साथ रहने वाली पार्टी अब कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी हो गई और साल 1996 में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो गई जो पिछले साल कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुए किसान आंदोलन की शुरुआत तक चलता रहा.
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल कई बार सत्ता में रही है लेकिन साल 1970 में प्रकाश सिंह बादल के मुख्यमंत्री बनने के बाद से पार्टी में पूरी सत्ता उनके परिवार के ही पास केंद्रित हो गई है. साल 1992 में शिरोमणि अकाली दल ने विधानसभा चुनाव का बहिष्कार कर दिया, लेकिन साल 1997 में बीजेपी के साथ मिलकर भारी बहुमत से सत्ता में वापसी की. तब से लेकर साल 2021 तक पार्टी ने तीन बार सरकारें बनाईं और तीनों बार प्रकाश सिंह बादल ही मुख्यमंत्री बने.
प्रकाश सिंह बादल के बेटे सुखबीर सिंह बादल पिछली सरकार में राज्य के उप मुख्यमंत्री के साथ पार्टी के अध्यक्ष भी रहे. सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री भी थीं लेकिन पिछले साल कृषि कानूनों क विरोध में उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अकाली दल ने एनडीए से अलग होने की भी घोषणा कर दी. हालांकि कृषि कानूनों की वापसी के बाद पार्टी के एनडीए में शामिल होने के फिर कयास लगाए जा रहे हैं लेकिन जानकारों का कहना है कि ऐसा होना फिलहाल मुश्किल दिख रहा है.
सौ साल पुरानी यह पार्टी भले ही एक क्षेत्रीय दल के रूप में ही खुद को दर्ज करा सकी लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में भी कई मौकों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. फिलहाल परिवारवाद के संकट से जूझने के अलावा उसे कांग्रेस पार्टी के साथ साथ आम आदमी पार्टी से भी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. साल 2022 के चुनाव पार्टी के राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करने वाले होंगे.
कोरोना काल में लोगों का पेट भरते दिल्ली के गुरुद्वारे
भारत में करीब दो करोड़ सिख रहते हैं. पंजाब के बाद इनकी सबसे बड़ी तादाद दिल्ली में है. यहां गुरुद्वारे कोरोना संकट के बीच गरीब लोगों तक खाना पहुंचा रहे हैं. सिख धर्म में "सेवा" को बड़ी अहमियत दी जाती है.
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खाली पड़े रहे गुरुद्वारे
कोरोना लॉकडाउन के बीच सभी धार्मिक स्थल बंद पड़े थे. इस दौरान श्रद्धालुओं के बिना भी दिल्ली के गुरुद्वारों में पूजा अर्चना जारी रही. साथ ही ये गुरुद्वारे जरूरतमंद लोगों के लिए लंगर सेवा भी आयोजित करते रहे.
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जगह जगह सैनिटाइजर
अब जब मंदिर-गुरुद्वारों को दोबारा खुलने की अनुमति मिली है, तो दिल्ली के बंगला साहिब गुरद्वारे में जगह जगह सैनिटाइजर लगे नजर आ रहे हैं. गुरुद्वारे के दर्शन के लिए मास्क पहनना अनिवार्य है. यहां लोगों का तापमान भी चेक किया जा रहा है.
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लंगर की तैयारी
सुबह तीन बजे से लंगर की तैयारी शुरू हो जाती है. यहां करीब एक लाख लोगों के लिए खाना पकाया जाता है. हर रोज दाल, रोटी और चावल तैयार किया जाता है. इसके लिए पैसे दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी और लोगों के चढ़ावे से आते हैं.
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खाली हाथ नहीं
सिख धर्म में माना जाता है कि श्रद्धालुओं को गुरु के द्वार से खाली हाथ नहीं लौटाया जा सकता. वह अपने साथ तीन चीजें ले जाता है: गुरु की सीख, गुरु का प्रसाद और लंगर.
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बांटने की तैयारी
दिल्ली और एनसीआर में बीस अलग अलग जगहों पर यह लंगर बांटा जा रहा है. गुरुद्वारे के सेवक (वॉलंटियर) पता लगाते हैं कि किन इलाकों में इसकी ज्यादा जरूरत है. कई बार स्थानीय एनजीओ और सरकार भी जानकारी देते हैं.
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जरूरतमंदों के लिए
ट्रकों के आने से पहले ही लंबी कतारें लगने लगती हैं. इनमें महिला, पुरुष, बच्चे, वृद्ध सब शामिल होते हैं. खास कर गरीब और विकलांगों को इससे फायदा मिलता है. कोरोना संकट के दौर में कुछ लोगों को राशन भी मुहैया कराया जा रहा है.
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दो तरह की कतारें
एक कतार उन लोगों की जिन्हें किसी अतिरिक्त मदद की जरूरत ना हो और दूसरी वृद्ध, विकलांग और महिलाओं की. सोशल डिस्टेंसिंग की कोशिश जरूर की जाती है लेकिन भीड़ के बीच अक्सर यह मुमकिन नहीं हो पाता.
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गुरुद्वारों से उम्मीद
इन ट्रकों से खाना ले रहे कई लोगों के लिए यह दिन भर में खाना खाने का एकमात्र मौका है. कुछ लोग प्लास्टिक की थैलियों में खाना भर कर परिवार वालों के लिए ले जाते हैं, तो कुछ शाम के लिए बचा लेते हैं.