अब लखनवी बिरयानी-कबाब में नहीं रहेगा वो स्वाद?
१ सितम्बर २०२४उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ अपनी अवधी संस्कृति और मुगलई खाने के लिए मशहूर है. पुराने लखनऊ की गलियां आज भी लखनवी बिरयानी, कबाब और पसंदे की खुशबू से गुलजार रहती हैं. यहां कोयले की भट्ठियों और तंदूर का खासा इस्तेमाल होता है. कई व्यंजन खासतौर पर कोयले की आंच में सेंके जाते हैं. कोयले के कारण प्रकृति और पर्यावरण को होने वाले नुकसान और बढ़ते वायु प्रदूषण के मद्देनजर अब लखनऊ प्रशासन रेस्तरांओं में कोयले के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की योजना बना रहा है.
क्या है मामला?
लखनऊ में प्रदूषण एक गंभीर समस्या है. स्थानीय नगर निगम ने ऊर्जा और संसाधन संस्थान (टेरी) द्वारा कराए गए हालिया सर्वे में पाया कि शहर की हवा बेहद खराब हो चुकी है. इस समस्या से निपटने के लिए शहर के अंदर कोयले के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की बात कही जा रही है.
लखनऊ नगर निगम फिलहाल एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत शहर के तमाम रेस्तरांओं और ढाबों पर जाकर कोयले और तंदूर का इस्तेमाल बंद करने के लिए लोगों को जागरूक कर रहा है. कोयले की जगह गैस, यानी एलपीजी के इस्तेमाल की सलाह दी जा रही है.
कल हसदेव कैसा वीभत्स होगा, कोरबा में आज दिखता है!
सैय्यद फहीम अख्तर, लखनऊ के मशहूर टुंडे कबाब रेस्तरां के कपूरथला ब्रांच में मैनेजर हैं. प्रशासन की इस कवायद पर वह कहते हैं, "यह पहल अच्छी है, लेकिन एलपीजी के भी अपने नुकसान हैं. लखनऊ के कई व्यंजन अपने खास स्वाद की वजह से ही मशहूर हैं. अगर तंदूर और कोयले पर रोक लगा दी जाएगी, तो हम अपनी सदियों पुरानी कला भी खो देंगे."
लखनऊ की आबो-हवा
सीएसआईआर-आईआईटीआर ने अपनी एक हालिया रिपोर्ट में लखनऊ शहर की वायु गुणवत्ता का आकलन किया है. संस्थान ने शहर के नौ स्थानों पर पीएम10, पीएम2.5, सल्फर डाइ ऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड समेत अन्य तत्वों का पता लगाने के लिए अप्रैल-मई के महीने में वायु गुणवत्ता सर्वेक्षण किया.
भारत समेत पूरी दुनिया में बढ़ रही एसी की मांग, बढ़ाएगी कोयले की खपत
अध्ययन में यह पाया गया कि साल 2020 से 2022 के दौरान लखनऊ की हवा में मौजूद पीएम10 और पीएम2.5 की सांद्रता बढ़ी. पिछले साल इसमें कुछ कमी जरूर आई, लेकिन इस साल फिर से वृद्धि दर्ज की गई. सभी आवासीय, व्यावसायिक और औद्योगिक स्थलों पर पीएम10 और पीएम2.5 का स्तर पिछले साल के आंकड़ों की तुलना में ज्यादा पाया गया.
क्यों बढ़ रहा है वायु प्रदूषण
लखनऊ के वातावरण में कणीय (पीएम) प्रदूषण में वृद्धि का मुख्य कारण अत्यधिक गर्मी बताया गया है. बढ़ा हुआ तापमान वायुमंडलीय हवा को शुष्क कर देता है और हवा की गति को बढ़ा देता है, जिससे ढीली और हल्की मिट्टी वायुमंडल में फैल जाती है. इसके अलावा शहर में चल रही विकास गतिविधियां भी जिम्मेदार हैं.
शहर में पंजीकृत वाहनों की संख्या और जीवाश्म ईंधन की खपत में नियमित वार्षिक वृद्धि से भी वायु प्रदूषण पर असर पड़ा है. आरटीओ लखनऊ द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, मार्च 2024 तक शहर में कुल पंजीकृत वाहनों की संख्या 29,79,734 है. पिछले साल की तुलना में यह संख्या करीब छह फीसदी ज्यादा है.
क्या कहते हैं स्थानीय लोग
लखनऊ के मशहूर जायकों, जैसे - कबाब, बिरयानी, यखनी, पसंदा जैसे व्यंजनों को पारंपरिक तौर पर कोयले पर पकाया जाता है. प्रशंसकों के मुताबिक, इससे न सिर्फ इन व्यंजनों का स्वाद बेहतर होता है, बल्कि एक खास खशबू भी पैदा होती है. कबाब का लुत्फ उठाने टुंडे की दुकान पर आईं जिमिशा कहती हैं, "लखनऊ वाले मुगलई खाने को धीरे-धीरे पकाने में यकीन रखते हैं, ताकि मांस के अंदर की नमी बरकार रहे. इसीलिए कोयले का इस्तेमाल किया जाता है. इसे अगर बंद कर दिया गया, तो जायके में थोड़ा फर्क जरूर आ जाएगा."
भारत: अक्षय ऊर्जा लक्ष्य हासिल करने के लिए चाहिए 24,440 अरब रुपये
लखनऊ को बेहद करीब से जानने वाले मशहूर किस्सागो हिमांशु बाजपेयी कहते हैं, "कोयले पर बनी हुई चीजों की लज्जत गैस पर बनी चीजों में नहीं आ पाएगी. खाना लखनऊ की संस्कृति से जुड़ा पक्ष है, इसलिए अगर कोई इसकी चिंता कर रहा है तो वह एक सांस्कृतिक चिंतन कर रहा है."
हिमांशु आगे कहते हैं कि अगर शहर में प्रदूषण को लेकर चिंता है, तो सबसे पहले कोयला आधारित सभी बिजलीघरों पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए. हिमांशु यह भी सवाल उठाते हैं कि लखनऊ से गुजरने वाली गोमती नदी के प्रदूषण पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा है.
प्रशासन की तैयारी
नगर निगम का लक्ष्य फिलहाल लखनऊ के रेस्तरां और ढाबों पर कोयले और तंदूर का इस्तेमाल बंद करवाना है. हालांकि, प्रशासन ने इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की है.
पर्यावरण अभियंता संजीव प्रधान ने डीडब्ल्यू को बताया कि अभी ऐसे रेस्तरां और ढाबों की पहचान की जा रही है, जहां कोयले और तंदूर का इस्तेमाल हो रहा है. इनके मालिकों से बात कर उन्हें कोयले का इस्तेमाल बंद करने के लिए राजी किया जा रहा है. यह प्रोजेक्ट अगले छह महीने तक चलेगा और लोगों को कोयले के दुष्प्रभावों के बारे में जागरूक किया जाएगा.