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नए वीपीएन नियमों के विरोध में भारत छोड़ रही हैं कंपनियां

२ जून २०२२

भारत में नए वीपीएन नियम लागू हो रहे हैं. इन नियमों का पालन करने के बजाय कई कंपनियों ने भारत छोड़ना बेहतर समझा है. कई कंपनियां ऐसा करने पर विचार कर रही हैं.

भारत में बढ़ती पाबंदियों पर चिंता
भारत में बढ़ती पाबंदियों पर चिंतातस्वीर: Jagadeesh NV/dpa/picture alliance

हाल के सालों में भारत में वीपीएन का प्रयोग काफी बढ़ा है. वीपीएन की बदौलत इंटरनेट यूजर एक आभासी सुरंग के जरिए मुफ्त इंटरनेट तक पहुंच सकते हैं. यानी वीपीएन सेवाएं डाटा को इनक्रिप्ट कर देती हैं और उसका लेनदेन पकड़ में नहीं आता है. चूंकि भारत में हाल के दिनों में इंटरनेट और सूचना पर सरकारी सख्ती काफी बढ़ी है और असहमतियों को दबाने की कोशिश जैसे आरोप भी सरकार पर लग रहे हैं, तो बहुत से लोग इंटरनेट की अपनी गतिविधियों को गोपनीय रखने के लिए वीपीएन का इस्तेमाल कर रहे हैं.

लेकिन, अब कई वीपीएन सेवा प्रदाता कंपनियां भारत छोड़ रही हैं या ऐसा विचार कर रही हैं. वजह है भारत सरकार के नए नियम, जो वीपीएन पर लगाम कसने के प्रावधान रखते हैं. सरकार का कहना है कि यह सख्ती साइबर सुरक्षा बढ़ाने के मकसद से की जा रही है लेकिन कंपनियों का कहना है कि ये नियम सरकार द्वारा प्रताड़ना को जगह दे सकते हैं और ग्राहकों के डेटा को खतरे में डाल सकते हैं.

बढ़ रहा है डेटा ब्रीच

इस महीने से लागू होने वाले नियमों के तहत वीपीएन सेवा प्रदाताओं को ग्राहकों के डेटा और आईपी एड्रेस पांच साल तक संभाल कर रखने होंगे. वे तब भी डेटा को डिलीट नहीं कर सकते, जबकि ग्राहक ने सेवाएं लेनी बंद कर दी हों. एक्सप्रेस वीपीएन कंपनी के उपाध्यक्ष हैरल्ड ली कहते हैं कि ये नियम डिजिटल अधिकारों पर हमला हैं. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से बातचीत में ली ने कहा, "ऑनलाइन प्राइवेसी, गुमनामी और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए वीपीएन एक महत्वपूर्ण औजार है इसलिए ये पाबंदियां डिजिटल अधिकारों पर हमले का प्रतीक हैं.”

जानें कैसे काम करता है वीपीएन

ली ने बताया, "नए कानून की सीमाएं बहुत विस्तृत हैं और वे इस कदर फैले हुए हैं कि संभावित प्रताड़नाओं के नए खतरे पैदा करते हैं. हम अपने ग्राहकों का डाटा खतरे में डालने को तैयार नहीं हैं. इसलिए हमने स्पष्ट फैसला किया है कि हम अपने भारत स्थित वीपीएन सर्वर यहां से हटा रहे हैं.”

ऐटलस वीपीएन द्वारा जारी एक वैश्विक इंडेक्स के मुताबिक वीपीएन इस्तेमाल करने के मामले भारत दुनिया के टॉप 20 देशों में है. 2020-21 में दुनियाभर में वीपीएन के इस्तेमाल में वृद्धि देखी गई और भारत भी इससे अछूता नहीं था. हालांकि इसकी मुख्य वजह घर से काम करने के दौरान कर्मचारियों को मिलने वाली कंपनियों की इंटरनेट सुविधाओं को और ज्यादा सुरक्षा प्रदान करना रहा लेकिन बहुत से सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार, वकील और विसलब्लोअर्स आदि भी अब वीपीएन का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं.

जाना है तो जाएं - सरकार

भारत में वीपीएन के इस्तेमाल के साथ-साथ डेटा उल्लंघन की घटनाएं भी बढ़ी हैं और देश में साइबर सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया है. डेटा ब्रीच के मामले में भारत 2021 में दुनिया में तीसरे नंबर पर था. सर्फशार्क की एक रिपोर्ट कहती है कि सालभर में 8.7 करोड़ ग्राहकों के डेटा पर हमले हुए.

अप्रैल में इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रेस्पॉन्स टीम ने एक आदेश जारी किया जिसके तहत कंपनियों छह घंटे के भीतर डेटा ब्रीच की सूचना अधिकारियों को देने और आईटी व कम्यूनिकेशन की डिटेल छह महीने तक संभाल कर रखने के निर्देश दिए गए. ऐसा ना करना अब अपराध होगा जिसके लिए जेल तक हो सकती है.

इंटरनेट की दुनिया में वीपीएन

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तकनीकी कंपनियां और निजता अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता इस आदेश को लेकर चिंतित हैं लेकिन सरकार इस मामले में जरा भी झुकने को तैयार नहीं है. आईटी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने पिछले महीने ही पत्रकारों से कहा था, "अगर आप ये नियम नहीं मानना चाहते और छोड़कर जाना चाहते हैं, तो जा सकते हैं.”

दुनियाभर में सरकारों की सूचनाओं के आदान-प्रदान पर निगरानी और निगहबानी बढ़ी है. कई देशों ने अपने कानूनों में ऐसी बातें शामिल की हैं जो लोगों को सोशल मीडिया पर खुलकर अपनी सोच जाहिर करने से रोकती या डराती हैं. भारत में भी ऐसे ही कानून लागू किए जा रहे हैं, जिनका असर ग्राहकों और कंपनियों दोनों पर पड़ रहा है. पिछले कुछ सालों में सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों से सैकड़ों पोस्ट हटवाई हैं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खाते बंद करवा दिए हैं. इसके अलावा भारत सरकार द्वारा इस्राएल के पेगासस सॉफ्टरवेयर द्वारा दर्जनों नेताओं, कार्यकर्ताओं और वकीलों आदि की जासूसी करने का मामला भी सामने आ चुका है.

जासूसी का डर

यही वजह है कि अब नए नियमों को लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में डर बढ़ रहा है. सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी कहती हैं कि ये नए नियम आम नागरिकों पर निगाह रखने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं. उन्होंने बताया, "सरकार पहले ही असहमति की आवाजों को दबाने के लिए इंटरनेट पर शिकंजा कसती जा रही है और लोग बहुत पैनी जासूसी झेल रहे हैं. नए नियम स्थिति को बदतर बना देंगे.”

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हालांकि सरकार ने स्पष्ट किया है कि नए नियम कॉरपोरेट वीपीएन पर लागू नहीं होते. लेकिन प्रोटोन वीपीएन का कहना है कि ये निजता पर हमला हैं. प्रोटोन वीपीएन ने कहा है कि वह लॉग-डिटेल ना रखने की अपनी नीति जारी रखेगी. कंपनी ने कहा, "नए नियम निजता पर हमला हैं और नागरिकों को जासूसी के माइक्रोस्कोप के नीचे लाते हैं.”

सर्फशार्क के कानून अधिकारी गिट्स मालीनासकस कहते हैं कि सर्फशार्क की भी सख्त नीति है कि लॉग-डिटेल सेव नहीं की जातीं. उन्होंने कहा, "हमारी सख्त नीति है कि हम अपने ग्राहकों का डाटा या अन्य जानकारियां ना तो सेव करते हैं ना किसी को देते हैं. तकनीकी रूप से भी हम इन नई शर्तों का पालन नहीं कर पाएंगे.”

दुनिया के सबसे बड़े वीपीएन सेवा प्रदाताओं में शामिल नॉर्डवीपीएन के एक प्रवक्ता ने बताया कि वह नियमों को लेकर सरकार की मंशाओं का स्वागत करते हैं कि साइबर सुरक्षा की स्थिति बेहतर बनानी है लेकिन उनका मानना है कि "विचार की अवधि बढ़ाई जानी चाहिए.” नॉर्डवीपीएन ने कहा, "अगर जरूरत पड़ी तो हम भारत से जाने पर विचार करेंगे.”

दिक्कत क्या है?

वैश्विक संगठन इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री काउंसिल का कहना है कि भारत के नए नियम साइबर सुरक्षा को बेहतर बनाने के बजाय खराब कर सकते हैं. संगठन ने नियमों की शर्तों जैसे कि छह घंटे के भीतर अधिकारियों को सूचित करना और रिपोर्ट करने लायक बातों की विस्तृत परिभाषा पर सवाल उठाए हैं.

एक्सेस नाउ के एशिया पैसिफिक में पॉलिसी निदेशक रमनजीत सिंह चीमा ने एक खुले पत्र में कहा कि इन नियमों के तहत करोड़ों लोग जासूसी के खतरे में आ जाएंगे. उन्होंने लिखा, "सेवा प्रदाताओं से पांच साल की लॉग-डिटेल देने को कहना भारतीय संविधान द्वारा दिए गए निजता के अधिकार का उल्लंघन है.”

निगरानी का इतिहास

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इस बारे में कंपनियों और निजता अधिकार कार्यकर्ताओं ने सरकार से समय-सीमा बढ़ाने का अनुरोध भी किया था, जिसे खारिज कर दिया गया. भारत के आईटी मंत्रालय से इस संबंध में टिप्पणी के लिए संपर्क नहीं हो पाया.

सिर्फ भारत में नहीं है खतरा

वीपीएन पर कार्रवाई करने वाला भारत अकेला देश नहीं है. रूस ने पिछले साल कई वीपीएन सेवाओं पर प्रतिबंध लगा दिया था. उसके यूक्रेन पर सैन्य कार्रवाई करने के बाद जिस तरह अखबारों, समाचार चैनलों और वेबसाइटों पर पाबंदियां लगाई गईं, उससे यह अवधारणा तेजी से बढ़ी है कि इंटरनेट को भूराजनीतिक आधार पर बांटा जा रहा है और लोग डिजिटल स्पेस में अलग-थलग किए जा रहे हैं.

भारत पर आरोप यह भी है कि उसने नए नियम बनाने हुए ना उद्योग जगत से परामर्श किया, ना सामाजिक कार्यकर्ताओं से. दिल्ली स्थित इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के नीति निदेशक प्रतीक वाघरे कहते हैं, "इस कारण कई ऐसे निर्देश हैं तो अस्पष्ट हैं और उनके पालन का बोझ बहुत ज्यादा है. यहां तक कि जेल का भी प्रावधान है.”

वाघरे कहते हैं कि ये नियम बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं क्योंकि देश में डेटा प्रोटेक्शन के लिए कोई कानून नहीं है. उन्होंने कहा, "बेशक, साइबर सुरक्षा को मजबूत करने की स्पष्ट जरूरत है लेकिन जब आप बिना किसी नियम के, सबका डेटा मांग लेते हैं तो पत्रकार, कार्यकर्ता, असहमति रखने वाले लोग और अल्पसंख्यक आदि ज्यादा खतरे में आ जाते हैं.”

वीके/एए (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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