मोदी का बांग्लादेश दौरा: एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश
प्रभाकर मणि तिवारी
२५ मार्च २०२१
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोरोना महामारी शुरू होने के बाद पहली बार विदेश दौरे पर जाने वाले हैं. उसके लिए अगर उन्होंने बांग्लादेश की आजादी के स्वर्ण जयंती समारोह को चुना है तो इसके गहरे निहितार्थ हैं.
तस्वीर: Biju Boro/AFP
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इससे पहले उनकी तमाम बैठकें और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिस्सेदारी वर्चुअल ही रही है. देश में कोरोना एक बार फिर पांव पसार रहा है. ऐसे में उनके दौरे पर सवाल उठना लाजिमी है. दरअसल, उनके इस दौरे को एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. इस दो-दिवसीय दौरे को पश्चिम बंगाल के अहम विधानसभा चुनावों के साथ भी जोड़ कर देखा जा रहा है. अगर यह दौरा महज राजधानी ढाका में आयोजित सरकारी समारोह में शिरकत तक ही सीमित रहता, तो इस पर सवाल नहीं खड़े होते. लेकिन प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाको में रहने वाले मतुआ समुदाय के लोगों के गुरु हरिचंद्र ठाकुर की जन्मस्थली ओरकांडी जाने का जो फैसला किया है. उसी वजह से उनके मकसद पर सवालिया निशान लग रहे हैं. राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है कि बंगाल के मतुआ समुदाय को साधने के लिए ही मोदी ने ओरकांडी दौरे की योजना बनाई है. मोदी अपने दौरे में कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर के अलावा क्रांतिकारी जतीन दास के पैतृक आवास का दौरा भी करेंगे.
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के न्योते पर शुक्रवार को राजधानी ढाका पहुंचने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के स्वर्ण जयंती समारोह के अलावा बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान के जन्मशती समारोह में भी शामिल होंगे. लेकिन पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में शनिवार को पहले चरण के मतदान के दिन मोदी बांग्लादेश की धरती पर मतुआ समुदाय के पवित्र स्थान ओरकांडी ठाकुरबाड़ी और सुरेश्वरी देवी के मंदिर के दर्शन करेंगे. ओरकांडी मतुआ गुरु हरिचंद ठाकुर और गुरुचंद ठाकुर का जन्म स्थान है और दलित मतुआ महासंघ की स्थापना भी वहीं हुई थी. वहां प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए बंगाल के बीजेपी सांसद शांतनु ठाकुर समेत मतुआ समुदाय की कई प्रमुख हस्तियां मौजूद रहेंगी. शांतनु ठाकुर मतुआ संप्रदाय के संस्थापक हरिचंद ठाकुर के परिवार से ही हैं. वहां प्रधानमंत्री के भव्य स्वागत की तैयारियां की गई हैं.
मतुआ संप्रदाय और उसकी अहमियत
मतुआ संप्रदाय मूल रूप से पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से नाता रखता है. इस संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में हुई थी. मतुआ महासंघ की मूल भावना चतुर्वर्ण यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की व्यवस्था को खत्म करना है. इसकी शुरुआत समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने की थी. उनका जन्म एक गरीब और अछूत नमोशूद्र परिवार में हुआ था. ये लोग देश के विभाजन के बाद धार्मिक शोषण से तंग आकर 1950 की शुरुआत में यहां आए थे. 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बाद भी मतुआ समुदाय के लोग सीमा पार कर यहां आए थे.
मोटे अनुमान के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में उनकी आबादी दो करोड़ से भी ज्यादा है. नदिया, उत्तर और दक्षिण 24-परगना जिलों की कम से कम सात लोकसभा सीटों पर उनके वोट निर्णायक हैं. यही वजह है कि मोदी ने बीते लोकसभा चुनावों से पहले फरवरी की अपनी रैली के दौरान इस समुदाय की माता कही जाने वाली वीणापाणि देवी से मुलाकात कर उनका आशीर्वाद लिया था. यह समुदाय पहले लेफ्ट को समर्थन देता था और बाद में वह ममता बनर्जी के समर्थन में आ गया. सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की ताकत घटी और लेफ्ट मजबूत हुआ. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि लेफ्ट की ताकत बढ़ाने में मतुआ महासभा का भी बड़ा हाथ रहा.
कितने राज्यों में है बीजेपी और एनडीए की सरकार
केंद्र में 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद देश में भारतीय जनता पार्टी का दायरा लगातार बढ़ा है. डालते हैं एक नजर अभी कहां कहां बीजेपी और उसके सहयोगी सत्ता में हैं.
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दिल्ली
फरवरी, 2025 के दिल्ली चुनावों में बीजेपी को जबर्दस्त जीत हासिल हुई है. पार्टी ने 27 वर्षों के बाद दिल्ली की सत्ता हासिल की है. इससे पहले दिल्ली में दो बार आम आदमी पार्टी और तीन बार कांग्रेस पार्टी की सरकार रही थी.
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महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री हैं. इससे पहले शिवसेना से अलग हुए एकनाथ शिंदे राज्य के मुख्यमंत्री थे. शिंदे ने शिवसेना से बगावत कर बीजेपी का हाथ थाम लिया था. देवेंद्र फडणवीस तीसरी बार महारष्ट्र के मुख्यमंत्री बने हैं.
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छत्तीसगढ़
लंबे समय से नक्सल के प्रभाव में रहे छत्तीसगढ़ में वर्तमान विधान सभा के चुनाव को ऐतिहासिक बताया गया. राज्य के कई इलाकों में पहली बार लोगों ने वोट डाला. इन चुनावों में बीजेपी को सफलता मिली और विष्णु देव साई राज्य के मुख्यमंत्री बने.
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उड़ीसा
उड़ीसा में कई दशकों से बीजू जनता दल की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे नवीन पटनायक. इस बार के चुनाव में बीजेपी ने उनके किले में सेंध लगा दी और सत्ता अपने हाथ में ले लिया. राज्य में अब बीजेपी के मोहन चरण मांझी मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल रहे हैं
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आंध्र प्रदेश
लंबे समय के बाद आंध्र प्रदेश की राजनीति एक बार फिर चंद्रबाबू नायडू के हाथ में है. उनकी पार्टी ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया है. राज्य और केंद्र दोनों जगह एनडीए की सरकार है.
तस्वीर: Mahesh Kumar A./AP Photo/picture alliance
राजस्थान
2023 के विधानसभा चुनाव ने राजस्थान की सत्ता से कांग्रेस पार्टी को बेदखल कर दिया. राज्य में एक बार फिर बीजेपी की सरकार बनी और मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली भजन लाल शर्मा को.
तस्वीर: IANS
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में फरवरी-मार्च 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर ऐतिहासिक प्रदर्शन किया और 403 सदस्यों वाली विधानसभा में 325 सीटें जीतीं. इसके बाद फायरब्रांड हिंदू नेता योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की गद्दी मिली.
तस्वीर: Imago/Zumapress
त्रिपुरा
2018 में त्रिपुरा में लेफ्ट का 25 साल पुराना किला ढहाते हुए बीजेपी गठबंधन को 43 सीटें मिली. वहीं कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कसिस्ट) ने 16 सीटें जीतीं. 20 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद मणिक सरकार की सत्ता से विदाई हुई और बिप्लव कुमार देब ने राज्य की कमान संभाली. 2023 के विधानसभा चुनाव के बाद से यहां बीजेपी के माणिक साहा मुख्यमंत्री हैं.
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मध्य प्रदेश
शिवराज सिंह चौहान को प्रशासन का लंबा अनुभव है. उन्हीं के हाथ में अभी मध्य प्रदेश की कमान है. इससे पहले वह 2005 से 2018 तक राज्य के मख्यमंत्री रहे. लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस सत्ता में आई. दो साल के भीतर शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता में वापसी की. 2023 में एक बार फिर पार्टी ने जीत हासिल की लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी मोहन यादव को मिली.
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उत्तराखंड
उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी बीजेपी का झंडा लहर रहा है. 2017 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए राज्य की सत्ता में पांच साल बाद वापसी की. त्रिवेंद्र रावत को बतौर मुख्यमंत्री राज्य की कमान मिली. लेकिन आपसी खींचतान के बीच उन्हें 09 मार्च 2021 को इस्तीफा देना पड़ा. जुलाई 2021 से पुष्कर सिंह धामी ने राज्य की कमान संभाली 2022 के चुनाव के बाद भी पद पर हैं.
तस्वीर: Hindustan Times/IMAGO
बिहार
बिहार में नीतीश कुमार एनडीए सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. कई बार पाला बदल चुके नीतीश कुमार वर्तमान में बीजेपी के साथ हैं. 2024 का लोकसभा चुनाव भी दोनों पार्टियों ने साथ मिल कर लड़ा था.
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गोवा
गोवा में प्रमोद सावंत बीजेपी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. उन्होंने मनोहर पर्रिकर (फोटो में) के निधन के बाद 2019 में यह पद संभाला. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद पर्रिकर ने केंद्र में रक्षा मंत्री का पद छोड़ मुख्यमंत्री पद संभाला था. 2022 के चुनाव के बाद एक बार फिर प्रमोद सावंत राज्य के मुख्यमंत्री बने
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गुजरात
गुजरात में 1998 से लगातार भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. प्रधानमंत्री पद संभालने से पहले नरेंद्र मोदी 12 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. फिलहाल राज्य सरकार की कमान बीजेपी के भूपेंद्रभाई पटेल (तस्वीर में बाएं) के हाथ में है.
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मणिपुर
पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में 2017 में पहली बार बीजेपी की सरकार बनी है जिसका नेतृत्व पूर्व फुटबॉल खिलाड़ी एन बीरेन सिंह कर रहे हैं. वह राज्य के 12वें मुख्यमंत्री हैं. इस राज्य में भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सरकार नहीं बना पाई.
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हरियाणा
बीजेपी के नायब सिंह सैनी हरियाणा में मुख्यमंत्री हैं. 2024 में पार्टी की जीत के बाद राज्य में नेतृत्व बदला. इससे पहले बीजेपी के मनोहर लाल खट्टर 10 साल तक हरियाणा में मुख्यमंत्री थे
तस्वीर: IANS
असम
असम में बीजेपी के हिमंता बिस्व सरमा मुख्यमंत्री हैं. 2016 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 86 सीटें जीतकर राज्य में एक दशक से चले आ रहे कांग्रेस के शासन का अंत किया. इसके बाद 2021 में एक बार फिर पार्टी को राज्य में सफलता मिली.
तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW
अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू मुख्यमंत्री हैं जो दिसंबर 2016 में भाजपा में शामिल हुए. सियासी उठापटक के बीच पहले पेमा खांडू कांग्रेस छोड़ पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश में शामिल हुए और फिर बीजेपी में चले गए.
तस्वीर: Getty Images/AFP/T. Mustafa
नागालैंड
नागालैंड में फरवरी 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में एनडीए की कामयाबी के बाद नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के नेता नेफियू रियो ने मुख्यमंत्री पद संभाला. इससे पहले भी वह 2008 से 2014 तक और 2003 से 2008 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं.
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मेघालय
2018 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद सरकार बनाने से चूक गई. एनपीपी नेता कॉनराड संगमा ने बीजेपी और अन्य दलों के साथ मिल कर सरकार का गठन किया. कॉनराड संगमा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा के बेटे हैं.
तस्वीर: IANS
सिक्किम
सिक्किम की विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी का एक भी विधायक नहीं है. लेकिन राज्य में सत्ताधारी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा है. इस तरह सिक्किम भी उन राज्यों की सूची में आ जाता है जहां बीजेपी और उसके सहयोगियों की सरकारें हैं.
तस्वीर: DW/Zeljka Telisman
मिजोरम
मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की सरकार है. वहां जोरामथंगा मुख्यमंत्री हैं. बीजेपी की वहां एक सीट है लेकिन वो जोरामथंगा की सरकार का समर्थन करती है.
तस्वीर: IANS
2019 की टक्कर
इस तरह भारत के कुल 28 राज्यों में से 21 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी या उसके सहयोगियों की सरकारें हैं. बीते साल राष्ट्रीय चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और उसे गठबंधन सरकार बनानी पड़ी लेकिन फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के आगे कोई नहीं टिकता.
तस्वीर: DW/A. Anil Chatterjee
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लेकिन वीणापाणि देवी की मौत के बाद अब यह समुदाय दो गुटों में बंट गया है. इसलिए बीजेपी की निगाहें अब इस वोट बैंक पर हैं. 2014 में बीणापाणि देवी के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर ने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर बनगांव लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे. 2015 में कपिल कृष्ण ठाकुर के निधन के बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर ने उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर यह सीट जीती थी. लेकिन "बड़ो मां" यानी मतुआ माता के निधन के बाद परिवार में राजनीतिक मतभेद खुल कर सतह पर आ गया. उनके छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने बाद में बीजेपी का दामन थाम लिया. 2019 में बीजेपी ने मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को बनगांव से टिकट दिया और वे जीत कर सांसद बन गए.
इस समुदाय के कई लोगों को अब तक भारतीय नागरिकता नहीं मिली है. यही वजह है कि बीजेपी सीएए के तहत नागरिकता देने का दाना फेंक कर उनको अपने पाले में करने का प्रयास कर रही है. राज्य के नदिया और उत्तर और दक्षिण 24 परगना जिले की 70 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर मतुआ समुदाय की मजबूत पकड़ है.
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मतुआ इलाके में मतदान अगले महीने
मतुआ समुदाय की आबादी और इलाके में असर को ध्यान में रखते हुए ही हरिचंद गुरुचंद ठाकुर के परिवार से जुड़े पीआर ठाकुर को कांग्रेस पार्टी ने 1962 में मंत्री बनाया था. हालांकि बाद में उनकी पत्नी बीणापाणि देवी ने टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी का साथ दिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी नागरिकता संबंधी मांग पूरी करने का वादा किए जाने के बाद मतुआ समाज का झुकाव बीजेपी की तरफ हुआ. इससे पार्टी को अपनी सीटें दो से बढ़ा कर 18 तक पहुंचाने में कामयाबी मिली. हालांकि बीजेपी ने उस समय भी मतुआ समुदाय के लोगों को नागरिकता देने का वादा किया था. लेकिन उस पर अमल नहीं होने की वजह से इस समुदाय के एक तबके में नाराजगी है. उनकी नाराजगी को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मतुआ का गढ़ कहे जाने वाले उत्तर 24-परगना जिले के ठाकुरनगर की एक रैली में कहा था कि कोरोना का टीकाकरण अभियान खत्म होने के बाद सीएए के तहत उन सबको नागरिकता देने का काम शुरू हो जाएगा.
मतुआ समुदाय के असर वाली विधानसभा सीटों पर पांचवें चरण में 17 अप्रैल और सातवें चरण में 26 अप्रैल को मतदान होना है. उससे पहले उन इलाकों में प्रधानमंत्री की रैलियों की भी योजना है. जाहिर है मोदी उन रैलियों में इस समुदाय का मन जीतने के लिए अपने ओरकांडी दौरे का बढ़ा-चढ़ा कर बखान करेंगे. प्रदेश बीजेपी के एक नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, "सीएए लागू वहीं होने की वजह से मतुआ समुदाय के एक तबके में काफी नाराजगी है. प्रधानमंत्री के ओरकांडी दौरे से इस तबके में एक सकारात्मक संदेश जाएगा, जिसका फायदा हमें चुनावों में मिलना तय है.”
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ओरकांडी में मोदी का दौरा स्पष्ट रूप से मतुआ वोटरों को लुभाने की कोशिश है. एक राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी से मिलने वाली कड़ी चुनौती के बीच प्रधानमंत्री मोदी मतुआ समाज के लोगों को यह संदेश देने का मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं कि बीजेपी उनकी सबसे बड़ी हितैषी है. इसके अलावा भारतीय सीमा से सटे सातखीरा में यशोरेश्वरी मंदिर के दौरे की भी राजनीतिक अहमियत है." उनका कहना है कि ओरकांडी से मतुआ समाज का बेहद भावनात्मक लगाव है. ऐसे में इस दौरे का फायदा बीजेपी को बंगाल चुनावों में मिल सकता है.
मोदी सरकार ने कब कब लोगों की नाराजगी झेली
मोदी सरकार इन दिनों अपने सबसे मुश्किल इम्तिहान का सामना कर रही है. नए कृषि कानूनों के खिलाफ धरने पर बैठे किसान आंदोलनकारी हटने का नाम नहीं ले रहे हैं. एक नजर उन घटनाओं पर, जब मोदी सरकार को लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran
किसान आंदोलन
कई हफ्तों से दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान प्रदर्शन कर रहे हैं और सरकार से नए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं. लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है. इस बीच, 26 जनवरी को हुई हिंसा के बाद स्थिति काफी तनावपूर्ण हो गई है.
तस्वीर: Dinesh Joshi/AP/picture alliance
नागरिकता संशोधन अधिनियम
नरेंद्र मोदी सरकार ने जब 2019 में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया तो इसके खिलाफ देश में कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए. धर्म के आधार पर पड़ोसी देशों के शरणार्थियों को नागरिकता देने वाले इस कानून को आलोचकों ने संविधान विरोधी बताया.
तस्वीर: DW/Dharvi Vaid
धारा 370
5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धारा 370 को खत्म कर दिया. कई विपक्षी पार्टियों ने इसका तीखा विरोध किया. हिंसक विरोध प्रदर्शनों की आशंका को देखते हुए केंद्र सरकार ने कई महीनों तक जम्मू कश्मीर में कर्फ्यू लगाए रखा.
तस्वीर: picture-alliance/ZUMAPRESS.com/M. Mattoo
नोटबंदी
8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक 500 और 1000 रुपये के नोटों को बंद करने का एलान कर दिया. सरकार का कहना था कि काले धन को बाहर लाने के लिए उसने यह कदम उठाया. लेकिन असंगठित क्षेत्र के कई उद्योग चौपट हो गए और लोग बेरोजगार हो गए.
तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Mukherjee
जेएनयू की नारेबाजी
दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी अकसर सुर्खियों में रहती है. लेकिन 2016 में यूनिवर्सिटी परिसर में कन्हैया कुमार और अन्य छात्र नेताओं पर लगे देशद्रोह के आरोपों ने इसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में ला दिया. आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/R. Gupta
लिंचिंग
2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के कुछ महीनों बाद गौरक्षा के नाम देश के अलग अलग हिस्सों में लिंचिंग घटनाएं हुईं. गोमांस रखने या खाने के आरोप में कुछ समुदायों को निशाना बनाया गया. इसके बाद सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हुए, कई लोगों ने अपने पुरस्कार लौटाए.
तस्वीर: Imago/Hundustan Times
रोहित वेमुला
हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पीएचडी कर रहे एक दलित छात्र रोहित वेमुला की जुलाई 2015 में आत्महत्या ने भारत के बड़े शैक्षणिक संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव को उजागर किया. इसके बाद सड़कों पर उतरे लोगों ने उन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की जिनकी वजह से "रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा."