ट्रंप की जीत में होगी अरब के निरंकुश शासकों की जीत
लुइस सैंडर्स
२३ सितम्बर २०२०
मिस्र से लेकर सऊदी अरब तक, अरब दुनिया के नेताओं को डॉनल्ड ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका से मदद मिली है. विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप का दोबारा राष्ट्रपति बनना इन सभी ताकतवर और कट्टर नेताओं की जीत होगी.
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"कहां है मेरा पसंदीदा तानाशाह?" - बताया जाता है कि इन शब्दों के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने मिस्र के राष्ट्रपति और पूर्व जनरल अब्देल-फतेह अल-सीसी के बारे में पूछा था. पिछले साल जी7 सम्मेलन के दौरान इन दोनों नेताओं ने अलग से मुलाकात की थी.
यह पहली बार नहीं था जब ट्रंप ने किसी निरंकुश शासक के बारे में ऐसी बातें कहीं हों. उत्तर कोरिया के शासक किम जॉन्ग उन को वह एक "महान नेता" तो रूस के नेता व्लादिमीर पुतिन को "खुद से भी अच्छा इंसान" बता चुके हैं. कुछ पूर्व अमेरिकी अधिकारियों ने तो ऐसा भी बताया कि ट्रंप को ऐसे "तानाशाहों से ईर्ष्या" होती है.
ताकतवर समर्थकों का साथ
मध्य पूर्व में अमेरिका ने अपनी नीतियों के चलते बहुत सक्रिय भूमिका निभाई है. अमेरिका ने नए नेताओं के आने और हटाए जाने में खूब दखल दिया है. ट्रंप जिस तरह के नेताओं को पसंद करते हैं उनके कार्यकाल में मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले बढ़े हैं, खास कर मिस्र और सऊदी अरब जैसे देशों में.
ह्यूमन राइट्स वॉच के अम्र मग्दी बताते हैं, "अल-सीसी जैसे अरब नेता यह देख कर बहुत खुश होते हैं कि अमेरिका जैसी वैश्विक महाशक्ति का नेतृत्व एक ऐसा राष्ट्रपति कर रहा है जो प्रेस पर खुले आम हमले बोलता है, मानवाधिकारों की अनदेखी करता है और पॉपुलिस्ट अजेंडा चलता है."
व्हाइट हाउस में दोस्त होने का फायदा
अगर ट्रंप फिर से जीतते हैं तो व्हाइट हाउस में मिस्र का समर्थक कायम रहेगा. ट्रंप से पहले दो बार अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा ने 2013 में मिस्र में हुए सत्तापलट की कोशिश के मद्देनजर आर्थिक और सीधी सैन्य सहायता रोक दी थी.
वहीं ट्रंप ने उसे कहीं ज्यादा बढ़ा दिया है और वह भी ऐसे वक्त में जब मिस्र में राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं और किसी भी तरह के आलोचकों को देश की सुरक्षा एजेंसियां लगातार निशाना बना रही हैं. लेकिन मिस्र एकलौता अरब देश नहीं है जिसे व्हाइट हाउस के अपने अमेरिकी मित्र से बेहिसाब समर्थन मिलता है.
पहले अमेरिका और फिर सऊदी अरब
सऊदी अरब से संबंधों के लिहाज से ट्रंप का शासनकाल ओबामा-काल से नाटकीय रूप से अलग रहा है. 2016 में राष्ट्रपति बनते ही ट्रंप ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए सऊदी अरब को चुना था. सऊदी अरब के ताकतवर क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को ट्रंप से खुला सहयोग हासिल है. 2018 में अमेरिका में रहने वाले सऊदी मूल के पत्रकार जमाल खशोगी की इस्तांबुल में हुई हत्या के सिलसिले में अमेरिका में उठी जांच की मांगों से ट्रंप प्रशासन ने क्राउन प्रिंस को बखूबी बचाया.
जब बाकी सब यमन युद्ध में सऊदी अरब के युद्ध करने पर आपत्तियां उठा रहे थे, तब भी ट्रंप प्रशासन ने आगे बढ़ कर सऊदी के साथ आठ अरब डॉलर के हथियार बेचने का सौदा किया. एक बेहद साफ संदेश तब भी गया जब सऊदी के चिर प्रतिद्वंद्वी ईरान के साथ हुए वैश्विक परमाणु समझौते से ट्रंप ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए अमेरिका को बाहर निकाल लिया.
इसलिए ईरान की सऊदी अरब से नहीं पटती
मध्य पूर्व के दो ताकतवर देशों सऊदी अरब और ईरान के बीच हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहता है. दोनों धर्म से लेकर तेल और इलाके में दबदबा कायम करने तक, हर बात पर झगड़ते हैं.
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शिया-सुन्नी टकराव
दोनों ही देश खुद को इस्लाम की दो अलग अलग शाखों का संरक्षक मानते हैं. सऊदी अरब जहां एक सुन्नी देश है, वहीं ईरान शिया देश. इसीलिए ये दोनों दुनिया भर में शिया और सुन्नियों के बीच होने वाले विवादों की धुरी माने जाते हैं.
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तेल के दाम
1973 में अरब-इस्राएल युद्ध के दौरान तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक ने तेल के दाम बहुत बढ़ा दिये थे. अरब तेल उत्पादक देशों ने इस्राएल समर्थक समझे जाने वाले देशों पर रोक लगा दी, जिनमें अमेरिका भी शामिल था.
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तनाव बढ़ा
ईरान चाहता था कि तेल के दाम और बढ़ाये जाएं ताकि उसके यहां महत्वाकांक्षी औद्योगिक विकास परियोजनाओं के लिए धन मिल सके. लेकिन सऊदी अरब नहीं चाहता था कि तेल के दामों में बेतहाशा वृद्धि हो. इसके पीछे उसका मकसद अपने सहयोगी देश अमेरिका को बचाना था.
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क्रांति का निर्यात
ईरान में 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के दौरान पश्चिम समर्थक शाह को सत्ता से बेदखल किया गया और देश में इस्लामी गणतंत्र की स्थापना हुई. इसके बाद क्षेत्र के सुन्नी देशों ने ईरान पर आरोप लगाया कि वह उनके यहां क्रांति को "भेजने" की कोशिश कर रहा है.
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इराक-ईरान युद्ध
सितंबर 1980 में इराक ने ईरान पर हमला कर दिया और यह युद्ध आठ साल तक चला. सऊदी अरब ने वित्तीय रूप से इराकी सरकार की मदद की और अन्य सुन्नी देशों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रोत्साहित किया. इससे ईरान और सऊदी अरब की कड़वाहट और बढ़ी.
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हज में टकराव
सऊदी सुरक्षा बलों ने 1987 में मक्का में ईरानी श्रद्धालुओं के अनाधिकृतक अमेरिका विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ कार्रवाई की. इस दौरान 400 लोग मारे गये हैं. इससे गुस्साए ईरानियों ने तेहरान में सऊदी दूतावास में लूटपाट की.
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हज का सियासी इस्तेमाल
अप्रैल 1988 में सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये. 1991 तक ईरान से कोई श्रद्धालु हज यात्रा पर नहीं गया. ईरान अकसर सऊदी अरब पर हज यात्रा को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाता रहा है.
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बेहतर हुए संबंध
ईरान में मई 1997 के राष्ट्रपति चुनावों में सुधारवादी मोहम्मद खतामी की जीत के बाद दोनों देशों के रिश्तों में सुधार देखने को मिला. मई 1999 में राष्ट्रपति ईरानी राष्ट्रपति ने सऊदी अरब का ऐतिहासिक दौरा किया था.
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इराक की जंग
2003 में इराक पर अमेरिकी हमले ने सऊदी-ईरान तनाव को और बढ़ दिया. अमेरिकी हमले के चलते इराक में बाथ पार्टी का शासन खत्म हुआ और बहुसंख्यक शिया समुदाय को सत्ता में आने का मौका मिला. इससे इराक पर ईरान का प्रभाव बढ़ने लगा.
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अरब स्प्रिंग
2011 में जब अरब दुनिया में बदलाव की लहर चली तो सऊदी अरब ने पड़ोसी बहरीन में अपने सैनिक भेजे. वहां सुन्नी शासक के खिलाफ बहुसंख्यक शिया लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरे. सऊदी अरब ने ईरान पर बहरीन में गड़बड़ी फैलाने का आरोप लगाया.
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सीरिया संकट
ईरान-सऊदी अरब के झगड़े में 2012 के सीरिया संकट ने भी आग में घी का काम किया. सीरिया की जंग में जहां ईरान सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद का साथ दे रहा है, वहीं उनके खिलाफ लड़ रहे विद्रोहियों को सऊदी अरब और उसके सहयोगी अमेरिका का समर्थन मिला.
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यमन का मोर्चा
यमन संकट में भी सऊदी अरब और ईरान एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए. मार्च 2015 में सऊदी अरब ने सुन्नी अरब देशों का एक गठबंधन बनाया, जिसने यमनी राष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी के समर्थन में यमन में हस्तक्षेप किया. वहीं ईरान हूती बागियों के साथ खड़ा दिखा.
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हज में भगदड़
सितंबर 2015 में हज यात्रा के दौरान भगदड़ हुई जिसमें 2,300 विदेशी श्रद्धालु मारे गये. मरने वालों में ज्यादातर ईरानी लोग शामिल थे. इसके बाद ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह खमेनेई ने कहा कि सऊदी शाही परिवार इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों की व्यवस्था संभालने लायक नहीं है.
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फिर टूटे रिश्ते
जनवरी 2016 में सऊदी अरब में एक प्रमुख शिया मौलवी निम्र अल निम्र को मौत की सजा दी गयी. उन पर सरकार विरोधी प्रदर्शन भड़काने के आरोप लगे. ईरान ने इस पर गहरी नाराजगी जतायी. ईरान में सऊदी राजनयिक मिशन पर हमले किये गये और सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये.
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हिज्बोल्लाह एंगल
मार्च 2016 में लेबनान के शिया मिलिशिया गुट और ईरान के सहयोगी हिज्बोल्लाह को अरब देशों ने आतंकवादी करार दिया. इससे पहले हिज्बोल्लाह के प्रमुख ने सऊदी अरब पर शिया और सुन्नियों के बीच "नफरत भड़काने" का आरोप लगाया था.
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लेबनान पर 'पकड़'
नवंबर 2017 में लेबनान के प्रधानमंत्री साद हरीरी ने इस्तीफा दे दिया और कहा कि ईरान हिज्बोल्लाह के जरिए लेबनान पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. पद छोड़ने के बाद हरीरी ने सऊदी अरब जाकर शाह सलमान से मुलाकात की.
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कतर संकट
इससे पहले जून 2017 में सऊदी अरब और उसके कई सहयोगी देशों ने कतर के साथ अपने रिश्ते तोड़ लिये. उन्होंने कतर पर ईरान से नजदीकी संबंध कायम करने और चरमपंथियों का समर्थन करने का आरोप लगाया.
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ट्रंप के साथ सऊदी अरब
अक्टूबर 2017 में सऊदी अरब ने कहा कि वह ईरान के मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की मजबूत रणनीति का समर्थन करता है. ट्रंप ने 2015 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हुए समझौते को मंजूर करने से इनकार कर दिया.
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अगर ट्रंप नहीं जीते तो क्या होगा
लेकिन अगर ट्रंप की जगह पूर्व उप राष्ट्रपति जो बाइडेन नवंबर में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव में जीत जाते हैं तो स्थिति कितनी बदलेगी? बाइडेन यमन युद्ध में सऊदी अरब के समर्थन के कारण उसे अमेरिकी मदद बंद करने की बात कह चुके हैं. वह मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वालों को सबक सिखाने का इरादा भी जता चुके हैं. उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति के तौर पर वह "सऊदी अरब, चीन, और उस हर देश को जवाबदेह ठहराएंगे, जो अपने नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन करता है."
ईरान को लेकर वैश्विक परमाणु समझौते में और भी सख्त शर्तों के साथ वापस लौटने की शपथ ले चुके बाइडेन अपनी नीतियों को यूरोपीय नीतियों के ज्यादा से ज्यादा करीब लाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन जाहिर है कि नए राष्ट्रपति के चुने जाने तक पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है.
साल 2019 में दुनिया भर का सैन्य खर्च 1,900 अरब डॉलर रहा. कुल मिला कर पूरी दुनिया के देशों ने अपनी अपनी सैन्य जरूरतों पर खर्च करने में 2019 में जितनी वृद्धि की, वो पिछले एक दशक में सबसे बड़ी बढ़ोतरी थी.
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सालाना खर्च
स्वीडन की संस्था सिपरी की सालाना रिपोर्ट बताती है कि साल 2019 में दुनिया भर का सैन्य खर्च 1,900 अरब डॉलर रहा. पिछले साल के मुकाबले यह खर्च 3.6 प्रतिशत तक बढ़ा है. कुल मिला कर पूरी दुनिया के देशों ने अपनी अपनी सैन्य जरूरतों पर खर्च करने में 2019 में जितनी वृद्धि की, वो पिछले एक दशक में सबसे बड़ी बढ़ोतरी थी. सीपरी के रिसर्चर नान तिआन ने बताया, "शीत युद्ध के खत्म होने के बाद सैन्य खर्च का यह चरम है."
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Lo Scalzo
अमेरिका
सभी देशों में पहला स्थान अमेरिका का है, जिसने अनुमानित 732 अरब डॉलर खर्च किए. यह 2018 में किए गए खर्च से 5.3 प्रतिशत ज्यादा है और पूरी दुनिया में हुए खर्च के 38 प्रतिशत के बराबर है. 2019 अमेरिका के सैन्य खर्च में वृद्धि का लगातार दूसरा साल रहा. इसके पहले, सात साल तक अमेरिका के सैन्य खर्च में गिरावट देखी गई थी.
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चीन
दूसरे स्थान पर है चीन जिसने अनुमानित 261 अरब डॉलर खर्च किए. यह 2018 में किए गए खर्च से 5.1 प्रतिशत ज्यादा था. पिछले 25 सालों में चीन का खर्च उसकी अर्थव्यवस्था के विस्तार के साथ ही बढ़ा है. उसका निवेश उसकी एक "विश्व स्तर की सेना" की महत्वाकांक्षा दर्शाता है. तिआन का कहना है, "चीन ने खुल कर कहा है कि वो दरअसल एक सैन्य महाशक्ति के रूप में अमेरिका के साथ प्रतियोगिता करना चाहता है."
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भारत
तीसरे स्थान पर भारत है. अनुमान है कि 2019 में भारत का सैन्य खर्च लगभग 71 अरब डॉलर रहा, जो 2018 में किए गए खर्च से 6.8 प्रतिशत ज्यादा था. विश्व के इतिहास में पहली बार भारत और चीन दुनिया में सबसे ज्यादा सैन्य खर्च वाले चोटी के तीन देशों की सूची में शामिल हो गए हैं. ऐसा पहली बार हुआ है जब रिपोर्ट में सबसे ज्यादा सैन्य खर्च वाले तीन देशों में दो देश एशिया के ही हैं.
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रूस
2019 में रूस ने अपना सैन्य खर्च 4.5 प्रतिशत बढ़ा कर 65 अरब डॉलर तक पहुंचा दिया. ये रूस की जीडीपी का 3.9 प्रतिशत है और सिपरी के रिसर्चर अलेक्सांद्रा कुईमोवा के अनुसार ये यूरोप के सबसे ऊंचे स्तरों में से है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/TASS/V. Sharifulin
सऊदी अरब
सऊदी अरब ने 61.9 अरब डॉलर खर्च किया. इन पांचों देशों का सैन्य खर्च पूरे विश्व में होने वाले खर्च के 60 प्रतिशत के बराबर है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Hassan
जर्मनी
सिपरी के अनुसार, ध्यान देने लायक अन्य देशों में जर्मनी भी शामिल है, जिसने 2019 में अपना सैन्य खर्च 10 प्रतिशत बढ़ा कर 49.3 अरब डॉलर कर लिया. सबसे ज्यादा खर्च करने वाले 15 देशों में प्रतिशत के हिसाब से यह सबसे बड़ी वृद्धि है. रिपोर्ट के लेखकों के अनुसार, जर्मनी के सैन्य खर्च में वृद्धि की आंशिक वजह रूस से खतरे की अनुभूति हो सकती है.
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अब हो सकती है कटौती
सिपरी के रिसर्चर नान तिआन के अनुसार, "कोरोना वायरस महामारी और उसके आर्थिक असर की वजह से यह तस्वीर पलट भी सकती है. दुनिया एक वैश्विक मंदी की तरफ बढ़ रही है और तिआन का कहना है कि सरकारों को सैन्य खर्च को स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च की जरूरतों के सामने रख कर देखना होगा. तिआन कहते हैं, "हो सकता है एक साल से ले कर तीन साल तक खर्चों में कटौती हो, लेकिन उसके बाद के सालों में फिर से वृद्धि होगी."