क्या था मुस्लिम विवाह कानून, जिसे असम सरकार ने रद्द किया
२७ फ़रवरी २०२४असम सरकार ने बीते 23 फरवरी को कैबिनेट की एक बैठक में करीब 89 साल पुराने असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1935 को रद्द करने का फैसला किया.
कुछ ही दिनों पहले उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने राज्य में समान नागरिक संहिता लागू की है. उत्तराखंड ऐसा करने वाला पहला राज्य है. असम सरकार ने साफ कर दिया है कि वह भी प्रदेश में समान नागरिक संहिता लागू करने के पक्ष में है. मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा भी कहते हैं कि जल्दी ही असम में समान नागरिक संहिता लागू की जाएगी.
क्या था यह अधिनियम
असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम में मुस्लिम समुदाय के विवाह और तलाक के पंजीकरण का प्रावधान था. मूल अधिनियम में पहले अनिवार्य शब्द था, जिसे वर्ष 2010 में एक संशोधन के जरिए बदल कर 'स्वैच्छिक' कर दिया गया था.
इस अधिनियम के तहत सरकार पंजीकरण की प्रक्रिया के लिए किसी मुस्लिम की नियुक्ति कर सकती थी. उसे लोक सेवक माना जाता था. अधिनियम में पंजीकरण की पूरी प्रक्रिया का विस्तार का जिक्र किया गया था. फिलहाल राज्य में ऐसे पंजीकरण करने वाले 94 काजी या रजिस्ट्रार हैं. यह अधिनियम मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुरूप है.
इसे रद्द करने का क्या कारण बताया गया
मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा इस फैसले को राज्य में बाल विवाह रोकने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताते हैं. उनका कहना है कि इस अधिनियम के तहत ऐसी युवतियां और युवक भी अपने विवाह का पंजीकरण करा सकते थे, जिनकी उम्र शादी की कानूनी उम्र क्रमशः 18 और 21 साल से कम थी.
मुख्यमंत्री की दलील है कि उक्त अधिनियम के तहत किसी लड़की के 15 साल का होते ही उसका विवाह वैध माना जाता था. मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी यही प्रावधान है. मंत्रिमंडल की बैठक में यह दलील भी दी गई कि आजादी से पहले का यह अधिनियम अब अप्रासंगिक हो चुका है. पंजीकरण का तंत्र अनौपचारिक होने के कारण अक्सर इसके नियमों के उल्लंघन का अंदेशा रहता है.
असम सरकार ने बीते साल बाल विवाह के खिलाफ बड़े पैमाने पर अभियान चला कर 4,000 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया था. इनमें से कई लोगों के खिलाफ पोक्सो अधिनियम के तहत कार्रवाई भी की गई है. मुख्यमंत्री ने कहा है कि वह साल 2026 तक राज्य से बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई को पूरी तरह खत्म करना चाहते हैं.
असम में मुस्लिम आबादी करीब 34 प्रतिशत है. सीमा पार से आने वाले बांग्लाभाषी मुसलमानों, जिनको मियां मुस्लिम कहा जाता है, और राज्य के असमिया मुसलमानों के बीच काफी तनाव है. मौजूदा सरकार भी सत्ता में आने के बाद कई ऐसे कदम उठाती रही है, जिनको बांग्लाभाषी मुसलमानों के खिलाफ माना जाता है. इनमें स्वदेशी मुसलमानों के सर्वेक्षण की सरकार की योजना भी शामिल है.
सरकार ने अब काम के लिए तैनात 94 रजिस्ट्रारों को एकमुश्त दो लाख रुपये का मुआवजा देने का फैसला किया है. अब उनके पास मौजूद तमाम दस्तावेज जिला उपायुक्त और जिला रजिस्ट्रार के पास आ जाएंगे.
मंशा पर सवाल
कई अल्पसंख्यक नेताओं ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाया है. सरकार के इस फैसले के खिलाफ कांग्रेस और आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) ने विधानसभा में भी प्रदर्शन और वॉकआउट किया है. एआईयूडीएफ ने इस पर स्थगन प्रस्ताव भी पेश किया था, लेकिन उसे खारिज कर दिया गया.
संगठन का आरोप है कि सरकार इस फैसले के जरिए वोटरों का ध्रुवीकरण करने का प्रयास कर रही है. एआईयूडीएफ के प्रमुख और विधायक बदरुद्दीन अजमल कहते हैं, "सरकार मुसलमानों को उकसा कर अपने वोटरों का ध्रुवीकरण करना चाहती है. वह इसका चुनावी इस्तेमाल करने का प्रयास कर रही है. यह फैसला समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में पहला कदम है, लेकिन अब राज्य में बीजेपी सरकार के सत्ता से जाने का समय आ गया है."
प्रक्रिया के जटिल होने का भी अंदेशा
असम मिल्लत फाउंडेशन के अध्यक्ष एडवोकेट जुनैद खालिद कहते हैं कि सरकार की मंशा सही नहीं है. अगर सरकार सचमुच बाल विवाह रोकने के प्रति गंभीर है, तो वह उक्त अधिनियम में संशोधन कर सकती थी कि सिर्फ वही लोग इसके तहत विवाह का पंजीकरण करा सकते हैं, जो कानूनी रूप से तय उम्र यानी पार कर चुके हों. उनका कहना है कि इस अधिनियम को रद्द करने से विवाह तो रुकेंगे नहीं, उल्टे गैर-पंजीकृत शादियों की तादाद बढ़ेगी.
कांग्रेस नेता एडवोकेट अमन वहूद भी यही बात कहते हैं. उनका कहना है कि उक्त अधिनियम के जरिए पंजीकरण की प्रक्रिया विकेंद्रीकृत थी. लोग राज्य भर में फैले 94 काजियों की सहायता से कहीं भी पंजीकरण करा सकते थे.
वहीं, अब विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह के पंजीकरण के लिए लोगों को लंबी और जटिल प्रक्रिया से गुजरना होगा. इसमें एक महीने का नोटिस देने के अलावा तमाम कागजात पेश करना शामिल है. इसका नतीजा होगा कि खासकर गरीब तबके के लोग पंजीकरण से दूरी बरतेंगे.
कांग्रेस के नेता अब्दुर रशीद मंडल ने कहा है कि लोकसभा चुनाव से पहले सरकार वोटरों के ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है. यह फैसला अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ भेदभाव का सबूत है.
अब्दुर रशीद मंडल कहते हैं कि राज्य में बाल विवाह रोकने के दूसरे कारगर उपाय भी हैं. यह अकेला ऐसा अधिनियम था, जिसके तहत मुस्लिम समुदाय में होने वाली शादियों का पंजीकरण किया जा सकता था. यह कानून संविधान और मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुरूप था.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सत्ता में आने के बाद से ही हिमंता बिस्वा सरमा की सरकार सरकार ने लगातार कई ऐसे कदम उठाए हैं, जिनको पहली नजर में ही अल्पसंख्यक विरोधी कहा जा सकता है. इनमें बहुविवाह पर पाबंदी लगाने जैसे उपाय भी शामिल हैं.
एक विश्लेषक सुभाष चंद्र कलिता कहते हैं, "राज्य में स्वदेशी और मियां मुस्लिम विवाद भी नया नहीं है. खुद मुख्यमंत्री भी चुनाव से पहले कह चुके हैं कि उनको मियां वोट नहीं चाहिए. उसके बाद मदरसों के खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई की गई है. कुल मिलाकर सरकार के फैसलों का संकेत साफ है."