कहां से आया था डायनासोर का खात्मा करने वाला विशाल एस्टेरॉइड
१६ अगस्त २०२४
करीब 6.6 करोड़ साल पहले अंतरिक्ष से आया एक बड़ा एस्टेरॉइड पृथ्वी से टकराया. इसने डायनासोर समेत पृथ्वी पर मौजूद तीन चौथाई जीवों का सफाया कर दिया. अब पता चला है कि यह एस्टेरॉइड अंतरिक्ष में कहां से आया था.
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करीब 660 लाख साल पहले का वो दिन डायनासोरों के लिए काल बनकर आया. लाखों सालों तक पृथ्वी पर राज करने वाली यह प्रजाति एक बड़ी दुघर्टना के कारण अचानक खत्म हो गई. वैज्ञानिक मानते हैं कि उस रोज करीब 10 किलोमीटर चौड़ा एक एस्टेरॉइड बहुत रफ्तार से आकर पृथ्वी पर गिरा.
इससे लगभग 10 करोड़ परमाणु बमों के बराबर ऊर्जा निकली. पृथ्वी पर भूकंप और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं की झड़ी लग गई. इस भीषण घटनाक्रम ने कई जीवों की प्रजातियों का सफाया कर दिया. इन्हीं में डायनासोर भी शामिल थे.
ये एस्टेरॉइड अंतरिक्ष के किस हिस्से से आया था, इसपर कई दशकों से बहस चल रही है. अब एक नए शोध ने बताया है कि कहर बरपाने वाला यह एस्टेरॉइड हमारे सौर मंडल के सबसे बड़े और सबसे पुराने ग्रह बृहस्पति से भी पार से पृथ्वी पर पहुंचा था. इस शोध से जुड़ी जानकारी साइंस जर्नल में प्रकाशित हुई है. जर्मनी की कोलोन यूनिवर्सिटी के इंस्टिट्यूट ऑफ जियोलॉजी एंड मिनरलॉजी में वैज्ञानिक मारियो फिशर इस शोध के प्रमुख लेखक हैं.
बड़ी संख्या में वैज्ञानिक मानते हैं कि मेक्सिको में आज जहां यूकेटाइन प्रायद्वीप है, वहीं यह एस्टेरॉइड आकर गिरा था. यहां 145 किलोमीटर चौड़ा क्रेटर, जिसे एक स्थानीय समुदाय के नाम पर 'चिकचुलूब इम्पैक्टर' कहा जाता है, इसी घटना का सबूत माना जाता है.
अब वैज्ञानिकों ने रुथेनियम नाम के एक दुर्लभ एलिमेंट की रासायनिक बनावट की समीक्षा करके पाया है कि मंगल ग्रह और बृहस्पति की कक्षाओं के बीच मंडराने वाले एस्टेरॉइडों के भीतर पाए जाने वाले एलिमेंट के बीच समानता पाई है. ज्ञात एस्टेरॉइडों में ज्यादातर मंगल और बृहस्पति के बीच मौजूद मुख्य एस्टेरॉइड बेल्ट के भीतर चक्कर लगाते हैं. 660 लाख साल पहले जो एस्टेरॉइड पृथ्वी से आकर टकराया, वह भी यहीं से आया था.
नासा ने वॉयजर 2 अंतरिक्षयान से संपर्क फिर से बहाल कर लिया है. इससे दोबारा डेटा भी मिलने लगा है. 1977 में वॉयजर अंतरिक्ष यात्रा पर रवाना हुआ था. इसकी पृथ्वी पर कभी वापसी नहीं होगी. जानिए क्यों बहुत खास है वॉयजर मिशन...
तस्वीर: ZUMA/imago images
176 सालों में बनने वाला खास संयोग
1965 में गणनाओं से पता चला कि अगर 1970 के दशक के अंत तक अंतरिक्षयान लॉन्च किया जाए, तो वो आउटर प्लैनेट के चारों विशाल ग्रहों- बृहस्पति, शनि, अरुण और वरुण तक पहुंच सकता है. अंतरिक्षयान को 176 सालों में बनने वाले एक ऐसे अनूठे अलाइनमेंट से मदद मिल सकती है, जिससे वो इन चारों में से हर एक ग्रह के गुरुत्वाकर्षण का इस्तेमाल कर अगले की ओर घूम सकता है. तस्वीर में: 1998 में वॉयजर की ली नेप्च्यून की तस्वीर
तस्वीर: NASA/JPL
जुड़वां यात्री
इसके बाद शुरू हुआ "द मरीनर जूपिटर/सैटर्न 1977" प्रोजेक्ट. मार्च 1977 में मिशन का नाम बदलकर वॉयजर रखा गया. इस मिशन के दो हिस्से हैं, वॉयजर 1 और वॉयजर 2. ये जुड़वां अंतरिक्षयान हैं. योजना के मुताबिक, वॉयजर 2 को वॉयजर 1 के बाद बृहस्पति और शनि ग्रह तक पहुंचना था. इसीलिए पहले रवाना होने के बावजूद इसका क्रम 2 है, 1 नहीं. फोटो में: 14 जनवरी, 1986 को वॉयजर 2 द्वारा ली गई यूरेनस की तस्वीर
तस्वीर: NASA/JPL
1977 में शुरू हुई यात्रा
वॉयजर 2 ने 20 अगस्त, 1977 को फ्लोरिडा के केप केनावरल से सफर शुरू किया. वॉयजर 1 ने भी 5 सितंबर, 1977 को यहीं से यात्रा शुरू की. दुनिया ने अंतरिक्षयान से ली गई पृथ्वी और चांद की जो पहली तस्वीर देखी, उसे 6 सितंबर 1977 को वॉयजर 1 ने ही भेजा था. 40 साल से ज्यादा वक्त से ये दोनों अंतरिक्ष के ऐसे सुदूर हिस्सों की खोजबीन कर रहे हैं, जहां धरती की कोई चीज पहले कभी नहीं पहुंची. फोटो: शनि ग्रह का सिस्टम
तस्वीर: NASA/abaca/picture alliance
बृहस्पति के राज बताए
5 मार्च, 1979 को वॉयजर 1 बृहस्पति के सबसे नजदीक आया. इसी से पता चला कि इस ग्रह पर सक्रिय ज्वालामुखी हैं. यह भी पता चला कि इसका "ग्रेट रेड स्पॉट" असल में एक बड़ा तूफान है और बृहस्पति पर भी बिजली गिरती है. जुलाई 1979 में वॉयजर 2 की भी बृहस्पति से मुलाकात हुई. इसी के मार्फत पहली बार बृहस्पति के छल्लों "रिंग्स ऑफ जूपिटर" की तस्वीर मिली. वॉयजर 2 ने बृहस्पति के चांद "मून यूरोपा" को भी करीब से देखा.
तस्वीर: Science Photo Library/IMAGO
शनि के चंद्रमा
नवंबर 1979 में वॉयजर 1 ने शनि ग्रह के सबसे बड़े चंद्रमा टाइटन को सबसे करीब से देखा. इसी यात्रा में मिले डेटा से पहली बार हमारी पृथ्वी से परे टाइटन पर नाइट्रोजन युक्त वातावरण की जानकारी मिली. इससे यह संभावना मिली कि टाइटन की सतह के नीचे तरल मीथेन और इथेन मौजूद हो सकती है. 1981 में वॉयजर 2 ने भी शनि के कई बर्फीले चंद्रमाओं को देखा.
तस्वीर: NASA/EPA/dpa/picture alliance
सौर मंडल का सबसे ठंडा ग्रह
जनवरी 1986 में वॉयजर 2 के मार्फत इंसानों ने यूरेनस का क्लोज-अप देखा. पहली बार पता लगा कि यहां तापमान माइनस 195 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है. यानी, यूरेनस या अरुण हमारे सौर मंडल का सबसे ठंडा ग्रह है. अगस्त 1989 में वॉयजर 2, नेप्च्यून या वरुण को सबसे पास से देखने वाला पहला अंतरिक्षयान बना. फिर इसने सौर मंडल के बाहर अपनी यात्रा शुरू की. तस्वीर में: वॉयजर 2 की भेजी तस्वीरों से बनाई गई यूरेनस की फोटो
तस्वीर: NASA/JPL/REUTERS
सुदूर अंतरिक्ष का यात्री
17 फरवरी, 1998 को पायनियर 10 को पीछे छोड़कर वॉयजर 1 अंतरिक्ष में सबसे सुदूर पहुंचा मानव निर्मित यान बना. 25 अगस्त, 2012 को वॉयजर 1 इंटरस्टेलर स्पेस में दाखिल हुआ. यह ऐसा करने वाली पहली मानव निर्मित वस्तु थी.
तस्वीर: United Archives/picture alliance
हेलियोस्फीयर के पार
फिर 5 नवंबर, 2018 को वॉयजर 2 हेलियोस्फीयर पार कर इंटरस्टेलर स्पेस में घुसा. हेलियोस्फीयर, सूर्य के सुदूर वातावरण की परत है, जो अंतरिक्ष में एक तरह का सुरक्षात्मक चुंबकीय बुलबुला है. वॉयजर 1 और 2 ने हमारे सौर मंडल के सारे बड़े ग्रहों की खोजबीन की. ये ग्रह हैं: बृहस्पति, शनि, अरुण और वरुण.
गोल्डन रेकॉर्ड: पृथ्वी का पैगाम
दोनों वॉयजर पर एक अद्भुत चीज है; 12 इंच की गोल्ड प्लेटेड कॉपर डिस्क. इसे कहा जाता है, गोल्डन रेकॉर्ड. अगर कभी पृथ्वी से परे जीवन के किसी रूप से इनकी मुलाकात हुई, तो ये गोल्डन रेकॉर्ड उन तक हमारे अस्तित्व का संदेश पहुंचाएंगे. पृथ्वी का जीवन, जीवन की विविधता, हमारी संस्कृति... सबका हाल सुनाएंगे. साथ ही, गोल्डन रेकॉर्ड कैसे बजाया जाए, इसके लिए सांकेतिक निर्देश भी हैं.
तस्वीर: ZUMA/imago images
संगीत और ध्वनियां भी हैं
इस रेकॉर्ड की सामग्रियों को नासा की एक कमिटी ने चुना था, जिसके अध्यक्ष मशहूर अमेरिकी खगोलशास्त्री कार्ल सागन थे. इनमें हमारे सौर मंडल का मानचित्र है. यूरेनियम का एक टुकड़ा है, जो रेडियोएक्टिव घड़ी का काम करता है और अंतरिक्षयान के रवाना होने की तारीख बता सकता है. पृथ्वी पर जीवन का स्वरूप बताने के लिए इनकोडेड तस्वीरें हैं. संगीत और कई ध्वनियां भी हैं. तस्वीर: कार्ल सागन
तस्वीर: IMAGO/UIG
अभी कहां हैं दोनों वॉयजर
वॉयजर एक अनंत यात्रा का राहगीर है, जो ब्रह्मांड में आगे बढ़ता रहेगा. नासा के "आईज ऑन द सोलर सिस्टम" ऐप पर आप दोनों वॉयजर यानों की यात्रा और लोकेशन देख सकते हैं. अभी तो वॉयजर अपने पावर बैंक की मदद से डेटा भेजते हैं, लेकिन 2025 के बाद इसके पावर बैंक धीरे-धीरे कमजोर होते जाएंगे. इसके बाद भी ये मिल्की वे में तैरना-टहलना जारी रखेगा. चुपचाप, शायद अनंत काल तक.
तस्वीर: Canberra Deep Space Com. Complex/NASA/ZUMA/picture alliance
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पृथ्वी पर बहुत दुर्लभ है रुथेनियम
इस शोध के लिए वैज्ञानिकों ने चिकचुलूब के पास कई भूगर्भीय परतों के डिपॉजिटों की पड़ताल की. उन्होंने यहां मिले रुथेनियम के आइसोटोप्स को मापा. यह एलिमेंट पृथ्वी पर बेहद दुर्लभ है, लेकिन एस्टेरॉइडों में आम है.
वैज्ञानिकों ने रुथेनियम आइसोटोप्स की तुलना मीटरॉइट्स के कई वर्गों से की. उन्होंने पाया कि चिकचुलूब इम्पैक्टर का कारक एक कार्बोनेशस एस्टेरॉइड था, जो कि बाहरी सौर मंडल में बना था. शोधकर्ताओं के मुताबिक, वे पुख्ता तौर पर कह सकते हैं कि उन्होंने जिस रुथेनियम का अध्ययन किया, वह 100 फीसदी पृथ्वी पर टकराने वाले एस्टेरॉइड का ही अंश है.
एस्टेरॉइड के दो मुख्य समूहों में अंतर के लिए रुथेनियम आइसोटोप्स का इस्तेमाल किया जा सकता है. इन दो प्रकारों में पहला है एस-टाइप सिलिकेट एस्टेरॉइड, जो भीतरी सौर मंडल में सूर्य के ज्यादा नजदीकी हिस्सों में बनते हैं. पृथ्वी पर गिरने वाले ज्यादा मीटेरॉइट्स, एस-टाइप होते हैं. दूसरा प्रकार है सी-टाइप, यानी कार्बोनेशस एस्टेरॉइड जो बाहरी सौर मंगल में बनते हैं. डायनासोरों के खत्म होने की वजह बना एस्टेरॉइड बाहरी सौर मंडल से आया होगा, यह अनुमान वैज्ञानिक करीब दो दशक से लगा रहे थे. हालांकि, यह अब तक पुख्ता नहीं था.
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मेन एस्टेरॉइड बेल्ट की चट्टानों का 'जेनेटिक फिंगरप्रिंट'
शोधकर्ताओं ने बताया है कि एस्टेरॉइड के टकराने से दुनिया में एक स्ट्रैटिग्रैफी (भूगर्भीय चट्टान और परतें) लेयर बनी. यह दो अहम कालखंडों के बीच की एक सीमा दर्शाती है. इसी परत में रुथेनियम समेत प्लैटिनम समूह के तत्व पाए गए.
बदलते प्रकृति और पर्यावरण के बीच करोड़ों साल बाद भी ये तत्व काफी स्थिर अवस्था में मिले. लाइवसाइंस से बात करते हुए शोध के प्रमुख लेखक मारियो फिशर ने इसे मेन एस्टेरॉइड बेल्ट की चट्टानों का 'जेनेटिक फिंगरप्रिंट' बताया. अनुमान है कि यह एस्टेरॉइड या तो अंतरिक्ष की अन्य चट्टानों के साथ टकराने के कारण या बाहरी सौर मंडल के असर से पृथ्वी को ओर बढ़ा होगा.
वो कंकाल जिसने खोला डायनासोरों का राज
04:27
अतीत से मिल सकते हैं भविष्य के सबक
मारियो फिशर ने समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में कहा, "कोलोन में हमारी प्रयोगशाला उन दुर्लभ लैब्स में है, जो इस तरह की गणनाएं कर सकती है. अब हम इस सारी जानकारियों के साथ यह कह सकते हैं कि वह एस्टेरॉइड बृहस्पति से भी परे बना था." वह कहते हैं यह शोध पृथ्वी से टकरा चुके खगोलीय पिंडों को लेकर हमारी समझ बेहतर कर सकती है.
यह निष्कर्ष इसलिए भी अहम माना जा रहा है कि इस तरह के एस्टेरॉइड दुर्लभ ही पृथ्वी से टकराते हैं. फिशर मानते हैं कि पृथ्वी से टकराने वाले एस्टेरॉइडों के स्वभाव की बेहतर समझ अब तक रहस्य बनी हुई विज्ञान और तकनीक की इस पहेली का भी जवाब दे सकती है कि हमारे ग्रह पर पानी कैसे और कहां से आया.
भविष्य की ओर ध्यान दिलाते हुए वह कहते हैं, "अतीत के एस्टेरॉइडों को पढ़कर हम भविष्य की तैयारी कर सकते हैं. अगर हमें यह पता चले कि पहले बड़े स्तर पर प्रजातियों के विलुप्त होने की घटनाओं का सी-टाइप एस्टेरॉइडों के टकराने से हुए असर से संबंध हो सकता है, अगर भविष्य में कोई सी-टाइप एस्टेरॉइड पृथ्ली की कक्षा को पार करने वाला हो, तो हमें बेहद सावधान रहना होगा. क्योंकि, वह शायद आखिरी एस्टेरॉइड हो जिसके हम चश्मदीद बनेंगे."