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प्रकृति और पर्यावरणसंयुक्त अरब अमीरात

सदियों पुराने ज्ञान से मिल सकता है जलवायु संकट का समाधान

११ दिसम्बर २०२३

मूलनिवासी समुदाय अपनी जीवनशैली और रोजगार के लिए बहुत हद तक प्रकृति पर निर्भर हैं. मूलनिवासी समुदाय पीढ़ियों पुराने ज्ञान से जलवायु संकट का सामना करने के तरीके खोज रहे हैं. ये तरकीबें बाकी दुनिया की भी मदद कर सकती हैं.

दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में बसा द्वीपीय देश टूवेलु
यूं तो पूरी दुनिया जलवायु संकट की गिरफ्त में है, लेकिन कुछ इलाकों पर ज्यादा तात्कालिक जोखिम मंडरा रहा है. मसलन, दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में बसा द्वीपीय देश टूवेलु. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, करीब 11 हजार लोगों की आबादी वाला यह देश जलवायु परिवर्तन के कारण बेहद नाजुक स्थिति में है. यहां समुद्रस्तर सालाना पांच मिलीमीटर की रफ्तार से बढ़ रहा है. चक्रवात और सूखे का जोखिम भी बढ़ने की आशंका है. टूवेलु का लक्ष्य है, 2025 तक अक्षय ऊर्जा स्रोतों से शत-प्रतिशत बिजली उत्पादन करना. साथ ही, यहां कृत्रिम द्वीप बनाने का विकल्प भी खंगाला जा रहा है. तस्वीर: Mario Tama/Getty Images

कुछ पत्तियों के गुच्छे और बारिश का पानी. ग्रेस तलावाग जब फिलीपींस के अपने द्वीप से सफर कर दुबई के जलवायु सम्मेलन में हिस्सा लेने पहुंचीं, तो ये दोनों चीजें साथ लाईं. वह COP 28 में शामिल होने आईं मूलनिवासी महिलाओं के एक प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा हैं.

ये महिलाएं विरासत में मिली पीढ़ियों पुरानी समझ के सहारे ना केवल खुद सामुदायिक स्तर पर जलवायु संकटसे मोर्चा ले रही हैं, बल्कि वो अपने बेशकीमती अर्जित अनुभव औरों के साथ भी साझा करना चाहती हैं. 

ज्यादा समावेशी बने जलवायु वार्ता

तलावाग अपने द्वीप से पत्तियों का जो गुच्छा लाईं, उनमें बांस के पत्ते भी शामिल थे. वह कहती हैं कि बांस के पत्ते चुनौतियों के मुताबिक ढलने की ताकत का प्रतीक हैं. जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए इंसानों को इस हुनर की दरकार है.

तलावाग, जेड वाइन की पत्तियां भी साथ लाई थीं, जिसका परिचय उन्होंने यूं दिया, "इसकी बेल रोशनी के लिए जंगल के किसी भी पेड़ के ऊपर चढ़ जाती है." तलावाग ने बताया कि पत्तियों का चुनाव उनकी उम्मीदों का प्रतीक है. वह चाहती हैं कि कॉप 28 के विमर्श में शामिल लोग "मूल निवासी समुदायों की आवाज सुनेंगे."

सम्मेलन में आने का मकसद बताते हुए तलावाग कहती हैं कि जलवायु संकट की चुनौतियों का सबसे ज्यादा सामना कर रहे समुदाय अपना अनुभव और ज्ञान साझा करना चाहते हैं. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि सम्मेलन को ज्यादा समावेशी बनाया जाए और इन समुदायों को वैश्विक बातचीत का अहम हिस्सा बनाया जाए.

जलवायु संकट की चरम स्थितियों का सामना कर रहे विकासशील देशों के लिए प्रस्तावित "लॉस एंड डैमेज" फंड में भी वह प्रभावित समुदायों की समुचित भागीदारी नहीं देखतीं. वह कहती हैं, "यहां तक कि लॉस एंड डैमेज फंड में भी हमें साथ नहीं लिया गया, हम बस दर्शक के तौर पर मौजूद हैं."

पाकिस्तान भी जलवायु संकट के कारण बेहद संवेदनशील इलाकों में है. नेचर कम्युनिकेशन्स नाम के जर्नल में छपे एक हालिया शोध के मुताबिक, दुनियाभर में करीब डेढ़ करोड़ लोग ग्लेशियर झीलों में बाढ़ के जोखिम का सामना कर रहे हैं. इनमें करीब 20 लाख लोग पाकिस्तान में हैं. तस्वीर: काराकोरम पर्वत शृंखला में गिलगित-बाल्टिस्तान की गोजाल घाटी का एक गांव. तस्वीर: AKHTAR SOOMRO/REUTERS

रासायनिक कीटनाशकों का जैविक विकल्प

इस समूह में भारत का भी प्रतिनिधित्व था. गुजरात की जसुमतिबेन जेठाभाई परमार ने रासायनिक कीटनाशकों का एक सुरक्षित विकल्प "जीवमूत्र" पेश किया है. यह नीम की पत्तियों, गोमूत्र और बेसन से बना है. इस ईको-फ्रेंडली समाधान की जड़े सदियों पुराने पारंपरिक ज्ञान से जुड़ी हैं.

जसुमतिबेन बताती हैं, "हमने भारतीय प्रतिनिधिमंडल से कहा है कि वह अन्य विकासशील देशों के आगे यह समाधान पेश करे. हमारा यह समाधान सदियों पुराना है और जलवायु परिवर्तन के कारण यह बहुत प्रासंगिक हो सकता है."

पनामा की रहने वाली 68 वर्षीय ब्रिसइदा इग्लेसियास भी कॉप 28 पहुंची मूलनिवासी महिलाओं के प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा हैं. वह पनामा में महिलाओं के नेतृत्व में हुए एक आंदोलन की अगुआ रही हैं. महिलाओं के इस समूह ने मिट्टी का खारापन कम करने के लिए यूकेलिप्टस के पौधे लगाए.

साथ ही, स्थानीय आबोहवा की बेहतर समझ और अपने पारंपरिक ज्ञान को साथ गुंथकर उन्होंने यूकेलिप्टस के साथ और भी चिकित्सीय पौधे लगाए.

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गरम हो रही पृथ्वी में बढ़ते समुद्रस्तर के बीच तटीय इलाकों में मिट्टी का बढ़ता खारापन एक बड़ी समस्या है. कॉप 28 में पहुंची इग्लेसियास को उम्मीद है कि उनके समुदाय द्वारा अपनाया गया यह समाधान अन्य प्रभावित देशों की भी मदद करेगा. वह कहती हैं, "सरकारें कदम उठाएं, हम इसके लिए इंतजार नहीं कर सकते."

बांग्लादेश भी जलवायु परिवर्तन का गंभीर असर झेल रहा है. समुद्र के बढ़ते जलस्तर के कारण किसानों पर खेती की जमीन गंवाने का जोखिम है. ऐसे में मूलनिवासी महिलाएं एक अलग तरकीब लगा रही हैं. वो तैरने वाले खेत और बेड़ों पर ऑर्गेनिक उत्पाद उगा रही हैं.

"साउथ एशियन फोरम फॉर एनवॉयरमेंट" नाम की संस्था इस काम में समुदाय की मदद कर रही है. इसके अध्यक्ष दीपायन डे बताते हैं, "तैरने वाले खेतों का यह विचार आगे बढ़कर भारत के सुंदरबन और कंबोडिया तक पहुंच गया है. जमीन के बढ़ते खारेपन से जूझ रहे देशों को इससे एक प्रासंगिक समाधान मिल रहा है."

एसएम/सीके (एपी)

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