ऑस्ट्रेलिया, यूके और अमेरिका ने मिलकर एक सामरिक मंच बना लिया है. इस मंच के ऐलान से कुछ देश खुलेआम तो कुछ अंदर ही अंदर नाराज हैं. क्या इस मंच से कुछ सकारात्मक हासिल कर पाएंगे ये तीन देश?
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आखिरकार जिसका डर था वही हुआ. चीन की बढ़ती ताकत और उसके आक्रामक और यदा-कदा हिंसात्मक रवैये के नाम पर लामबंद हो रहे पश्चिमी देशों और उनके जापान और भारत समेत तमाम एशियाई सहयोगी देशों के लिए ऑस्ट्रेलिया-यूनाइटेड किंग्डम-अमेरिका (आकुस) का त्रिपक्षीय गठबंधन एक आश्चर्यजनक खबर बनकर उभरा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के बीच इसी हफ्ते हुई ऑनलाइन वार्ता के दौरान इस त्रिपक्षीय सहयोग मंच का ऐलान किया गया.
पावरफुल पुतिन
07:55
देखा जाए तो यह तीनों ही देश एक दूसरे के साथ कई तरह के सामरिक, सैन्य और कूटनीतिक सहयोग के विभिन्न मोर्चों पर पिछली आधी सदी से भी ज्यादा से काम कर रहे हैं. ऐसे में एक नए मोर्चे का उद्घाटन कहीं गैरजरूरी तो कहीं बेवजह की चौधराहट दिखाने का जरिया ही लगता है.
कई देश खफा
हालांकि इस नए त्रिपक्षीय मंच के काफी पहलुओं पर अभी रोशनी पड़नी बाकी है लेकिन फिलहाल इतना साफ है कि प्रतिद्वंद्वी चीन के अलावा इस सहयोग ने इन तीनों पश्चिमी देशों के बड़े यूरोपीय सहयोगी, संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद के पांच सदस्यों में से एक, और इंडो-पैसिफिक में अच्छा दखल रखने वाले देश फ्रांस को भी खफा कर दिया है. यूरोपीय संघ के बाकी देशों को भी यह बात नाराज न करे तो पसंद तो नहीं ही आएगी.
आकुस की शिखर वार्ता के तुरंत बाद आये फ्रांस के विदेश मंत्री ज्याँ-वे ले ड्रिआँ के वक्तव्य ने साफ कर दिया है कि फ्रांस अमेरिका और ब्रिटेन के इस कदम को पीठ में छुरा घोंपने जैसा मानता है. चीन ने भी इस पर काफी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.
चीन का मानना है कि इस कदम से अमेरिका ने क्षेत्रीय राजनीति को एक जीरो-सम गेम या यूं कहें कि एक ऐसे राजनीतिक अखाड़े में बदल दिया है जिसमें एक पक्ष का हारना तय है.
चीन की चिंताओं के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि उससे प्रतिस्पर्धा और तनातनी के बीच अमेरिका एक के बाद एक नया सामरिक इंद्रजाल बिछाता जा रहा है. इस दौड़ में चीन कहीं न कहीं अब कमजोर भी होता जा रहा है. हालांकि चीन भी आसानी से हार मानने वाला नहीं है.
यूरोपीय राजनीति से भी जुड़े हैं तार
आकुस के इस अप्रत्याशित ऐलान का वक्त भी खासा दिलचस्प है. सबसे बड़ी बात तो यही है कि यूरोपीय संघ की इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटिजी के ऐलान से ठीक एक दिन पहले ब्रिटेन के इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में इस सामरिक कदम उठाने के तार सीधे तौर पर यूरोपीय राजनीति से जुड़े हैं
ब्रेक्जिट के बाद से ही अलग-थलग महसूस कर रहे ब्रिटेन ने ग्लोबल ब्रिटेन-आसियान में डायलॉग पार्टनर के ओहदे और तमाम छोटे बड़े व्यापार समझौते कर अपनी प्रासंगिकता साबित करने की कोशिश की है.
देखेंः दुनिया पर अमेरीकी राष्ट्रपतियों का असर
दुनिया पर ऐसा रहा है अमेरिकी राष्ट्रपतियों का असर
अमेरिकी राष्ट्रपति की नीतियां दुनिया की दिशा तय करती हैं. एक नजर बीते 11 अमेरिकी राष्ट्रपतियों के कार्यकाल और उस दौरान हुई मुख्य घटनाओं पर.
तस्वीर: DW/E. Usi
डॉनल्ड ट्रंप (2017-2021)
2017 में भले ही हिलेरी क्लिंटन को उनसे ज्यादा वोट मिले लेकिन जीत ट्रंप की हुई. अमेरिका और मेक्सिको के बीच दीवार बनाने और अमेरिका को फिर से "ग्रेट" बनाने के वादे के साथ ट्रंप चुनावों में उतरे थे. उनके कार्यकाल में अमेरिका पेरिस जलवायु संधि से और विश्व स्वास्थ्य संगठन से दूर हुआ. वे कभी कोरोना को चीनी वायरस बोलने से पीछे नहीं हटे. हालांकि उन्हें किम जोंग उन से मुलाकात करने के लिए भी याद रखा जाएगा.
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बराक ओबामा (2009-2017)
2007 की आर्थिक मंदी से कराहती दुनिया में ओबामा ताजा झोंके की तरह आए. देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति ने इराक और अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाई, लेकिन उन्हीं के कार्यकाल में अरब जगत में खलबली मची, इस्लामिक स्टेट बना और रूस से मतभेद चरम पर पहुंचे. ओबामा ने पेरिस में जलवायु परिवर्तन की ऐतिहासिक डील करवाई. वह भारत की गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति भी बने.
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जॉर्ज डब्ल्यू बुश (2001-2009)
बुश के सत्ता संभालने के बाद अमेरिका और पूरी दुनिया ने 9/11 जैसा अभूतपूर्व आतंकवादी हमला देखा. बुश के पूरे कार्यकाल पर इस हमले की छाप दिखी. उन्होंने अल कायदा और तालिबान को नेस्तनाबूद करने के लिए अफगानिस्तान में सेना भेजी. इराक में उन्होंने सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल कर मौत की सजा दिलवाई. बुश के कार्यकाल में भारत के साथ दशकों के मतभेद दूर हुए और दोस्ती की शुरुआत हुई.
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बिल क्लिंटन (1993-2001)
बिल क्लिंटन शीत युद्ध खत्म होने के बाद राष्ट्रपति बनने वाले पहले नेता थे. 1992 में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस कमजोर पड़ गया. क्लिंटन ने रूस को अलग थलग करने के बजाए मुख्य धारा में लाने की कोशिश की. क्लिंटन के कार्यकाल में अफगानिस्तान आतंकवाद का गढ़ बन गया. अमेरिका और पाकिस्तान की मदद से पनपा तालिबान सत्ता में आ गया. क्लिंटन का कार्यकाल आखिर में मोनिका लेवेंस्की अफेयर के लिए बदनाम हो गया.
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जॉर्ज बुश (1989-1993)
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिकी नौसेना के पायलट और बाद में सीआईए के डायरेक्टर रह चुके जॉर्ज बुश के कार्यकाल में दुनिया ने ऐतिहासिक बदलाव देखे. सोवियत संघ टूटा. बर्लिन की दीवार गिरी और पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण हुआ. लेकिन उनके राष्ट्रपति रहने के दौरान खाड़ी में बड़ी उथल पुथल रही. इराक ने कुवैत पर हमला किया और अमेरिका की मदद से इराक की हार हुई.
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रॉनल्ड रीगन (1981-1989)
कैलिफोर्निया के गवर्नर रॉनल्ड रीगन जब राष्ट्रपति बने तो सोवियत संघ के साथ शीत युद्ध चरम पर था. सोवियत सेना अफगानिस्तान में थी. कम्युनिज्म के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए रीगन ने अमेरिका के सैन्य बजट में बेहताशा इजाफा किया. रीगन ने पनामा नहर की सुरक्षा के लिए सेना भेजी. उन्होंने कई सामाजिक सुधार भी किये. रीगन को अमेरिकी नैतिकता को बहाल करने वाला राष्ट्रपति भी कहा जाता है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने उदार कूटनीति अपनाई. उन्हीं के कार्यकाल में मध्य पूर्व में कैम्प डेविड समझौता हुआ. पनामा नहर का अधिकार वापस पनामा को दिया गया. सोवियत संघ के साथ साल्ट लेक 2 संधि हुई. लेकिन 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति के दौरान तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर हमले और कई अमेरिकियों को 444 दिनों तक बंधक बनाने की घटना ने उनकी साख पर बट्टा लगाया.
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जेराल्ड फोर्ड (1974-1977)
रिचर्ड निक्सन के इस्तीफे के बाद उप राष्ट्रपति फोर्ड को राष्ट्रपति नियुक्त किया गया. बिना चुनाव लड़े देश के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति बनने वाले वे अकेले नेता है. उन्हें संविधान में संशोधन कर कार्यकाल के बीच में उपराष्ट्रपति बनाया गया था. राष्ट्रपति के रूप में फोर्ड ने सोवियत संघ के साथ हेल्सिंकी समझौता किया और तनाव को कुछ कम किया. फोर्ड के कार्यकाल में ही अफगानिस्तान संकट का आगाज हुआ.
तस्वीर: picture alliance/United Archives/WHA
रिचर्ड निक्सन (1969-1974)
निक्सन के कार्यकाल में दक्षिण एशिया अमेरिका और सोवियत संघ का अखाड़ा बना. भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध के बाद बांग्लादेश बना. निक्सन और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अनबन तो दुनिया भर में मशहूर हुई. लीक दस्तावेजों के मुताबिक निक्सन ने इंदिरा गांधी को "चुडैल" बताया. वियतनाम में बुरी हार के बाद निक्सन ने सेना को वापस भी बुलाया. उन्हीं के कार्यकाल में साम्यवादी चीन सुरक्षा परिषद का सदस्य बना.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
लिंडन बी जॉनसन (1963-1969)
जॉनसन जब राष्ट्रपति बने तो वियतनाम युद्ध चरम पर था. उन्होंने वियतनाम में अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढ़ाई. जॉनसन के कार्यकाल में तीसरा अरब-इस्राएल युद्ध भी हुआ. अरब देशों की हार के बाद दुनिया ने अभूतपूर्व तेल संकट भी देखा. इस दौरान अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग की हत्या के बाद बड़े पैमाने पर नस्ली दंगे हुए. जॉनसन ने माना कि अमेरिका में अश्वेत लोगों से भेदभाव बड़े पैमाने पर हुआ है.
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जॉन एफ कैनेडी (1961-1963)
जेएफके कहे जाने वाले राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल में क्यूबा का मिसाइल संकट देखा, भारत और चीन का युद्ध भी उन्हीं के सामने हुआ. कैनेडी के कार्यकाल में ही पूर्वी जर्मनी ने रातों रात बर्लिन की दीवार बना दी. युवा राष्ट्रपति ने न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीटी भी करवाई. कैनेडी के कार्यकाल में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच अंतरिक्ष होड़ भी शुरू हुई. 1963 में कैनेडी की हत्या कर दी गई.
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फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संघ के इंडो-पैसिफिक में तेजी से पैठ बनाने से ब्रिटेन की कूटनीतिक और सामरिक गतिविधियां बढ़ी हैं. लेकिन इस जल्दबाजी में लिए कदम में ब्रिटेन की अलग-थलग पड़ने की बेचैनी बहुत बड़ा कारक है.
शायद ब्रिटेन को इस बात का अंदाजा जल्दी ही हो भी जाएगा. दक्षिणपूर्व एशिया के कई देश अभी भी ब्रिटेन को अमेरिका से अलग एक मजबूत और भरोसेमंद पार्टनर के तौर पर देखते थे, पर अब वैसा होना मुश्किल होगा.
कहीं न कहीं ब्रिटेन को अभी भी लगता है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र खास तौर पर दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया में फ्रांस की बढ़ती मौजूदगी उसके लिए अच्छी नहीं होगी. भारत और फ्रांस के बीच रक्षा और सामरिक सहयोग भी ब्रिटेन को रास नहीं आया है और अमेरिका को भी यह बात खास अच्छी नहीं लगी है. उस पर ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के बीच 2019 में रक्षा करार हुआ. साथ ही हाल में भारत, फ्रांस, और ऑस्ट्रेलिया के बीच त्रिपक्षीय करार हुआ, तो शायद उसे भी एक अलग नजरिये से देखा गया होगा.
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फ्रांस और अन्य पश्चिमी सहयोगी
बहरहाल आकुस के जरिये ऑस्ट्रेलिया को आठ परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बियां अमेरिका मुहैया कराएगा. इस निर्णय के साथ ही ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस के साथ हुए करार को रद्द कर दिया है और यही बात फ्रांस को नागवार गुजरी है.
फ्रांस की चिंता सिर्फ पनडुब्बी नहीं है. सवाल है कि अमेरिका ने उसे किनारे कर इस त्रिपक्षीय समझौते को मंजूरी दी. जाहिर है यह बात अब जब निकल पड़ी है तो बहुत दूर तलक जाएगी. मसलन एक सवाल तो लाजिमी है कि क्या ‘फाइव आईज' के बाकी दो साथी - कनाडा और न्यूजीलैंड - इस लायक नहीं थे कि उन्हें आकुस में शामिल किया जाता?
मान लीजिये अपनी परमाणु नीतियों की वजह से ये दोनों देश न भी शामिल होना चाहें तो भी क्या अब ‘फाइव आईज' की उतनी ही महत्ता रहेगी, जितनी पहली थी?
जानेंः यूरोप और यूरोपीय संघ में फर्क
यूरोप और यूरोपीय संघ में क्या फर्क है
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कई बार यूरोपीय संघ को ही यूरोप समझ लिया जाता है. लेकिन दोनों के बीच बहुत अंतर है. चलिए डालते हैं इसी पर एक नजर:
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देश
ब्रिटेन के निकलने के बाद यूरोपीय संघ में 27 सदस्य बचेंगे जबकि यूरोपीय महाद्वीप में कुल देशों की संख्या लगभग 50 है. वैसे पूर्वी यूरोप के कई देश यूरोपीय संघ का हिस्सा बनना चाहते हैं.
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क्षेत्रफल
यूरोपीय संघ का क्षेत्रफल 4.4 लाख वर्ग किलोमीटर है जबकि समूचा यूरोपीय महाद्वीप लगभग एक करोड़ वर्ग किलोमीटर में फैला है. इस तरह ईयू क्षेत्रफल के मामले में पूरे यूरोप का आधा भी नहीं है.
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जनसंख्या
यूरोपीय संघ में शामिल देशों की कुल जनसंख्या 51.1 करोड़ है. वहीं यूरोप के सभी देशों की जनसंख्या की बात करें तो वह लगभग 74.1 करोड़ बैठती है. यूरोप के कई देश अपनी घटती जनसंख्या को लेकर फिक्रमंद हैं.
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मुद्रा
यूरोपीय संघ के भीतर एक और समूह है जिसे यूरोजोन कहा जाता है. यह यूरोपीय संघ के उन देशों का समूह है जिन्होंने यूरो को अपनी मुद्रा के तौर पर अपनाया है. बाकी अन्य देशों की अपनी अपनी मुद्राएं हैं.
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ये नहीं हैं ईयू में
सबसे चर्चित यूरोपीय देशों में शामिल स्विट्जरलैंड और नॉर्वे ईयू का हिस्सा नहीं हैं, जबकि ब्रिटेन ब्रेक्जिट के बाद उससे अलग होने का मन बना चुका है. अन्य नॉन ईयू यूरोपीय देशों में यूक्रेन, सर्बिया और बेलारूस शामिल हैं.
तस्वीर: picture-alliance/robertharding
जीडीपी
जर्मनी, फ्रांस, डेनमार्क, इटली और स्वीडन जैसे समृद्ध देश यूरोपीय संघ का हिस्सा है. इसीलिए उसकी जीडीपी 2018 में 18,400 अरब डॉलर रहने की उम्मीद है. वहीं पूरे यूरोप की जीडीपी 20,200 अरब डॉलर रह सकती है.
तस्वीर: Sergei Supinsky/AFP/Getty Images
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और भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के चार देशों वाले क्वॉड्रिलैटरल सिक्यॉरिटी डायलॉग का क्या, जिसकी शिखर बैठक अगले ही हफ्ते 24 सितंबर को होनी है? आकुस-क्वाड-फाइव आईज- और फ्रांस के साथ त्रिपक्षीय सहयोग के मंचों के बीच कोई सहयोग की गुंजाइश है, या बनाई जाएगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल है. इस मुद्दे पर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के कई देशों की राजधानियों में सरगर्मी से चिंतन-मनन हो रहा होगा.
आकुस का आना फिलहाल तो ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली कहावत की और इशारा करता सा दिखता है. खास तौर पर अगर हाल में लिए गए तमाम मिनीलैटरल सहयोग समझौतों को किसी तर्कसंगत क्रम में जोड़ा नहीं गया तो. और फ्रांस के गुस्से के नतीजे तो खैर समय आने पर ही जाहिर होंगे.